एक मेरे मित्र ने एक उपन्यास लिखा था जिसमें ताओ मत के स्वर्ग के देवता एक कहानी कहने की प्रतियोगिता कर रहे होते हैं। उपन्यास में दिखाया गया कि कैसे ये देवता अपनी-अपनी ओर से कहानियाँ बना रहे हैं — एक ओर पुरुष देवता हैं, दूसरी ओर स्त्री देवता, लेकिन दोनों ओर कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी ही पंक्ति से दगा कर रहे हैं। हर तरफ संघर्ष चल रहा है। और फिर दोनों पक्ष बारी-बारी से कहानी गढ़ते हैं।
कहानी में बहुत तरह-तरह के दुःख हैं — एक युवती को उसके माता-पिता के ऋण चुकाने के लिए दासी के रूप में बेच दिया जाता है; उसका स्वामी अच्छा होता है लेकिन जल्दी ही मर जाता है; उसका भाई अत्यंत दुष्ट होता है; फिर बाढ़ आती है, आग लगती है, आत्महत्याएँ होती हैं, अन्याय होता है — कह सकते हैं कि एक ज़बरदस्त कहानी बनती है, लेकिन जीवन के लिए बहुत दुखद। और फिर उपन्यास के अंत में अवलोकितेश्वर (गुआन यिन) प्रकट होती हैं और उन ताओ देवताओं से कहती हैं, “अब जब तुमने यह कहानी बना दी है, तो अब तुम्हें इसे जीना भी होगा।” उपन्यास का आख़िरी दृश्य यही होता है — सभी देवता, जो धरती को तुच्छ समझते थे, वहीं नीचे गिरते हैं।
यह अवलोकितेश्वर उस बोध को दर्शाती हैं जो बौद्धधम्म ने चीन को दिया — कर्म का सिद्धांत।
हम अपना जीवन स्वयं रच रहे हैं। और मन जब यूँ ही घूमता हुआ लगता है, तब भी वह व्यर्थ नहीं चल रहा होता — वह कुछ न कुछ उत्पन्न कर ही रहा होता है। कुछ अच्छे भाव, कुछ दुःखद — लेकिन निर्माण होता रहता है। यह बात ध्यान में हमेशा रखनी चाहिए, विशेषकर जब ध्यान करते हैं। हम यहाँ केवल निष्कलंक दर्शक बनने के लिए नहीं बैठे हैं — यह सोचकर कि जो हो रहा है, वह अपने आप हो रहा है। जो अनुभव हम कर रहे हैं, उसके लिए हम ही उत्तरदायी हैं — अपने पिछले कर्मों से और वर्तमान चित्त की गतिविधियों से।
एक ओर से देखने पर यह थोड़ा भारी लग सकता है, क्योंकि कोई भी यह नहीं चाहता कि सब जिम्मेदारी उसी पर हो। लेकिन दूसरी ओर, यह बहुत सामर्थ्य देने वाली बात है — अगर तुम्हें वर्तमान सुख या स्थिति पसंद नहीं, तो उसे बदलने का मार्ग हमेशा खुला है।
हम केवल अनुभव को उपभोग करने वाले नहीं हैं — हम निर्माता भी हैं। अभ्यास में यह दृष्टिकोण बनाए रखना जरूरी है। शील की साधना हमें याद दिलाती है कि हमारा बोलना और करना ही जीवन की दिशा तय करता है। समाधि की साधना सिखाती है कि हम वर्तमान क्षण से कैसे मिलते हैं, वही यह तय करता है कि क्षण कैसा होगा। साँस पर ध्यान देना, साँस को समायोजित करना, शरीर के भीतर हो रही संवेदनाओं के प्रति संवेदनशीलता विकसित करना — यह सब हम करते हैं। ये अनुभव के निर्माण के उपाय हैं, और हम इन्हें कुशल बनाते जाते हैं ताकि इसी क्षण में एक प्रकार का सुख और स्थिरता उत्पन्न हो सके।
जब शरीर में पीड़ा हो, जब जीवन में कठिनाइयाँ हों — तब भी तुम एक शांत केंद्र बिंदु बना सकते हो। तुम्हें बाहर से आने वाले प्रभावों का शिकार नहीं बनना पड़ता। तुम्हें मन के भीतर से उठती हुई व्याकुलताओं का भी गुलाम नहीं बनना पड़ता। इस क्षण में — यहीं — तुम्हारी एक भूमिका है: तुम परिस्थिति को गढ़ने वाले हो।
जैसे-जैसे तुम्हारा सति विकसित होता है, जैसे-जैसे तुम्हारी सम्पजंञा और एकाग्रता सुदृढ़ होती है — तुम्हारे पास वे साधन होते हैं जिनसे तुम अपने वर्तमान अनुभव को अधिक जीने योग्य बना सकते हो।
यही सिद्धांत प्रज्ञा को विकसित करने के प्रयास में भी लागू होता है। अक्सर यह कहा जाता है कि प्रज्ञा का अर्थ है यह देखना कि सभी चीजें अनिच्च हैं; और क्योंकि वे अनिच्च हैं, वे दुःखद हैं; और क्योंकि वे दुःखद हैं, वे अनत्ता हैं। लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि हम अनुभवों को भोगने की आदत में जीते हैं — विशेषकर पच्छिमी जीवनशैली में। हम कोई गाड़ी नहीं खरीदते — हम “गाड़ी चलाने का अनुभव” खरीदते हैं। हम योजेमिटी नहीं जाते — हम “योजेमिटी का अनुभव” लेने जाते हैं।
अब अगर हम बुद्ध के प्रज्ञा संबंधी उपदेशों को इस अनुभव-भोग की आदत में रखकर समझें, तो वे क्या कहते प्रतीत होते हैं? ऐसा लगता है मानो वे कह रहे हों — “जीवन छोटा है, अनुभव क्षणिक हैं, तो जितना आनंद उठा सकते हो, उठा लो।” और क्योंकि चीजें जल्दी बदल जाती हैं, तो जितना जल्दी हो सके उनका आनंद ले लो, फिर छोड़ दो — क्योंकि टूटने से पहले छोड़ देना बेहतर है। लेकिन चिंता की बात नहीं — और अनुभव आएँगे, फिर तुम उन्हें भोग सकते हो। इस दृष्टिकोण से लगता है कि ये उपदेश सिखा रहे हैं कि अनुभवों के कुशल भोगकर्ता कैसे बनें।
लेकिन जब हम उपदेशों को ऐसे सन्दर्भ से बाहर निकाल देते हैं, तो और भी भ्रम होते हैं। मन में विचार आने लगते हैं — “अगर सब कुछ अनिच्च है, तो फिर इतनी मेहनत से समाधि क्यों साधें? ये भी तो एक दिन नष्ट हो जाएगी। क्यों चित्त में अच्छे गुणों का विकास करें? वे भी तो अंत में व्यर्थ हो जाएँगे। क्यों न हम जो कुछ है उसे ही स्वीकार कर लें, और बस उसी में आनंद लेना सीख लें?”
पर यह दृष्टिकोण बुद्ध की वाणी का सही संदर्भ नहीं है।
जब बुद्ध ने प्रज्ञा सिखाई, तो उन्होंने इसे इन प्रश्नों से शुरू किया — “क्या कुशल है? क्या अकुशल है? ऐसा क्या किया जा सकता है जिससे दीर्घकालिक सुख प्राप्त हो?” प्रज्ञा की शुरुआत इन्हीं प्रश्नों से होती है। और जब हम अपनी आदतन उपभोग की वृत्तियों को देखते हैं, तो समझ आता है कि उनमें से बहुत सी वृत्तियाँ अकुशल हैं — वे केवल क्षणिक सुख देती हैं। और केवल भोग की प्रवृत्ति ही नहीं, बल्कि उन अनुभवों को प्राप्त करने के लिए जो प्रयास किए जाते हैं, वे भी अक्सर लोभ, क्रोध, राग और भय पर आधारित होते हैं।
इस चक्र से निकलने के लिए हमें उन कौशलों को विकसित करना होता है जो सुख को अधिक स्थिर, अधिक टिकाऊ और ऐसी स्थिति में लाते हैं जहाँ वह हमारे विरुद्ध न हो जाए। यही प्रज्ञा है जो शील और समाधि की साधना के पीछे कार्य करती है। ऐसे कर्मों से बचना होता है जो तात्कालिक तृप्ति तो देते हैं, लेकिन पीछे पछतावा और ग्लानि छोड़ जाते हैं। इसके स्थान पर चित्त में ऐसे गुणों का विकास करना होता है जो भीतर से ही संतोष और स्थिरता उत्पन्न करें — ऐसे सुख की नींव जो बाहरी परिस्थिति पर निर्भर न हो।
जब ये गुण विकसित हो जाते हैं, तब प्रज्ञा की प्रक्रिया और गहराई में जाती है। तब “अनिच्च” के सिद्धांत को लेकर यह प्रश्न आता है — “क्या ऐसा कुछ है जो अनिच्च न हो? क्या मुझे हमेशा ही निर्माण करते रहना है, अनुभव पैदा करते रहना है, सदा-सदा तक? क्या ऐसा कोई सुख है जिसे बार-बार रचने की ज़रूरत न हो?”
तब तुम जो सुख बना रहे हो, उसकी प्रकृति को और ध्यान से देखने लगते हो। फिर प्रश्न आता है — “जो इसका उपभोग कर रहा है, वह कौन है? उपभोगकर्ता क्या है? निर्माता क्या है?” तब यह भी दिखने लगता है कि उपभोगकर्ता भी उन्हीं खंधों से बना है जिन्हें तुमने ही रचा है। यह बोध इस पूरे चक्र को और भी व्यर्थ सा प्रतीत कराने लगता है। क्यों हम ऐसे चक्र में फँसे रहें जहाँ हम अनुभवों को बना रहे हों ताकि उन्हें भोगा जा सके?
इस बिंदु पर आकर, यहाँ तक कि दीर्घकालिक सुख भी पर्याप्त नहीं लगता। तुम्हारी संवेदनशीलता तीव्र हो जाती है। तुम अनुभव के निर्माण और भोग की प्रक्रिया को तीक्ष्ण बुद्धि से देख पाते हो। और जब अंततः यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सब आवश्यक नहीं है — तब छोड़ देना सहज हो जाता है।
अगर तुम केवल एक भोगकर्ता होते, तो अनिच्च चीज़ों का आनंद लेना शायद आसान होता — बस इतना ध्यान रखना पड़ता कि जब उन्हें अपनाओ, तो कसकर न पकड़ो, बस हल्के से अपनाओ, छोड़ने को भी तैयार रहो। लेकिन जब तुम स्रष्टा हो, जब तुम चीज़ों को रच रहे हो, तब एक समय ऐसा आता है जब थकावट महसूस होती है। मन कहता है — “बस, अब बहुत हुआ।” तब दिखता है कि जो परिश्रम तुम बार-बार अनुभव रचने में लगा रहे हो, वह वास्तव में किसी स्थायी सुख के बराबर नहीं है। यही वो बोध है जो वस्तुओं को छोड़ने की सामर्थ्य देता है, जो असंग होने की शक्ति देता है।
यहीं पर तीन लक्षणों की शिक्षा का सच्चा अर्थ सामने आता है। ठीक वैसे ही जैसे उस उपन्यास में देवता कहानियाँ रचते हैं और फिर उसी में उतरने को बाध्य होते हैं — वैसे ही हमें भी बहुत सावधानी से देखना पड़ता है कि हम क्या रच रहे हैं, क्योंकि अंततः हमें उसी में जीना पड़ेगा। बार-बार खुद से पूछना चाहिए — “क्या यह पर्याप्त है? क्या मैं जो रच रहा हूँ, उससे संतुष्ट हूँ?” क्योंकि यह निर्माण की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है कि बस छोड़ दो और मुक्त हो जाओ। अगर यह इतना आसान होता, तो हमें इतनी एकाग्रता और तपस्या के साथ ध्यान नहीं करना पड़ता।
यह कठिन है — और चाहे हमें वह अच्छा लगे या न लगे जो हम रच रहे हैं, हम उसे रचते ही रहते हैं। यही समस्या है।
तो जब तक निर्माण चल रहा है, तब तक यत्न करके ऐसा संसार बनाओ जिसमें तुम्हें स्वयं भी शांति मिले और जो दूसरों के लिए भी मंगलकारी हो। यह करते-करते चित्त में वे गुण विकसित होते हैं जिनसे तुम इस निरंतर चल रही निर्माण-प्रक्रिया को देख सको — यह मन का कारख़ाना जो क्षण-प्रतिक्षण अनुभवों को गढ़ता चला जा रहा है — उसे भीतर से समझ सको, और धीरे-धीरे उसकी गाँठ खोल सको।
शुरू में यह विचार थोड़ा भय पैदा कर सकता है — कि अगर ये सब निर्माण नहीं रहे, तो फिर क्या रहेगा? लेकिन बुद्ध ने आश्वासन दिया है — जब यह सारा बनावटी ताना-बाना छूटता है, तब जो सुख आता है, वह किसी भी गढ़े हुए सुख से कहीं अधिक गहरा होता है, कहीं अधिक शांत, कहीं अधिक पूर्ण।
यही वादा — और उस अजन्म, अकल्पित, असंस्कृत सुख की वास्तविकता — यही कारण है कि यह जो अभ्यास हम कर रहे हैं, यह केवल सार्थक ही नहीं, परम मूल्यवान है।