एक प्राचीन विवाद
यह समझना कठिन है कि आज के विद्वान बार-बार यही क्यों दोहराते हैं कि ‘बुद्ध के समय में हर कोई पुनर्जन्म में विश्वास करता था।’ वास्तव में, पालि सुत्तों में इसके विपरीत स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। और ये प्रमाण पिछले सौ वर्षों से भी अधिक समय से पश्चिमी भाषाओं में उपलब्ध हैं।
बुद्ध ने अक्सर दो अतिवादी सोच का उल्लेख किया, जो मार्ग में बाधा डालते हैं — शाश्वतवाद और उच्छेदवाद। “उच्छेदवाद” शब्द उन लोगों को संदर्भित करता था जो पुनर्जन्म को पूरी तरह नकारते थे। यह शब्द बुद्ध ने स्वयं नहीं गढ़ा था। मज्झिमनिकाय २२ में बताया गया है कि दूसरे धर्मगुरु कभी-कभी बुद्ध पर भी उच्छेदवादी होने का आरोप लगाते थे।
प्राचीन पालि सूत्रों के अन्य अंशों में उच्छेदवाद की शिक्षाओं को अधिक स्पष्टता से दर्शाया गया है। विशेष रूप से, दो व्यक्तियों का उल्लेख किया गया है, जो अपने उच्छेदवादी विचारों के लिए प्रसिद्ध थे। इनमें से एक थे अजित केसकम्बलिन, जो भोगवादी संप्रदाय के प्रमुख थे। दीघनिकाय २ में उनकी सोच बतायी गयी है:
“दान [का फ़ल] नहीं है। यज्ञ [=चढ़ावा] नहीं है। आहुति [=बलिदान] नहीं है। सुकृत्य या दुष्कृत्य कर्मों का फ़ल-परिणाम नहीं हैं। लोक नहीं है। परलोक नहीं है। न माता है, न पिता है, न स्वयं से प्रकट होते [“ओपपातिक”] सत्व हैं। न ही दुनिया में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हैं जो सम्यक-साधना कर सम्यक-प्रगति करते हुए विशिष्ट-ज्ञान का साक्षात्कार कर लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं।
चार महाभूतों से बना मानव जब मरता है तो पृथ्वी लौटकर पृथ्वीधातु में विलीन हो जाती है, जल लौटकर जलधातु में विलीन हो जाती है, अग्नि लौटकर अग्निधातु में विलीन हो जाती है, वायु लौटकर वायुधातु में विलीन हो जाती है, और इन्द्रियाँ आकाश में बिखर जाती हैं। लाश को चार पुरुष अरथी पर लिटाकर ले जाते हैं, और केवल श्मशानघाट तक ही उसकी बातें करते हैं। हड्डियाँ कबूतर के रंग की हो जाती हैं। और सारी दक्षिणा भस्म हो जाती है। दान की प्रेरणा मूर्ख देते हैं। मरणोपरान्त अस्तित्व की बातें झूठी हैं, खोखली बकवास हैं। मरणोपरान्त काया छूटने पर पंडित और मूर्ख दोनों का ही उच्छेद [=विलोप] होता है, विनाश होता है। मरणोपरान्त अस्तित्व नहीं होता है।”
— दीघनिकाय २ : सामञ्ञफलसुत्तं
एक और प्रसिद्ध उच्छेदवादी पायासि राजन्य था, जिसका दृष्टिकोण अजित केसकम्बलिन के समान ही भोगवादी था। दीघनिकाय २३ के अनुसार, पायासि ने पुनर्जन्म और आत्मा के अस्तित्व को नकारने के लिए भीषण, अर्ध-वैज्ञानिक प्रयोग किए। उसने अपराधियों को सजा देने के बहाने यह जांचने की कोशिश की कि क्या मृत्यु के बाद किसी व्यक्ति का कोई तत्व जीवित रहता है।
पायासि ने आयुष्मान कुमार कश्यप भिक्षु को इन प्रयोगों का बारे में बताया। इनमें से दो प्रयोग ये थे:
“जब ऐसा होता हैं, श्रीमान कश्यप, कि मेरे पुरुष किसी चोर या अपराधी को पकड़कर मेरे सामने पेश करते हैं, [कहते हुए,] “स्वामी, यह अपराधी चोर है। जैसी आपकी इच्छा हो, उसे वैसा दंड दें।”
तब मैं कहता हूँ, “ठीक है, श्रीमानों। इस पुरुष को जिंदा ही एक बड़े हंडे में डाल, गीले चमड़े से मुँह बंद कर, गीली मिट्टी का गाढ़ा लेप लगाकर चूल्हे पर रखकर आग लगा दो।”
“ठीक है।” उत्तर देते हुए, वे उस पुरुष को जिंदा ही एक बड़े हंडे में डाल, गीले चमड़े से मुँह बंद कर, गीली मिट्टी का गाढ़ा लेप लगाकर चूल्हे पर रखकर आग लगा देते हैं। जब मुझे लगता है कि ‘पुरुष मर गया होगा’, तब हंडे को उतार कर धीरे से मुँह खोलकर देखता हूँ कि ‘काश उसके जीव को निकलते हुए देखूँ।’ किन्तु मैंने कभी किसी जीव को निकलते हुए नहीं देखा।…’”
[… एक अन्य प्रयोग में] मैं कहता हूँ, “ठीक है, श्रीमानों। इस पुरुष को जिंदा रख तराजू पर तौल दो। फिर उसे रस्सी से गला घोटकर मार दो, और फिर तराजू पर तौल दो।
“ठीक है” उत्तर देते हुए वे उस पुरुष को जिंदा रख तराजू पर तौलते हैं। फिर उसे रस्सी से गला घोटकर मारने पर फिर तराजू पर तौलते हैं। जब तक जीवित रहे, तब तक वे तुलना में अधिक हल्के होते हैं, मृदु होते हैं, लचीले होते हैं। किन्तु, मरने पर वे तुलना में अधिक भारी, कठोर और सख्त हो जाते हैं।
इस तर्क के आधार पर, श्रीमान कश्यप, मैं कहता हूँ कि ‘परलोक नहीं होता है, स्वयं से प्रकट हुए सत्व नहीं होते हैं, भले और बुरे कर्मों के फल-परिणाम नहीं होते हैं।’”
— दीघनिकाय २३ : पायासिसुत्तं
दीघनिकाय १ उस समय के उच्छेदवादी विचारों की एक व्यापक झलक देता है और उन्हें इस आधार पर अलग-अलग समूहों में रखता है कि वे मृत्यु के बाद आत्मा के बारे में क्या सोचते थे। कुल मिलाकर सात तरह के विचार थे। इनमें से तीन में आत्मा को एक शरीर के रूप में माना गया। वह शरीर या तो चार महाभूत [भौतिक तत्व] से बना साधारण शरीर होता है, या एक दिव्य शरीर होता है, या फिर एक सूक्ष्म शरीर होता है। अजित केशकंबलिन और राजन्य पायासि का विचार पहले प्रकार के अंतर्गत आता था।
बाकी चार विचारों में आत्मा को निराकार माना गया। कुछ ने इसे ‘अनंत आकाश’ समझा, कुछ ने ‘अनंत चैतन्य’, कुछ ने इसे ‘शून्यता’ कहा, और कुछ ने इसे एक ऐसी अवस्था माना जिसमें ‘न तो बोध होता है और न ही अ-बोध’। इन सातों विचारों में एक बात समान थी – मृत्यु के बाद आत्मा पूरी तरह समाप्त हो जाती है।
जहाँ तक पुनर्जन्म को मानने वाली गैर-बौद्ध परंपराओं की बात है, पालि साहित्य में कम से कम चार का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इनमें ब्राह्मण, जैन, और दो अन्य विचारधाराएँ थीं – एक मक्खलि गोषाल के नेतृत्व में और दूसरी पकुध कच्चायन के। अन्य स्रोतों से पता चलता है कि जैन और कुछ ब्राह्मण मानते थे कि ‘कर्म’ पुनर्जन्म को अवश्य प्रभावित करता है। लेकिन पालि ग्रंथों के अनुसार, मक्खलि गोषाल और पकुध कच्चायन इसे नहीं मानते थे।
[मक्खलि गोषाल:] “भले ही किसी को लगे, ‘मैं शील से, व्रत से, तप से, या ब्रह्मचर्य से अपरिपक्व कर्मों को पका दूँगा और पके कर्मों को भोगकर मिटा दूँगा’ — ऐसा असंभव है। सुख और दुःख गिने हुए हैं। जन्म-जन्मांतरण में संसरण करने की सीमा तय है, जिसे छोटा या लंबा नहीं किया जा सकता, तेज या धीमा नहीं किया सकता है। जैसे सूत की गेंद को उछालने पर खुलते हुए अन्त होती है, उसी तरह मूर्ख और पण्डित दोनों ही संसरण करते हुए दुःखों का अन्त करेंगे।”
— दीघनिकाय २ : सामञ्ञफलसुत्तं
[पकुध कच्चायन]: “सात तरह की काया [=समूह] अरचित होती हैं, अकारण ही अरचित होती हैं, अनिर्मित होती हैं, बिना निर्माता के होती हैं, निष्फल होती हैं, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर होती हैं, स्तंभ की तरह अचल होती हैं, जो बदलती नहीं, परिवर्तित नहीं होती, एक-दूसरे पर असर नहीं डालती, और एक-दूसरे को सुख देने में, दुःख देने में, या सुख-दुःख दोनों ही देने में असक्षम होती हैं। कौन-सी सात?
पृथ्वी-काया, जल-काया, अग्नि-काया, वायु-काया, सुख, दुःख, और जीव। यही सात तरह की काया अ-रचित होती हैं, अकारण ही अरचित होती हैं, अनिर्मित होती हैं, बिना निर्माता के होती हैं, निष्फल होती हैं, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर होती हैं, स्तंभ की तरह अचल होती हैं, जो बदलती नहीं, परिवर्तित नहीं होती, एक-दूसरे पर असर नहीं डालती, और एक-दूसरे को सुख देने में, दुःख देने में, या सुख-दुःख दोनों ही देने में असक्षम होती हैं।”
— दीघनिकाय २ : सामञ्ञफलसुत्तं
दीघनिकाय १ पुनर्जन्म से जुड़े विभिन्न विचारों का एक विस्तृत अवलोकन प्रस्तुत करता है और इन्हें दो मुख्य समूहों में विभाजित करता है: शाश्वतवाद और आंशिक शाश्वतवाद।
शाश्वतवादी, जैसे पकुध कच्चायन, मानते थे कि पुनर्जन्म के बावजूद आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता। इसके विपरीत, आंशिक शाश्वतवादी यह मानते थे कि कुछ आत्माएँ ब्रह्मांड में अपनी स्थिति बदलती हैं। इसलिए वे विभिन्न जन्मों में सुख-दुख का अनुभव करती हैं। जबकि कुछ आत्माएँ कभी अपनी स्थिति नहीं बदलतीं।
पालि ग्रंथों में इन पुनर्जन्म सिद्धांतों की गहराई से चर्चा नहीं की गई है। लेकिन अन्य समकालीन स्रोतों से पता चलता है कि जैन और ब्राह्मणों ने पुनर्जन्म करने वाली आत्मा को स्पष्ट करने का प्रयास किया। संभवतः, मक्खलि गोषाल और पकुध कच्चायन ने भी ऐसा ही किया होगा, क्योंकि उनके सिद्धांतों में पुनर्जन्म के लिए आत्मा या किसी स्थायी तत्व की आवश्यकता थी।
ब्राह्मणी उपनिषदों में आत्मा की प्रकृति पर सबसे विस्तृत चर्चा मिलती है। इनमें पुनर्जन्म के कई सिद्धांत विकसित किए गए, जैसे:
उपनिषदों में मृत्यु के बाद आत्मा की यात्रा के कई विवरण भी मिलते हैं। इनमें सबसे रोचक विवरण Chāndogya Upअंगुत्तरनिकायiṣad V.३-१0 में पाया जाता है, जो जीवों को तीन वर्गों में विभाजित करता है:
१. सर्वोच्च वर्ग – मृत्यु के बाद ब्रह्म से एकाकार हो जाते हैं।
२. मध्यवर्ती वर्ग – चंद्रलोक तक जाते हैं, वहाँ भोजन प्राप्त करते हैं, फिर बारिश के रूप में धरती पर लौटते हैं। वे पौधे बनते हैं और फिर उन प्राणियों के रूप में जन्म लेते हैं जो पौधों को खाते हैं।
इन विवरणों से स्पष्ट होता है कि पुनर्जन्म को लेकर विभिन्न विचारधाराएँ प्रचलित थीं, जिनमें आत्मा की स्थायित्व, परिवर्तनशीलता और गति को लेकर विभिन्न दृष्टिकोण थे।
इससे साफ जाहिर होता है कि जब पुनर्जन्म की बात आती थी, तो इस पर विचार करने वाले दोनों पक्षों को दो अहम सवालों पर अपना मत रखना पड़ता था।
पहला सवाल था – व्यक्ति का स्वभाव क्या है और मृत्यु के समय वह नष्ट होता है या नहीं। दूसरे शब्दों में, यह तय करना जरूरी था कि किसी व्यक्ति की पहचान किस आधार पर टिकी है और मृत्यु के बाद उसका क्या होता है।
दूसरा सवाल था – क्या कर्म (व्यवहार और क्रियाएँ) पुनर्जन्म को प्रभावित करता है या नहीं। यह सवाल सिर्फ पुनर्जन्म को मानने वालों के बीच विवाद का विषय था। कुछ परंपराएँ मानती थीं कि अच्छे-बुरे कर्मों का असर अगले जन्म पर पड़ता है, जबकि कुछ का मानना था कि पुनर्जन्म एक स्वतः घटित होने वाली प्रक्रिया है, जिसमें कर्म की कोई भूमिका नहीं होती।
इन विभिन्न विचारों को देखते हुए यह साफ है कि पुनर्जन्म भारतीय संस्कृति में सिर्फ कोई आम धारणा नहीं थी, बल्कि यह बुद्ध के समय के सबसे बड़े बहस के मुद्दों में से एक थी।
और यह बहस केवल दार्शनिकों तक सीमित नहीं थी। अपने एक प्रसिद्ध प्रवचन में, बुद्ध ने कालाम लोगों—जो संशय से घिरे थे—से कहा कि अगर कोई अनैतिक कार्यों से बचे और अपने मन को दुर्भावना से मुक्त करे, तो उसे जीवन में चार तरह का आत्मविश्वास (आश्वासन) मिलता है।
अंगुत्तरनिकायguttar ३.६६
अगर प्राचीन भारत में पुनर्जन्म और कर्म का संबंध सभी के लिए एक स्वीकृत सत्य होता, तो बुद्ध को कालाम ग्रामीणों को ये आश्वासन देने की जरूरत ही नहीं पड़ती। इसका मतलब यह है कि हम बुद्ध की पुनर्जन्म और कर्म संबंधी शिक्षाओं को उनकी संस्कृति की कोई पुरानी, अविकसित परंपरा मानकर नजरअंदाज नहीं कर सकते।
जब बुद्ध ने पुनर्जन्म की शिक्षा दी, तो वे जानबूझकर एक ऐसे विषय को स्पष्ट कर रहे थे जिस पर उस समय गहरी बहस हो रही थी। उनकी संस्कृति में यह अपेक्षा की जाती थी कि वे यह साफ-साफ बताएँ कि पुनर्जन्म होता है या नहीं, और यदि होता है तो कैसे और क्यों।
यह दृष्टिकोण पूरी तरह भोगवादी था, जो पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत को पूरी तरह नकारता था।