नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

परिचय

जब भी आप किसी एक रास्ते को चुनते हैं और दूसरे को छोड़ते हैं, तो असल में आप एक दांव खेल रहे होते हैं — ‘क्या यह फैसला सच में बेहतर साबित होगा?’

कई बार हमारे सामने दो विकल्प होते हैं — एक आसान, जो तुरंत खुशी देता है; और दूसरा कठिन, जो दूरगामी लाभ तो देता है, लेकिन धैर्य और मेहनत मांगता है।

अब सवाल उठता है — ‘क्या आसान रास्ता बाद में पछतावा देगा?’ या ‘क्या मुश्किल रास्ता सच में इतनी मेहनत के लायक [=लाभदायक] भी है?’ चूंकि भविष्य अनिश्चित है, इसका ठोस जवाब आप के पास नहीं होता।

सबसे पहले, हमें अपने और अपने परिवार के भविष्य के बारे में सोचना पड़ता है। ‘क्या हम इतना लंबा जीएंगे कि अपने फैसलों का पूरा असर देख सकें? क्या कोई अचानक आई मुसीबत हमारे सारे प्रयासों पर पानी फेर देगी?’

इसके बाद, जिंदगी के बड़े सवाल आते हैं — ‘क्या सच में हमारे पास अपने फैसले खुद लेने की आज़ादी भी है, या सब पहले से ही तय है — हमारे पिछले कर्मों या किसी अदृश्य शक्ति की वजह से?’ ‘अगर हमें सच में अपने कर्मों को चुनने की शक्ति मिली है, तो क्या कठिन रास्ते की मेहनत उचित है?’ ‘क्या उसने कोई फर्क भी पड़ता है?’ और, ‘अगर हमारे फैसलों से फर्क पड़ता हैं, तो क्या हमें सिर्फ इसी जीवन के बारे में सोचना चाहिए या उसके बाद के [परलोक के] बारे में भी?’

तर्क और विवेक कभी भी इन सवालों का निर्णायक हल नहीं निकाल पाए। दुनिया के बड़े धर्म इन मुद्दों पर एकमत नहीं हैं, और विज्ञान के पास भी इनका जवाब देने का कोई तरीका नहीं है। फिर भी, हम इन सवालों से मुँह नहीं मोड़ सकते। हम इन्हें बस “मुझे नहीं पता” कहकर टाल नहीं सकते, क्योंकि ऐसा करने का मतलब होगा मान लेना कि ये बातें मायने नहीं रखतीं।

लेकिन भगवान बुद्ध ने बताया कि ये सवाल बहुत मायने रखते हैं। उन्होंने बताया कि संबोधि—जो समय और स्थान की सीमाओं से परे होती है—हमें यह समझने का दृष्टिकोण देती है कि हमारे कर्मों से कैसे फर्क पड़ता है। तब हमें दिखता है कि हमें वास्तव में कर्म चुनने की आज़ादी है, जिनके अलग-अलग परिणाम आते हैं, और वे सिर्फ इस जीवन को नहीं, बल्कि भविष्य के कई जन्मों को भी आकार देते हैं। ऐसा तब तक चलता है, जब तक चित्त में वह तृष्णा बनी रहती है, जो पुनर्जन्म की ओर ले जाती है।

संबोधि प्राप्त करने से पहले, हम इन चीजों को पूरी तरह नहीं जान सकते। लेकिन बुद्ध कहते हैं कि अगर आप बोधि पाना चाहते हैं और इस बीच दुःखों को कम करना चाहते हैं, तो सबसे समझदारी इसी में है कि पुनर्जन्म के सिद्धांत को एक उपयोगी मान्यता के रूप में अपनाया जाए।

निस्संदेह, यह बुद्ध के शब्दों पर विश्वास करने की ही बात है। और जब तक आप स्वयं बोधि पा नहीं लेते, तब तक यह एक प्रकार का दांव ही है। लेकिन चूँकि हम हर पल अपने कर्मों से किसी न किसी दांव में लगे ही रहते हैं, इस छोटी सी पुस्तक का उद्देश्य यह दिखाना है कि समझदारी इसी में है कि हम अपना दांव भगवान बुद्ध पर लगाएँ।


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