कुछ लोग सच में मुसीबतों से मुक्त ही नहीं होना चाहते। अगर उनकी अपनी परेशानियाँ खत्म हो जाएँ, तो वे टीवी के धारावाहिक देखना शुरू कर देते हैं ताकि किसी और के काल्पनिक दुखों को लेकर चिंता कर सकें। कुछ को तो चिंता करने में मज़ा आता है। उन्हें दुख ही “मनोरंजन” लगता है। असल में वे खुश रहना चाहते ही नहीं, क्योंकि वे अपनी तकलीफ़ों से ही गहरे जुड़े रहते हैं।
दो भिक्षु, जीवन भर गहरे मित्र थे। मृत्यु के बाद, एक का पुनर्जन्म स्वर्गलोक में एक देवता के रूप में हुआ — सुंदर और आनंदमयी दिव्य लोक में। जबकि दूसरे का पुनर्जन्म एक कीड़े के रूप में हुआ — गंदगी के एक ढेर में!
स्वर्गलोक में रहते हुए, देवता मित्र को अपने पुराने भिक्षु मित्र की याद आई। उसने अपने स्वर्गलोक में उसे खोजा, फिर और स्वर्गों में भी। वो कहीं नहीं मिला।
फिर उसने धरती पर खोजा — वहाँ भी नहीं मिला। “क्या वो जानवरों के लोक में गया होगा?” सोचते हुए, उसने वहाँ भी देखा। और आखिरकार, ‘रेंगनेवाले जीवों’ के संसार में — वहाँ, गंदगी के एक सड़ांध मारते ढेर में, उसने अपने पुराने मित्र को एक कीड़े के रूप में पाया!
मित्रता का बंधन मृत्यु के बाद भी अटूट रहता है। देवता ने सोचा, “मुझे अपने मित्र को इससे बाहर निकालना ही होगा — चाहे जैसे भी।”
वह उस गंदगी के ढेर के पास प्रकट हुआ और पुकारा: “अरे कीड़े! मुझे पहचानता है? हम पिछले जन्म में भिक्षु थे — तू मेरा सबसे अच्छा दोस्त था! अब मैं स्वर्गलोक में हूँ — तू यहाँ इस गंदी गोबर की ढेर में पड़ा है! चल मेरे साथ — मैं तुझे स्वर्ग ले चलता हूँ!”
कीड़ा बोला: “रुको ज़रा! इस ‘स्वर्गलोक’ में ऐसा क्या है जो इतना खास है? मैं यहाँ अपनी स्वादिष्ट, सुगंधित गोबर की ढेर में बहुत खुश हूँ, धन्यवाद!”
देवता ने स्वर्ग के सुखों का बड़ा ही मोहक विवरण सुनाया — न कोई दर्द, न रोग, न मृत्यु — बस दिव्य संगीत, सुगंध और परमानंद!
कीड़ा बोला: “वहाँ कोई गोबर है?”
देवता ने नाक सिकोड़ते हुए कहा: “बिलकुल नहीं!”
कीड़ा तुर्शी से बोला: “तो फिर मुझे नहीं जाना! दफा हो जाओ यहाँ से!” और वह सीधे गोबर के अंदर घुस गया!
देवता ने सोचा — “अगर मैं इसे ऊपर ले जाकर खुद स्वर्ग दिखा दूँ — तो ये समझ जाएगा।” उसने नाक दबाई, और नरम स्वर्गीय हाथ गोबर में डाले, कीड़े को पकड़ने की कोशिश की।
“छोड़ो! बचाओ! कीड़ा-अपहरण हो रहा है!” कीड़ा छटपटा के फिसल गया और फिर से गहराई में छिप गया।
देवता ने फिर कोशिश की — इस बार कीड़ा थोड़ा निकला, लेकिन फिसलकर फिर से गायब हो गया।
१०८ बार देवता ने उसे बाहर निकालने की कोशिश की — लेकिन कीड़ा अपने प्यारे गोबर से इतना चिपका हुआ था कि हर बार फिसलकर वापस उसी गंदगी में चला गया।
आखिरकार, देवता को हिम्मत हारनी पड़ी। वह वापस स्वर्गलोक चला गया। और मूर्ख कीड़े को उसकी “प्यारी गंदगी” में ही छोड़ दिया।
तो इस पुस्तक की १०८वीं और अंतिम कहानी यहीं समाप्त होती है।