नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

दृष्टा भाव

कभी-कभी ध्यान आसान लगता है, कभी-कभी कठिन। लेकिन चाहे जो भी स्थिति हो, मन को स्थिर रखना सबसे ज़रूरी है। जब ध्यान आसान लगे, तो लापरवाह मत बनो। अगर लापरवाह हो गए, तो चीज़ें ढीली पड़ने लगती हैं, जैसे किसी गाड़ी के पेंच ढीले हो जाएँ। पहले तो सब कुछ ठीक लगता है, लेकिन फिर हल्की-हल्की आवाज़ें आने लगती हैं, और आखिरकार चीज़ें टूटकर गिरने लगती हैं।

उसी तरह, जब ध्यान कठिन लगे, तो परेशान मत हो। सबसे पहला नियम यही है कि मन को संतुलित रखा जाए। अपने भीतर उस भाग को मज़बूत करो जो केवल देख रहा है, जो सिर्फ़ अवलोकन कर रहा है, और जितना हो सके, खुद को उसी से जोड़ो।

अजान सुवात ने एक बार बताया कि जब वे पहली बार अजान मुन के पास गए, तो उनका मन हर तरफ़ भाग रहा था। वे ध्यान में बैठते और तरह-तरह की बातें सोचते रहते। वे डरते थे कि अगर उन्होंने अजान मुन को यह सब बता दिया, तो पता नहीं वे क्या कहेंगे। लेकिन फिर उन्होंने सोचा, “मैं यहाँ सीखने आया हूँ।” इसलिए वे अजान मुन के पास गए और सलाह माँगी।

अजान मुन ने कहा, “कम से कम तुम्हें यह तो पता है कि क्या हो रहा है। यह उस स्थिति से बेहतर है जब तुम्हें अपनी उलझनों का भी पता न हो।” फिर उन्होंने सतिपट्टान सुत्त से एक उद्धरण दिया: जब मन बिखरा हुआ हो, तो यह जानना कि मन बिखरा हुआ है—यही सतिपट्ठान (स्मृत्युपस्थान) का एक आधार है।

अजान सुवात ने इस सीख को बहुत अच्छे से अपनाया। उन्होंने समझ लिया कि अजान मुन उनकी प्रशंसा नहीं कर रहे थे, बल्कि उन्हें एक तरह से ढाँढस बँधा रहे थे, हौसला दे रहे थे। वे यह नहीं कह रहे थे कि सब कुछ ठीक है, लेकिन वे यह भी जता रहे थे कि यह कोई आपदा नहीं है। कम से कम ध्यान कर रहे थे, और यह ध्यान न करने से बेहतर था।

अक्सर लोगों के साथ ऐसा होता है कि जब ध्यान ठीक से नहीं होता, तो वे सोचते हैं, “आज ध्यान करने का सही समय नहीं है, बेहतर होगा कि छोड़ दूँ।” लेकिन ध्यान न करना समाधान नहीं है। भले ही अनुभव सुखद न हो, लेकिन एक असफल ध्यान सत्र भी ध्यान न करने से बेहतर होता है।

ध्यान के दौरान ऐसा कोई क्षण आ सकता है जब अचानक कुछ स्पष्ट होने लगे, जब कोई नई बात समझ में आ जाए, जो पहले नहीं दिखी थी। इसी कारण से “अवलोकन करने वाले” की भावना इतनी महत्वपूर्ण होती है।

बुद्ध वचनों में ध्यान करने वाले व्यक्ति की तुलना उस व्यक्ति से की गई है जो अपने ध्यान के विषय को अच्छे से थामे हुए है। इसका रूपक इस प्रकार दिया गया है: जैसे कोई बैठा हुआ व्यक्ति लेटे हुए व्यक्ति को देख रहा हो, या कोई खड़ा हुआ व्यक्ति बैठे हुए व्यक्ति को देख रहा हो। इसका अर्थ है कि जो कुछ हो रहा है, उससे थोड़ा ऊपर उठकर देखो।

एक कदम पीछे हटो और चीज़ों को व्यापक दृष्टिकोण से देखो। यह समझो कि मन में असंतुलन कहाँ है, ध्यान में क्या हो रहा है, और यह सोचो कि उसे संतुलित करने के लिए क्या किया जा सकता है।

आखिर ध्यान ठीक से क्यों नहीं हो रहा? क्या कमी रह गई है? अजान फुआंग ने एक बार सलाह दी थी कि अजान ली ने अपनी दूसरी विधि में जो सात कारक बताए हैं, उनका मानसिक रूप से अवलोकन करो और अपने ध्यान की तुलना उनसे करो। देखो कि क्या कमी रह गई है। अगर सभी सात घटक मौजूद हैं, तो मन निश्चित रूप से ठहर जाएगा—सजग, स्थिर और शांत। तो जाँचो कि क्या कमी रह गई है। क्या तुम्हें साँसों की लम्बाई स्पष्ट नहीं दिख रही? क्या तुम्हें यह नहीं पता कि साँस आरामदायक है या नहीं? क्या तुम आरामदायक सांसों के संवेदन को पूरे शरीर में नहीं फैला रहे? क्या मन को टिकाने के लिए कोई आधार नहीं बना पा रहे, कोई विश्राम स्थल नहीं मिल रहा? बस इस सूची से एक-एक करके देखो, और अगर कुछ कम हो तो उसे पूरा करने की कोशिश करो।

लेकिन यह सब करने के लिए ज़रूरी है कि तुम अवलोकन करने वाले भाव को बनाए रखो—वह भाग जो केवल देखता है, जो परेशान नहीं होता, जो घटनाओं में बह नहीं जाता, बस निष्पक्ष रूप से देखता रहता है। जब इस तरह देख सकते हो, तो एक खराब ध्यान भी पूरी तरह बेकार नहीं जाता। इसे एक चुनौती के रूप में लो। आज का ध्यान कल रात से अलग हो सकता है। हो सकता है कि कल रात ध्यान बहुत अच्छा हुआ हो, लेकिन आज बैठते ही महसूस हो कि चीज़ें वैसी नहीं चल रहीं। हड़बड़ाने के बजाय खुद से पूछो: “क्या यह शरीर की समस्या है? क्या साँस में कुछ गड़बड़ है? क्या ऊर्जा का स्तर सही नहीं है? क्या मैं बहुत उत्तेजित हूँ? या बहुत सुस्त?” ध्यान में कई अलग-अलग चीज़ें असर डाल सकती हैं—कुछ शरीर से जुड़ी होती हैं, कुछ मन से। अगर ऊर्जा कम लग रही है, तो साँस लेने के तरीके को बदला जा सकता है ताकि ऊर्जा बढ़े। अगर बहुत अधिक बेचैनी महसूस हो रही है, तो साँसों को इस तरह समायोजित किया जा सकता है कि मन शांत हो।

जितना हो सके, उतना सूक्ष्मता से निरीक्षण करो। कई बार ध्यान में जो सबसे अधिक अंतर लाता है, वह छोटी-छोटी बातें होती हैं, और अगर ध्यान से नहीं देख रहे, बस यंत्रवत ध्यान कर रहे हो, तो बहुत कुछ छूट सकता है। हो सकता है कि कोई महत्वपूर्ण चीज़ छूट रही हो, जो देखने में मामूली लगे। इसलिए हर पहलू को बहुत बारीकी से जाँचो, अवलोकन की क्षमता को पैना बनाओ, बहुत क़रीब से देखो।

थाई भाषा में एक शब्द है “थी” जिसका अर्थ होता है चीज़ों के बीच की निकटता—जैसे कंघी के दाँत या किसी बाड़ की लकड़ियाँ कितनी क़रीब हैं। यह शब्द रेडियो सिग्नल की आवृत्ति के लिए भी इस्तेमाल होता है—जितनी अधिक आवृत्ति, उतनी ही अधिक निकटता। इसी तरह, तुम्हारी सतर्कता और सजगता के बीच की निकटता बहुत क़रीब होनी चाहिए—बिल्कुल लगातार, बिना किसी खाली जगह के। अगर इन दो क्षणों के बीच अधिक अंतराल छोड़ दिया, तो मन में पर्दा गिरने का समय मिल जाता है। फिर अंदर के मंच के कर्मचारी दृश्य को बदल देते हैं, और जब पर्दा उठता है, तो तुम कहीं और पहुँच चुके होते हो। लेकिन अगर तुम्हारी सतर्कता इतनी क़रीब है कि कोई अंतराल न हो, तो पर्दा गिरने का समय ही नहीं मिलेगा। अगर वे दृश्य बदलने की कोशिश भी करें, तो तुम उसे होते हुए देख सकते हो, और यही वह समझ है जो तुम्हें भटकने से बचाती है।

इसलिए ध्यान में चाहे जो हो, हमेशा खुद से पूछो, “अवलोकन करने वाला अभी कहाँ है?"—यानी मन का वह भाग जो सिर्फ़ देखता है, जो घटनाओं से प्रभावित नहीं होता, जो किसी भी चीज़ से स्पर्श नहीं होता, बस देखता है कि क्या हो रहा है। हम इतने अभ्यस्त हो चुके हैं उस मानसिक स्थिति में जीने के, जो घटनाओं से प्रभावित होती रहती है, कि जब हम पीछे हटकर सिर्फ़ देखने की स्थिति में आते हैं, तो यह अजीब सा लगता है। लेकिन मन का एक कोना हमेशा रहता है जो सिर्फ़ देख सकता है। तो उसे खोजने की कोशिश करो, उससे परिचित हो जाओ। उसे अपनी स्थिर स्थिति बना लो ताकि जो भी हो, तुम स्पष्ट रूप से देख सको कि क्या हो रहा है।

जब तुम स्पष्ट रूप से कारण और परिणाम को देख सकते हो, तो तुम अपने विवेक का उपयोग करके समायोजन कर सकते हो—यहाँ कुछ बदल सकते हो, वहाँ कुछ समायोजित कर सकते हो, यह कोशिश कर सकते हो, वह कोशिश कर सकते हो। और अगर कोई प्रयास सफल न भी हो, तो भी तुम्हें कुछ सीखने को मिलता है। यह समझ आ जाता है कि यह विशेष तरीका यहाँ काम नहीं करता—और यह जानना भी मूल्यवान है।

अगर यह दृष्टिकोण अपनाते हो, तो फिर ध्यान चाहे कितना भी अच्छा चले या कितना भी खराब, यह हमेशा सीखने का एक अवसर बन जाता है।


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