भगवान कहते हैं —
“आहार-प्रतिकूल नज़रिए की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी, महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।
कैसे साधक आहार-प्रतिकूल नज़रिए की साधना करता है?
चार आहार होते हैं — अस्तित्व पाए सत्वों को पालने के लिए, अथवा जन्म ढूँढते सत्वों को आधार देने के लिए। कौन-से चार?
भौतिक-आहार के प्रति कैसा भाव होना चाहिए?
कल्पना करो कि पति-पत्नी की एक जोड़ी, कुछ भोजन बाँधकर, रेगिस्तान से गुज़र रही हो। साथ ही, उनका इकलौता पुत्र भी हो — नवजात, प्रिय, और आकर्षक। तब उनका भोजन समाप्त हो जाता है, किंतु रेगिस्तान का एक हिस्सा पार करना रह जाता है।
तब उन्हें लगता है — ‘हमारा भोजन समाप्त हो गया! किंतु रेगिस्तान का एक हिस्सा पार करना रह गया। क्या होगा यदि हम अपने इकलौते पुत्र को मार दें, और उसका माँस सुखाकर खाए? हो सकता है कि हम पति-पत्नी, पुत्र के माँस को खाकर, रेगिस्तान के बचे हिस्से से जीवित निकल सकते हैं। वरना, हम तीनों ही नहीं बचेंगे!’
तब वे अपने इकलौते पुत्र — नवजात, प्रिय, और आकर्षक — को मार देते हैं, और उसका माँस सुखाकर खाते हैं।
वे पुत्र के माँस चबाते हुए छाती पीटते हैं — “ओह! हमारे पुत्र, तुम कहाँ चले गए? ओह! हमारे इकलौते पुत्र, तुम कहाँ चले गए?”
तो, तुम्हें क्या लगता है? क्या वह पति-पत्नी की जोड़ी उस भोजन को — मज़े के लिए खाएगी, या मदहोशी के लिए खाएगी, या सुडौलता पाने के लिए खाएगी, या सौंदर्य वृद्धि के लिए खायेगी?”
“नहीं, भन्ते।”
“क्या उस भोजन को वे केवल “रेगिस्तान से जीवित बच निकलने के लिए” ही नहीं खायेंगे?”
“हाँ, भन्ते।”
“उसी तरह का भाव, मैं कहता हूँ, भौतिक आहार के लिए भी होना चाहिए!
जैसे, कोई रंग हो — लाख, हल्दी, नील, या लालिमा — और, कोई चित्रकार किसी फ़लक, दीवार, या कपड़े पर किसी स्त्री या पुरुष के चित्र को रंगता है — सभी अंग-प्रत्यंगों के साथ।
उसी तरह, जहाँ भौतिक आहार के लिए दिलचस्पी (“राग”), मज़ा (“नन्दी”), या तृष्णा हो —
किंतु, कल्पना करो कि जैसे किसी छत वाले निवास या कक्ष के उत्तर, दक्षिण या पूर्व दिशा में, कोई खिड़की हो। जब सूरज उगता है, और सूर्य की किरण खिड़की से होकर कक्ष के भीतर प्रवेश करती है, तब वह कहाँ पड़ेगी?”
“पश्चिमी दीवार पर, भन्ते!”
“किन्तु, यदि पश्चिमी दीवार न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?”
“जमीन पर, भन्ते!”
“किन्तु, यदि जमीन भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?”
“जल पर, भन्ते!”
“किन्तु, यदि जल भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?”
“तब, कही नहीं पड़ेगी, भन्ते!"
“उसी तरह, यदि भौतिक आहार के लिए न दिलचस्पी हो, न मज़ा लेना हो, न तृष्णा हो —
और, जब भौतिक आहार का मूलस्वरूप पता चलता है, तब पाँच कामगुण के प्रति दिलचस्पी भी पता चलती है। जब पाँच कामगुण के प्रति दिलचस्पी पता चले, तब कोई बंधन ही नहीं बचता, जिसके कारण साधक दुबारा इस [काम] लोक में लौट आए। [=अनागामीफ़ल]
जब कोई आहार प्रतिकूल नज़रिए में लीन रहे, तब स्वाद के प्रति तृष्णा से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि वह तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।
जैसे, मुर्ग़े का पँख या स्नायु के टुकड़े को आग में डाल दिया जाए, तो वह दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता। उसी तरह, जब कोई आहार प्रतिकूल नज़रिए में लीन रहे, तब स्वाद के प्रति तृष्णा से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि वह तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।
किंतु, यदि कोई आहार प्रतिकूल नज़रिए में लीन रहने पर भी, स्वाद के प्रति तृष्णा से आकर्षित हो, या उसमें घिन-भाव उपस्थित न हो — तब उसे समझ लेना चाहिए कि ‘मैं आहार प्रतिकूल नज़रिए को सही तरह से विकसित नहीं कर पाया हूँ। क्योंकि मुझ में क्रमानुसार बदलाव नहीं आया। मैंने इस साधना का फ़ल नहीं पाया!’
इस तरह, वह सचेत हो जाए।
और, यदि कोई आहार प्रतिकूल नज़रिए में लीन रहे, और स्वाद के प्रति तृष्णा से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है — तब उसे समझ लेना चाहिए कि ‘मैंने आहार प्रतिकूल नज़रिए को विकसित कर लिया। क्योंकि मुझमें क्रमानुसार बदलाव आ गया। मैंने इस साधना का फ़ल पा लिया!’
इस तरह, वह सचेत हो जाए।
आहार प्रतिकूल नज़रिए की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी, महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है!”
— संयुत्तनिकाय १२:६३ + १२:६४ + अंगुत्तरनिकाय ७:४६
अन्य तीन आहार के बारे में भी — [expand] “और, संपर्क-आहार के प्रति कैसा भाव होना चाहिए? कल्पना करो कि एक गाय हो — जिसकी चमड़ी उधेड़ी गयी हो — ऐसी गाय — जिसकी चमड़ी उधेड़ी गयी हो — जहाँ-जहाँ खड़ी होती है, वहाँ-वहाँ के जीव-जंतु [उसके माँस को] चबाने के लिए टूट पड़ते हैं। उसी तरह का भाव, मैं कहता हूँ, [इंद्रिय] संपर्क-आहार के प्रति होना चाहिए! जैसे, कोई रंग हो — लाख, हल्दी, नील, या लालिमा — और, कोई चित्रकार किसी फ़लक, दीवार, या कपड़े पर किसी स्त्री या पुरुष के चित्र को रंगता है — सभी अंग-प्रत्यंगों के साथ। उसी तरह, जहाँ संपर्क आहार के लिए दिलचस्पी, मज़ा, या तृष्णा हो — किंतु, कल्पना करो कि जैसे किसी छत वाले निवास या कक्ष के उत्तर, दक्षिण या पूर्व दिशा में, कोई खिड़की हो। जब सूरज उगता है, और सूर्य की किरण खिड़की से होकर कक्ष के भीतर प्रवेश करती है, तब वह कहाँ पड़ेगी?” “पश्चिमी दीवार पर, भन्ते!” “किन्तु, यदि पश्चिमी दीवार न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?” “जमीन पर, भन्ते!” “किन्तु, यदि जमीन भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?” “जल पर, भन्ते!” “किन्तु, यदि जल भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?” “तब, कही नहीं पड़ेगी, भन्ते!" “उसी तरह, यदि संपर्क आहार के लिए न दिलचस्पी हो, न मज़ा लेना हो, न तृष्णा हो — जब संपर्क आहार का मूलस्वरूप पता चलता है, तब तीन संवेदनाएँ [सुख, दर्द, और नसुख-नदर्द] भी पता चलती हैं। जब तीन संवेदनाओं का मूलस्वरूप पता चले, तब आगे कुछ करने के लिए शेष नहीं बचता। [=अरहन्तफ़ल] और, मनोसंचेतना आहार के प्रति कैसा भाव होना चाहिए? कल्पना करो कि एक अंगारों से भरा हुआ गड्ढा हो — पुरुष की लंबाई से भी गहरा, ऐसे अंगारों से धधकता हुआ, जिसमें न लपटे निकलती हो, न ही धुँवा । और एक पुरुष है — जिसे अपने प्राण प्यारे है, और मौत से नफ़रत है, जिसे सुख की चाह है, और दर्द से घृणा। तब, दो बलवान पुरुष आते हैं, और उस पुरुष की बाँह को पकड़ कर, उसे घसीटते हुए अंगारों से भरे हुए गड्ढे तक लाते हैं। तब, जैसे उस पुरुष की चेतना होगी — दूर हट जाना। उसकी इच्छा होगी — दूर हट जाना। उसकी अभिलाषा होगी — दूर हट जाना। क्यों? क्योंकि उसे लगेगा, ‘यदि मैं इस अंगारों से भरे हुए गड्ढे में गिर जाऊ, तो उस कारण से मेरी मौत होगी, या मौत जैसी पीड़ा होगी।’ उसी तरह का भाव, मैं कहता हूँ, मनोसंचेतना-आहार के प्रति होना चाहिए। उसी तरह, जहाँ मनोसंचेतना आहार के लिए दिलचस्पी, मज़ा, या तृष्णा हो — किंतु, कल्पना करो कि जैसे किसी छत वाले निवास या कक्ष के उत्तर, दक्षिण या पूर्व दिशा में, कोई खिड़की हो। जब सूरज उगता है, और सूर्य की किरण खिड़की से होकर कक्ष के भीतर प्रवेश करती है, तब वह कहाँ पड़ेगी?” “पश्चिमी दीवार पर, भन्ते!” “किन्तु, यदि पश्चिमी दीवार न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?” “जमीन पर, भन्ते!” “किन्तु, यदि जमीन भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?” “जल पर, भन्ते!” “किन्तु, यदि जल भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?” “तब, कही नहीं पड़ेगी, भन्ते!" “उसी तरह, यदि मनोसंचेतना आहार के लिए न दिलचस्पी हो, न मज़ा लेना हो, न तृष्णा हो — जब मनोसंचेतना आहार का मूलस्वरूप पता चलता है, तब तीन तरह की तृष्णाएँ [कामतृष्णा, भवतृष्णा, और विभवतृष्णा] भी पता चलती हैं। जब तीन तरह की तृष्णाएँ का मूलस्वरूप पता चले, तब आगे कुछ करने के लिए शेष नहीं बचता। और, चैतन्य आहार के प्रति कैसा भाव होना चाहिए? कल्पना करो कि कोई चोर पकड़ा जाता है, और उसे राजा के आगे पेश किया जाता है। [सैनिक कहते हैं,] “महाराज, यह अपराधी चोर है! आपको जैसा उचित लगे, वैसा उसे दंड दे।” तब राजा कहता है, “सैनिकों, इसे ले जाओ! और सुबह होने पर इसे सौ भाले भोंकना!” तब, सुबह होने पर उसे सौ भाले भोंक दिए जाते हैं। तब, राजा दोपहर होने पर पूछता है, “सैनिकों, उसका क्या हाल है?” “महाराज, वह अब भी जीवित है!” “अच्छा? तो जाओ, सैनिकों, और दोपहर होने पर उसे फिर सौ भाले भोंकना!” तब दोपहर होने पर उसे सौ भाले फिर से भोंक दिए जाते हैं। तब, राजा शाम होने पर पूछता है, “सैनिकों, उसका क्या हाल है?” “महाराज, वह अब भी जीवित है!” “अच्छा? तो जाओ, सैनिकों, और शाम होने पर उसे फिर सौ भाले भोंकना!” तब शाम होने पर उसे सौ भाले फिर से भोंक दिए जाते हैं। तो, तुम्हें क्या लगता है? क्या उसे इस तरह तीन सौ भाले भोंक दिए जाने के कारण दर्द और पीड़ा होगी?” “भन्ते, केवल एक ही भाला भोंक दिए जाने पर उसे भयंकर दर्द और पीड़ा होगी। तो, तीन सौ भालों का कहना ही क्या!” उसी तरह का भाव, मैं कहता हूँ, चैतन्य आहार के प्रति होना चाहिए! उसी तरह, जहाँ चैतन्य आहार के लिए दिलचस्पी, मज़ा, या तृष्णा हो — किंतु, कल्पना करो कि जैसे किसी छत वाले निवास या कक्ष के उत्तर, दक्षिण या पूर्व दिशा में, कोई खिड़की हो। जब सूरज उगता है, और सूर्य की किरण खिड़की से होकर कक्ष के भीतर प्रवेश करती है, तब वह कहाँ पड़ेगी?" “पश्चिमी दीवार पर, भन्ते!” “किन्तु, यदि पश्चिमी दीवार न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?” “जमीन पर, भन्ते!” “किन्तु, यदि जमीन भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?” “जल पर, भन्ते!” “किन्तु, यदि जल भी न रहे, तब कहाँ पड़ेगी?” “तब, कही नहीं पड़ेगी, भन्ते!" “उसी तरह, यदि चैतन्य आहार के लिए न दिलचस्पी हो, न मज़ा लेना हो, न तृष्णा हो — जब चैतन्य आहार का मूलस्वरूप पता चलता है, तब नाम-रूप भी पता चलता है। जब नाम-रूप का मूलस्वरूप पता चले, तब आगे कुछ करने के लिए शेष नहीं बचता। — संयुत्तनिकाय १२:६३ + १२:६४ + अंगुत्तरनिकाय ७:४६
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