अभी हमने समाधि के प्रति सम्मान की बात करते हुए पाठ किया। यह एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जिसे हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। अक्सर ऐसा होता है कि जब मन शांत होता है, तो हम उसकी कद्र नहीं करते। कोई विचार अचानक उभरता है और हम उसके पीछे भागने लगते हैं। हम बहुत जल्दी अपने आधार स्थान से बाहर चले जाते हैं और फिर वापस लौटना कठिन हो जाता है।
हमें यह सीखना होगा कि समाधि को अपने मन की सामान्य स्थिति बनाना है—स्थिर, उपस्थित, और शरीर के प्रति सचेत, अपने भीतर चल रही प्रक्रियाओं के प्रति जागरूक। यह नहीं कि जब हम एकाग्र होते हैं तो बाकी सब कुछ महसूस ही न हो, या हमारी इंद्रियाँ काम करना बंद कर दें। बात सिर्फ इतनी है कि मन उन चीज़ों के पीछे भागता नहीं है। वह अपनी जगह पर स्थिर रहता है, सांस के साथ टिकता है, अपने केंद्र बिंदु पर टिका रहता है और वहीं से अपने स्थिर होने के भाव की रक्षा करता है, उसकी देखभाल करता है। यही एक तरीका है जिससे समाधि बढ़ सकती है, जिससे उसमें वह स्थिरता आ सकती है जो हमें हर परिस्थिति में संभाले रखे।
बहुत बार लोग कहते हैं, “अब मेरा मन शांत हो गया है, अब आगे क्या करना है?” वे अगले कदम पर जाने के लिए बहुत उतावले होते हैं, जल्द से जल्द किसी अंतर्दृष्टि (विपश्यना) की ओर भागना चाहते हैं। लेकिन इससे पहले कि मन किसी भी मुक्ति देने वाली अंतर्दृष्टि को प्राप्त कर सके, उसे सबसे पहले इस हड़बड़ाहट पर काबू पाना होगा—इस बेचैनी पर काबू पाना होगा कि “अब आगे क्या?” मन को बहुत ठोस और स्थिर बनाना होगा, क्योंकि जब तुम लोभ, द्वेष और मोह को समझने की प्रक्रिया शुरू करोगे, तो यह ऐसा होगा जैसे भयंकर तूफानों से टकरा रहे हो। अगर तुम्हारी समाधि सच में ठोस और स्थिर नहीं है, तो तुम इन झंझावातों में उड़ जाओगे।
इसलिए तुम्हें मार्ग के इस हिस्से का सम्मान करना होगा। यह मार्ग का हृदय है। स्वयं बुद्ध ने कहा था कि सम्यक समाधि (सही ध्यान) अष्टांगिक मार्ग का केंद्र है, जबकि मार्ग के बाकी सभी अंग मात्र सहायक हैं—वे समाधि को सही बनाए रखने, उसे मार्ग पर टिकाए रखने के लिए हैं।
तो इस मानसिक अवस्था का सम्मान करो। इसकी देखभाल करो। कभी-कभी यह लग सकता है कि जब हम मन को स्थिर, सुखद, और अपने नियंत्रण में रखते हैं, तो हम बुद्ध की अनित्यता, दुख, और अनात्मा की शिक्षा के विरुद्ध जा रहे हैं। जब हम इस गहरी समाधि में डूब जाते हैं, तो हम उस स्थिरता के साथ स्वयं को जोड़ लेते हैं, उसे अपना मान लेते हैं। यहाँ तक कि स्थिरता और उसका विषय दोनों एक हो जाते हैं।
ऐसे में लग सकता है कि हम जिस अंतर्दृष्टि की ओर बढ़ रहे थे, उससे विपरीत दिशा में जा रहे हैं। लेकिन वास्तव में हम यह जाँच रहे होते हैं कि मनुष्य की प्रयास-शक्ति की सीमाएँ कहाँ तक जा सकती हैं। हम इन स्कंधों — शरीर, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान — को अपनाने के बजाय, उन्हें साधन के रूप में उपयोग करना सीख रहे होते हैं।
और जब हम इन्हें साधन बनाते हैं, तो उस प्रक्रिया में, कुछ हद तक, उनसे जुड़ाव भी रखना पड़ता है। इसीलिए समाधि की अवस्था में हम इन्हें अपनाते हैं, उनके साथ एक हो जाते हैं। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम इन्हें सिर्फ अपनाते ही नहीं, बल्कि इन्हें मार्ग के रूप में उपयोग भी करते हैं। यही सबसे बड़ा अंतर है।
तुम चीज़ों को एक साथ लाते हो, और जब वे एकत्र हो जाती हैं, तो तुम उन्हें उनकी वास्तविक प्रकृति के अनुसार छांट सकते हो। अगर हर चीज़ इधर-उधर बिखरी हुई हो, तो यह देखना कठिन हो जाता है कि वे कैसे परस्पर क्रिया करती हैं, उनके बीच संबंध कहाँ हैं, और उनकी सीमाएँ कहाँ खिंची हुई हैं। लेकिन जब तुम उन्हें यहीं, एक स्थान पर, एकत्र कर लेते हो, तो एक लंबे समय तक साथ रहने के बाद वे अपने-आप अलग होने लगती हैं।
आचार्य ली एक सुंदर उपमा देते हैं—एक पत्थर को आग में डालने की। जब पत्थर के भीतर मौजूद विभिन्न तत्व अपने-अपने गलनांक (melting point) तक पहुँचते हैं, तो वे एक-एक करके उससे बाहर निकल आते हैं। वे इसी तरह अलग होते हैं। यही प्रक्रिया उन सभी चीज़ों पर लागू होती है जिन्हें तुम समझने और उनमें अंतर्दृष्टि प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हो। जब वे लंबे समय तक एकत्र रहते हैं, जब तुम उन्हें एक गहरी एकता में टिकाकर रखते हो, तो वे अपने-आप अलग-अलग होने लगते हैं। और तुम्हें बस इतना करना होता है कि एक सरल प्रश्न पूछो—“यह क्या है? क्या यह वही है जो वह है?” फिर बस देखते रहो। तुम्हें स्वयं ही दिखने लगेगा कि इनके बीच एक प्राकृतिक विभाजन रेखा है।
लेकिन जब तक मन को समाधि की एकता में नहीं लाया जाता, तब तक ये स्पष्ट रूप से नहीं दिखता। जो भी विभाजन रेखाएँ दिखती हैं, वे केवल शब्दों और धारणाओं की दी हुई होती हैं—पूर्व-निर्धारित विचारों की बनाई हुई।
उन पूर्व-निर्धारित विचारों को छोड़ दो और बस मन को केंद्रित करने पर ध्यान दो। तुम यहाँ बैठे हो, एकाग्रता में, और उसे जितना हो सके उतना सूक्ष्म और ठोस बना रहे हो। जब तुम ध्यान से उठो, तो उसे गिराओ मत। उसे बनाए रखने का प्रयास करो।
बुद्धवचन में एक सुंदर उपमा दी गई है—एक व्यक्ति के सिर पर तेल से भरा कटोरा रखा हुआ है। उसे इतना संतुलित होकर चलना है कि तेल की एक बूंद भी न गिरे। तुम्हें भी यही संतुलन, सावधानी और सजगता विकसित करनी है। जब तुम ध्यान से उठो और अपने निवास स्थान की ओर जाओ, तो इस भाव को बनाए रखने का प्रयास करो। इसे गिरने मत दो। यही एकाग्रता के प्रति सम्मान का एक महत्वपूर्ण पहलू है—दिनभर इसे बनाए रखना, बाहरी चीज़ों में भटकने से खुद को बचाना।
फिर भी, तुम्हें बाहरी चीज़ों का ज्ञान रहेगा—लोगों से बात करनी होगी, कार्य करने होंगे, पक्षियों की आवाज़ सुनाई देगी, हवा के झोंकों का एहसास होगा। ये सब तुम्हारी जागरूकता के भीतर रहेंगे, लेकिन तुम अपनी चेतना को उनके पीछे भागने नहीं दोगे। तुम्हारा केंद्र भीतर रहेगा।
जब यह निरंतरता विकसित होती है, तो यह तुम्हारी आदत बन जाती है—जागरूकता का स्वाभाविक केंद्र, ध्यान का स्वाभाविक बिंदु। फिर जब मन किसी चीज़ की ओर जाने की कोशिश करता है, तो यह स्पष्ट रूप से दिखने लगता है।
दूसरे शब्दों में, किसी चीज़ को देखने या जानने की इच्छा: तुम इसे ठीक उसी रूप में देखोगे—एक प्रवाह या शरीर के किसी विशेष हिस्से में एक संवेदना, जो किसी चीज़ की ओर बह रही है। अगर तुम इसे सही समय पर देख सको, तो स्पष्ट हो जाएगा: “ओह, यह तब होता है जब मन अपनी चेतना को बाहर केंद्रित करता है।” इस परिवर्तन का एक मानसिक और एक शारीरिक पहलू होता है। जब तुम्हारी स्पष्ट जागरूकता पर्याप्त रूप से स्थिर होती है, तो तुम इन्हें उनके चलने के दौरान ही देख सकते हो।
तुम्हारी जागरूकता जितनी स्थिर होगी, तुम मन में होने वाली गति को उतना ही सूक्ष्म रूप में देख सकोगे। इसलिए यह स्थिरता बहुत महत्वपूर्ण है। इसके बिना, अंतर्दृष्टि केवल शब्दों और विचारों तक सीमित रह जाती है—पुस्तकों से सीखी हुई बातें। लेकिन इसके साथ, अंतर्दृष्टि चीज़ों को वैसे देखने लगती है, जैसे वे वास्तव में घट रही हैं, जैसे वे वास्तव में प्रवाहित हो रही हैं।
जब तुम अब उन प्रवाहों पर सवार नहीं हो, जिन पर पहले सवार होते थे, तो तुम उन्हें देख सकते हो। मन की जो गतियाँ पहले तुम्हें अपने साथ बहा ले जाती थीं, अब तुम उन्हें केवल एक दर्शक की भांति देख सकते हो। यही सबसे बड़ा अंतर है। यदि तुम उनके साथ बह जाओ, तो यह केवल सामान्य मन की प्रवृत्ति होगी। लेकिन जब भीतर एक स्थिरता का अनुभव होता है, तब तुम देख सकते हो कि विचार कैसे बाहर जाते हैं, धारणाएँ कैसे फैलती हैं, और चीज़ों से चिपकने की प्रवृत्ति कैसे जन्म लेती है।
जब तुम इन्हें प्रत्यक्ष रूप से घटते हुए देखते हो, तो एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है—“मैं आखिर इसे अपनी पहचान क्यों बनाऊँ?”
यही वह बिंदु है जहाँ मुक्ति की संभावना उत्पन्न होती है। लेकिन यह तभी संभव है जब मन वास्तव में पूर्णतः स्थिर हो। और स्थिर होने के लिए वर्तमान क्षण में एक सहज सुख का अनुभव होना आवश्यक है। यदि मन को यहाँ टिके रहना है, तो उसे यहाँ अच्छा महसूस होना चाहिए। ध्यान को ठोस और सहज बनाए रखने के लिए, तुम्हें यहीं, इसी क्षण में, एक स्थायी संतोष महसूस करना होगा।
शरीर में श्वास के साथ कार्य करो, ताकि मन स्थिर और स्पष्ट हो सके। जब तुम श्वास के माध्यम से शरीर में व्याप्त पीड़ा को हल करने का प्रयास करते हो, तो तुम पाओगे कि कुछ पीड़ाएँ ऐसी हैं जिन्हें तुम श्वास के माध्यम से दूर कर सकते हो, और कुछ ऐसी हैं जिन्हें नहीं कर सकते। लेकिन इसे केवल प्रयोग करके ही जाना जा सकता है। यदि कोई पीड़ा ऐसी है जिसे तुम श्वास के द्वारा नहीं मिटा सकते, तो तुम उसके साथ रहना सीखते हो। उससे अपनी पहचान नहीं बनाते। तुम उसके प्रति सचेत रहते हो, लेकिन तुम्हारी जागरूकता और पीड़ा के बीच एक स्पष्ट अंतर बना रहता है। यही उसे सहनीय बनाता है।
यदि तुम्हें शरीर के किसी हिस्से के साथ अपनी पहचान बनानी ही है, तो उन हिस्सों को चुनो जहाँ तुम श्वास के माध्यम से एक सहज सुख का अनुभव कर सकते हो। उन्हीं पर ध्यान केंद्रित करो। यही तुम्हारा केंद्र बनेगा—एक स्थिर बिंदु, इस निरंतर बदलती हुई दुनिया के मध्य।