नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय एक

मान्यताओं पर सवाल


पुनर्जन्म हमेशा ही बौद्ध परंपरा में एक प्रमुख सिद्धान्त रहा है। पालि साहित्य के प्राचीन अभिलेखों (मज्झिमनिकाय २६; मज्झिमनिकाय ३६) से पता चलता है कि बुद्ध ने अपने संबोधि से पहले, बार-बार जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु की अनिश्चितताओं से मुक्त होने का मार्ग खोजा था। उन्होंने अपने शुरुआती गुरुओं का मार्ग इसलिए छोड़ा क्योंकि उन्होंने देखा कि उनकी शिक्षाएँ उन्हें सच्ची मुक्ति की ओर नहीं, बल्कि बस एक बेहतर पुनर्जन्म की ओर ले जा रही थीं।

बुद्ध के संबोधि की रात, उन्हें जो तीन प्रमुख ज्ञान प्राप्त हुए, उनमें से दो ‘पुनर्जन्म’ से ही जुड़े थे। पहले ज्ञान में उन्होंने अपने असंख्य पिछले जन्मों को देखा। दूसरे ज्ञान में, उन्होंने सभी दूसरे सत्वों के जन्म-मरण चक्र को समझा और जाना कि पुनर्जन्म ‘कर्मों’ के परिणामस्वरूप होता है।

जब अंततः उन्होंने संपूर्ण विमुक्ति प्राप्त की, तो उन्हें पता चला कि अब वे अपने लक्ष्य तक पहुँच चुके हैं — एक ऐसे आयाम को छू चुके हैं जो केवल जन्म-मरण से मुक्त नहीं, बल्कि पुनर्जन्म से भी परे है। निर्वाण प्राप्त करने के बाद, उनके मन में जो पहली अनुभूति स्वतः उत्पन्न हुई, वह पुनर्जन्म के बंधन से मिली अद्भुत मुक्ति और राहत की थी।

जब बुद्ध ने दूसरों को बोधि का मार्ग सिखाया, तो उन्होंने उसके चार चरणों को परिभाषित किया और बताया कि इन चरणों तक पहुँचने वालों के लिए कितने पुनर्जन्म शेष रहेंगे। पहला चरण, ‘श्रोतापतिफल’ प्राप्त करने वालों के लिए अधिकतम सात पुनर्जन्म, दूसरा चरण ‘सकृदागामीफल’ प्राप्त करने वालों के लिए मानव जन्म में एक अंतिम वापसी, तीसरे चरण ‘अनागामीफल’ पर पहुँचने वालों के लिए शुद्धवास ब्रह्मलोक में अंतिम जन्म के बाद पूर्ण मुक्ति, और चौथे चरण ‘अर्हतफल’ तक पहुँचने वालों के लिए ‘पुनर्जन्म’ पूरी तरह समाप्त (अंगुत्तरनिकाय ३:८७)।

कभी-कभी, जब कोई शिष्य बिना बोधि पाए मृत्यु को प्राप्त होता, तो बुद्ध उसके पुनर्जन्म पर टिप्पणी करते। उदाहरण के लिए, जब प्रसिद्ध गृहस्थ अनाथपिंडिक का निधन हुआ, तो वह बुद्ध को एक स्वर्गीय देवता के रूप में मिलने आए (मज्झिमनिकाय १४३)। लेकिन जब कोई संपूर्ण विमुक्त ‘अरहंत’ शिष्य मृत्यु को प्राप्त होता, तो बुद्ध बताते कि उनका चैतन्य [=consicousness, चेतना] अब इस संसार में कहीं भी नहीं पाई जा सकती। उन्होंने साफ कहा कि पुनर्जन्म उन्हीं का होता है जो आसक्ति में बंधे होते हैं, लेकिन उन लोगों का नहीं जो आसक्तियों को छोड़ चुके हैं (संयुत्तनिकाय ४४:९)। अपनी स्वयं की स्थिति के बारे में बुद्ध ने कहा कि उनकी महान उपलब्धियों में से एक यह है कि इस जीवन के अंत के बाद, दुनिया उन्हें फिर कभी नहीं देख पाएगी (दीघनिकाय १)।

बुद्ध जब दान और शील के लाभों जैसे सांसारिक विषयों पर चर्चा करते थे, तो वे इन गुणों से प्राप्त होने वाले लाभों को केवल इस जीवन तक सीमित नहीं रखते थे, बल्कि भविष्य के जन्मों में मिलने वाले फलों का भी उल्लेख करते थे। यहाँ तक कि जब उन्हें विशेष रूप से यह अनुरोध किया जाता कि वे केवल वर्तमान जीवन के संदर्भ में ही चर्चा करें, तब भी वे अपनी बात मृत्यु के बाद मिलने वाले परिणामों के उल्लेख के साथ समाप्त करते थे (अंगुत्तरनिकाय ५:३४; अंगुत्तरनिकाय ७:५४)।

इस प्रकार, ‘पुनर्जन्म’ का सिद्धांत बुद्ध की शिक्षाओं में गहराई से जुड़ा हुआ है। पुनर्जन्म से मुक्ति पाना शुरुआत से ही बौद्ध परंपरा का प्रमुख लक्ष्य रहा है। संपूर्ण आशिया महाद्वीप में बौद्ध धर्म की विभिन्न शाखाएँ विकसित हुई। और, चाहे वे एक-दूसरे के दृष्टिकोण से कितनी भी भिन्न क्यों न हों, ‘पुनर्जन्म’ की शिक्षा में हमेशा एकमत रही हैं। यहाँ तक कि जो पुनर्जन्म के भवचक्र को रोकने का लक्ष्य नहीं रखते थे, वे भी इसे एक सच्चाई के रूप में स्वीकार करते थे और अपने शिष्यों को पढ़ाते थे।

लेकिन जब बौद्ध धर्म पश्चिम में पहुँचा, तो उसे आधुनिक पश्चिमी संस्कृति में एक बड़ी बाधा का सामना करना पड़ा। बुद्ध की समस्त शिक्षाओं में से, ‘पुनर्जन्म’ का सिद्धांत ही पश्चिमी लोगों के लिए सबसे कठिन रहा है। इसका एक कारण यह है कि पश्चिमी संस्कृति के प्रमुख दर्शन — चाहे वे धार्मिक हों या भौतिकवादी — में पुनर्जन्म की कोई ठोस जगह नहीं है। प्लेटो ने इसे सिखाया जरूर था, लेकिन आधुनिक पश्चिम में अधिकांश लोगों ने इसे एक मिथ्या ही माना।

जो लोग पश्चिमी धर्मों की आस्था-आधारित मांगों से निराश या विमुख हुए हैं, उनके लिए पुनर्जन्म की शिक्षा एक अतिरिक्त बाधा बन जाती है। क्योंकि उनके लिए यह किसी ऐसी चीज़ की तरह लगती है जिसे केवल ‘आस्था’ के आधार पर स्वीकार करना पड़ेगा। ऐसे लोग एक ऐसे बौद्ध धर्म को अधिक पसंद करते हैं, जिसमें किसी प्रकार की आस्थागत अपेक्षा न हो। और, जो केवल इस जीवन में ध्यान और मनोवैज्ञानिक सुधारों के लाभ पर केंद्रित रहे।

इसीलिए, कई पश्चिमी लोग, जो बुद्ध की मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि और ध्यान साधनाओं से लाभान्वित हुए हैं, अपने आप से यह सवाल पूछते हैं—“क्या बुद्ध की शिक्षाओं से ‘पुनर्जन्म’ को हटाकर भी वही आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं?”

दूसरे शब्दों में, ‘क्या हम बुद्ध के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण [साइकोलोजी] को अपनाते हुए, उनके लोक-परलोक से जुड़ी मान्यताओं को छोड़कर भी उनकी शिक्षाओं के सार को पूरी तरह समझ सकते हैं?’

पश्चिम में पहले भी इस तरह के प्रयास किए गए हैं। १८वीं सदी के अंत और १९वीं सदी की शुरुआत में, कई यूरोपीय रोमांटिक विचारकों और अमेरिकी ट्रान्सेंडैंटलिस्टों ने बाइबल की लोक-परलोक मान्यता को अस्वीकार कर दिया था। क्योंकि उनके अनुसार वे एक ऐसे युग में जी रहे थे जहाँ “भूवैज्ञानिक गहरा समय और खगोलीय गहरे अन्तरिक्ष” के खोजों ने बाइबल के पारंपरिक दृष्टिकोण को चुनौती दी थी। फिर भी, उन्होंने बाइबल में निहित कई मनोवैज्ञानिक शिक्षाओं को मूल्यवान माना।

इसका समाधान उन्होंने बाइबल की शिक्षाओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने में खोजा। इस नए दृष्टिकोण के अनुसार, बाइबल की लोक-परलोक से जुड़ी मान्यताएँ उस समय की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का हिस्सा थीं। लेकिन जैसे-जैसे विज्ञान आगे बढ़ा, उन्होंने समझा कि इन पारंपरिक धारणाओं को पीछे छोड़ देना चाहिए, ताकि बाइबल की नैतिक और मनोवैज्ञानिक शिक्षाएँ आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिक बनी रह सकें।

इस बदलाव के चलते यहूदी-ईसाई परंपरा ने अपने पुराने परलोक संबंधी विश्वासों को त्याग दिया और ब्रह्मांड से जुड़े प्रश्नों को विज्ञान के दायरे में छोड़ दिया। इसके बजाय, उन्होंने अपने ध्यान को एक अधिक सार्थक और प्रभावी दिशा में केंद्रित किया— मानव मन और उसके विकास पर। यही परिवर्तन आगे चलकर उदार ईसाई धर्म और सुधारवादी यहूदी परंपरा के उदय की नींव बना।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या ‘बौद्ध धर्म’ के साथ भी यही किया जा सकता है? क्या पुनर्जन्म को बुद्ध की शिक्षा से हटाकर भी उनके मनोवैज्ञानिक और ध्यान-संबंधी लाभों को पाया जा सकता है?

इस दृष्टिकोण से प्रेरित होकर, कई आधुनिक बौद्ध शिक्षकों ने तर्क दिया कि पुनर्जन्म की शिक्षा को भी उसी तरह से माना जाना चाहिए। उनकी नजर में, पुनर्जन्म केवल बुद्ध के समय की एक सांस्कृतिक पूर्वधारणा ही थी। और क्योंकि यह अब हमारी सांस्कृतिक पूर्वधारणाओं और वैज्ञानिक मान्यताओं के साथ फिट नहीं बैठती है, इसे त्यागने का समय आ गया है, ताकि बौद्ध परंपरा आगे बढ़ सके।

अपने तर्क के समर्थन में, ये शिक्षक कहते हैं कि ‘बुद्धकालीन भारत में हर कोई पुनर्जन्म, कर्म और आत्मा की मान्यताओं पर विश्वास करता था। हर किसी को लगता था कि हमारे भीतर “कुछ” ऐसा है जो मौत के बाद भी जीवित रहता है। और हमारे कर्म तय करते हैं कि वह “कुछ” कहाँ पुनर्जन्म लेगा।’ इस प्रकार, वे शिक्षक तर्क देते हैं, बुद्ध, बस भीड़ के साथ चलते हुए, कर्म और पुनर्जन्म की शिक्षा दे रहे थे।

एक तर्क यह भी दिया जाता है कि “बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म की धारणा न केवल अप्रासंगिक है, बल्कि विरोधाभासी भी है।” जिन लोगों ने पालि सूत्रों को संकलित किया, उन्होंने पुनर्जन्म और कर्म के विचारों को उसमें जोड़ दिया, लेकिन यह नहीं देखा कि ये सिद्धांत धर्म की अन्य मूल शिक्षाओं—जैसे अनात्म और चार आर्यसत्य—से मेल नहीं खाते। अब जब हमने उन पुरानी धारणाओं को पीछे छोड़ दिया है और उनकी जगह आधुनिक मनोविज्ञान की अधिक विश्वसनीय, वैज्ञानिक समझ को अपना लिया है, तो पुनर्जन्म के विचार को भी त्यागा जा सकता है। इससे हमें बौद्ध परंपरा को इस रूप में नया आकार देने का अवसर मिलता है कि वह बुद्ध की मूल अंतर्दृष्टि और उनके धर्म के वास्तविक उद्देश्य—इसी जीवन में दुख का अंत—पर अधिक स्पष्ट रूप से केंद्रित हो सके।"

इस तर्क की विडंबना यह है कि जब इसे ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर परखा जाए, तो इसकी पूरी नींव ही उलटी नजर आती है। वास्तविक तथ्य यह हैं:

(१) बुद्ध के समय पुनर्जन्म की धारणा सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत नहीं थी। उस दौर में कई दर्शनों ने इसे स्वीकार किया था, तो कई ने पूरी तरह नकार दिया था। दोनों ही पक्षों ने अपने-अपने तर्कों को आत्मा से जुड़ी विभिन्न धारणाओं के आधार पर मजबूत करने की कोशिश की। यहां तक कि जो लोग पुनर्जन्म को मानते थे या नकारते थे, वे भी इस पर सहमत नहीं थे कि पुनर्जन्म की वास्तविक प्रकृति क्या है। उनके विचारों में भारी मतभेद था।

जो लोग पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे, वे भी इस बात पर बंटे हुए थे कि उसमें ‘कर्म’ की कोई भूमिका है या नहीं। कुछ का मानना था कि मृत्यु के बाद व्यक्ति के भविष्य को उसके कर्म प्रभावित करते हैं, जबकि अन्य इसे पूरी तरह नकारते थे और मानते थे कि कर्म का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

(२) इस प्रकार, जब बुद्ध ने पुनर्जन्म और कर्म के आपसी संबंध की शिक्षा दी, तो वे अपने समय के सबसे चर्चित और विवादास्पद विषयों में से एक को संबोधित कर रहे थे। वे हर विषय पर चर्चा नहीं करते थे, बल्कि केवल उन्हीं मुद्दों को उठाते थे जो दुख के अंत के लिए उपयोगी हो सकते थे। पुनर्जन्म का विषय भी उनके इसी मापदंड पर खरा उतरा, और इसलिए उन्होंने इसे ‘लोकीय सम्यकदृष्टि’ की अपनी व्याख्या का एक अभिन्न अंग बनाया। सम्यक दृष्टि का यह स्तर यह समझ प्रदान करता है कि मानव कर्म में इतनी शक्ति और परिणामशीलता है कि यह दुख का अंत कर सकता है।

(३) बुद्ध ने पुनर्जन्म को केवल सम्यक दृष्टि का ही नहीं, बल्कि चार आर्यसत्यों और आधारपूर्ण सह-उत्पत्ति [पटिच्च समुप्पाद] की अपनी व्याख्या का भी मूल तत्व बनाया। आधारपूर्ण सह-उत्पत्ति में कई फीडबैक लूप होते हैं — अर्थात् एक कारक उन्हीं कारणों को फिर से जन्म देता है जो उसे उत्पन्न करते हैं। इस तरह, यह एक आत्मनिर्भर प्रक्रिया बन जाती है, जो अनिश्चित काल तक चलती रह सकती है, जब तक कि इसे रोकने के लिए कोई सक्रिय प्रयास न किया जाए।

यही कारण है कि जन्म बार-बार पुनर्जन्म का रूप ले सकता है, जब तक कि इस चक्र को जारी रखने वाले फीडबैक लूप [=दुष्चक्र] को तोड़ा न जाए। इसके अलावा, आधारपूर्ण सह-उत्पत्ति अलग-अलग स्तरों पर काम करती है — मन में उत्पन्न होने वाली क्षणिक घटनाओं से लेकर, जीवन और ब्रह्मांड के विशाल समय-चक्रों तक। इससे यह पता चलता है कि सूक्ष्म मानसिक घटनाएँ वृहद पुनर्जन्म प्रक्रियाओं को जन्म दे सकती हैं, और इसके विपरीत भी हो सकता है। इसलिए, मन का प्रशिक्षण दुख के सभी रूपों का अंत कर सकता है, यहां तक कि पुनर्जन्म का भी।

अगर आप इस क्षण को ध्यानपूर्वक देखें, तो आधारपूर्ण सह-उत्पत्ति की प्रक्रियाएँ साफ़ दिखाई देंगी। लेकिन अगर आप यह नहीं समझते कि ये प्रक्रियाएँ एक-दूसरे को लगातार बनाए रखती हैं और पुनः उत्पन्न करती हैं, तो आप उनकी पूरी गहराई तक नहीं पहुँच सकते। और जब तक आप इन्हें पूरी तरह नहीं समझते, तब तक आप उनसे पूरी तरह मुक्त भी नहीं हो सकते।

(४) बुद्ध ने पुनर्जन्म की व्याख्या अपने समय की अन्य परंपराओं से अलग तरीके से की। उन्होंने इसे किसी स्थायी आत्मा या निरंतर पहचान की धारणा पर आधारित नहीं किया। यानी यह परिभाषित करने की कोशिश नहीं की कि “आख़िर पुनर्जन्म लेने वाला कौन है?” इसके बजाय, उन्होंने इसे आधारपूर्ण सह-उत्पत्ति की प्रक्रिया से जोड़ा, जो हमारे प्रत्यक्ष अनुभव में घटित होती है और जिसे हम इसी जीवन में देख सकते हैं।

बुद्ध का दृष्टिकोण यह था कि हमें केवल उन्हीं घटनाओं पर ध्यान देना चाहिए, जिन्हें प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया जा सकता है, न कि उनके पीछे किसी अदृश्य “वास्तविकता” को लेकर अटकलें लगानी चाहिए। यह दृष्टिकोण व्यावहारिक था, क्योंकि जब हम अपनी मानसिक और शारीरिक प्रक्रियाओं को ध्यानपूर्वक और समझदारी से देखते हैं, तो हम उन्हें सही दिशा में मोड़ सकते हैं। इस तरह, हम उन मानसिक प्रवृत्तियों से मुक्त हो सकते हैं, जो दुख लाती हैं, और उन्हें उस मार्ग की ओर मोड़ सकते हैं, जो परमसुख ‘निर्वाण’ तक ले जाता है।

इस दृष्टिकोण से, बुद्ध की पद्धति पारंपरिक आस्था-आधारित धर्मों से भिन्न थी और आधुनिक अनुभववादी [phenomenological] दृष्टिकोण के अधिक निकट थी, जो किसी अतिरिक्त मान्यता पर निर्भर रहने के बजाय, प्रत्यक्ष अनुभव को समझने और बदलने पर केंद्रित होती है।

(५) बुद्ध ने अपने समय के लोगों को सलाह दी थी कि यदि वे मुक्ति चाहते हैं, तो उन्हें आत्मा से जुड़ी धारणाओं को छोड़ देना चाहिए। यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। अगर हम बुद्ध की शिक्षाओं का पूरा लाभ उठाना चाहते हैं, तो हमें यह समझना होगा कि हमारे मन में भी “मैं कौन हूँ?” और “यह संसार क्या है?” जैसी धारणाएँ बनी हुई हैं। जब तक हम इन धारणाओं को अलग नहीं रखते, तब तक हम अपने प्रत्यक्ष अनुभव को आधारपूर्ण सह-उत्पत्ति के दृष्टिकोण से पूरी गहराई से नहीं समझ पाएंगे, और न ही उससे मुक्त हो पाएंगे।

अपने अनुभव को आधारपूर्ण सह-उत्पत्ति के दृष्टिकोण से देखने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है यह समझना कि कौन-सी मानसिक प्रक्रियाएँ और कर्म हमें पुनर्जन्म और अन्य दुखों की ओर ले जाते हैं। साथ ही, यह भी जानना कि कौन-सा सही ज्ञान इन दुखों का अंत कर सकता है। जब हम इस समझ को विकसित करते हैं, तब हम सच में बुद्ध की शिक्षाओं को अपनाकर मुक्त होने के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं।

धर्म-साधना का एक अंश यह भी है कि हम स्वयं अनुभव करके देखें कि बुद्ध ने जो कर्म और पुनर्जन्म के बीच संबंध बताया था, वह सत्य और कालातीत है। कर्म और पुनर्जन्म की ये शिक्षाएँ चार आर्यसत्यों का अभिन्न अंग हैं, विशेष रूप से दुख के अंत तक जाने वाले मार्ग का। यदि इन शिक्षाओं को नकार दिया जाए, तो बौद्ध धर्म अपनी वास्तविक दिशा खो देगा और उसकी प्रगति रुक जाएगी।

यह संभव है कि पुनर्जन्म की धारणा को स्वीकार किए बिना भी बुद्ध की शिक्षाओं से कुछ हद तक लाभ उठाया जा सके। लेकिन यदि हम उनका “पूरा” लाभ उठाना चाहते हैं, तो हमें उनके पुनर्जन्म से जुड़े विचारों को खुले मन से समझने का प्रयास करना चाहिए। पुनर्जन्म की शिक्षा दुख के अंत तक जाने वाले मार्ग की एक आवश्यक आधारशील परिकल्पना है। लेकिन इस विषय पर कई तरह की गलतफहमियाँ फैली हुई हैं। इसलिए, यह ज़रूरी है कि हम बुद्ध की वास्तविक शिक्षाओं और उनके संदर्भ को सही रूप में समझें।

बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद, कई बौद्ध विचारकों ने पुनर्जन्म की धारणा को छोड़कर “आखिर जन्म किसका होता है?” जैसे दार्शनिक तर्क-वितर्कों में उलझना शुरू कर दिया। लेकिन यदि हमें बुद्ध की वास्तविक दृष्टि को सही तरह से समझना है, तो हमें उनकी मूल शिक्षाओं पर ध्यान देना होगा, जो प्रारंभिक पालि सुत्तों में सुरक्षित हैं।


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