भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को प्रेरित किया था कि वे इच्छुक उपासकों को स्मृतिप्रस्थान की साधना सिखाएँ।
[expand]
स्मृतिप्रस्थान का अभ्यास मुख्यतः चार प्रकार से होता है —
“दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाकर —
- (कायानुपस्सना) काया को काया देखते हुए रहना
- (वेदनानुपस्सना) संवेदना को संवेदना देखते हुए रहना
- (चित्तानुपस्सना) चित्त को चित्त देखते हुए रहना
- (धम्मानुपस्सना) स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहना
— तत्पर, सचेत और स्मरणशील।”
बुद्ध द्वारा प्रतिपादित ‘आनापानसति’ की सबसे विशिष्ट बात यह है कि यह साधना इन चारों सतिपट्ठानों को एकीकृत रूप में समेटती है। इस साधना में कुल १६ चरण हैं, जो चार-चार की चार चौकड़ियों में विभाजित हैं:
इस क्रम से यह स्पष्ट होता है कि आनापानसति की एक साधना ‘चार स्मृतिप्रस्थान’, ‘सात बोज्झंग’ और अंततः ‘विद्या-विमुक्ति’ को पूर्णता तक पहुँचा सकती है। (मज्झिमनिकाय ११८ : आनापानसति सुत्त)
आजकल ध्यान की अनेक पद्धतियों में समथ (चित्त की निश्चल एकाग्रता) और विपस्सना (प्रज्ञा की अंतर्दृष्टि) को दो अलग प्रक्रियाओं के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन आनापान के इन सोलह चरणों में समथ और विपस्सना दोनों ही साधनाओं का एक साथ, एकीकृत रूप में प्रयोग किया गया है।
प्रारंभिक सूत्रों में समथ के लिए समाधि के चार निमित्त बताये गये हैं — श्वास, वेदना, चित्त, और स्वभाव। सरल शब्दों में कहें, तो जब ध्यान करने पर “श्वास” पकड़ में आने लगे, तब कहा जाता हैं कि आप को काया का “निमित्त” मिल गया। उसी तरह, जब वेदना, चित्त, या स्वभाव पकड़ में आने लगे, तो कहा जाएगा कि आपको उनके “निमित्त” मिल गए। अब, उन निमित्तों का आधार लेकर ही समाधि आगे बढ़ायी जाती है।
दूसरी ओर, विपस्सना को एक विशेष साधना, एक अंतर्दृष्टि के रूप में समझा झाता है, जिसमें कोई पाँच स्कंधों को “अनित्य/दुःख/अनात्म” के नजरिए से देखता है। उस तरह देखने से उसका चित्त उन पाँच स्कंधों से विरक्त हो सकता है। हालाँकि कुछ लोग विपस्सना के नाम पर केवल ‘वेदनानुपस्सना’ करते हुए ही जीवन बिता देते हैं। जबकि उन्हें अन्य स्मृतिप्रस्थानों (जैसे चित्तानुपस्सना और धम्मानुपस्सना) की ओर बढ़ते हुए प्रज्ञा बढ़ानी चाहिए थी।
किन्तु, भगवान ने स्वयं ईजात की तकनीक में ‘समथ’ और ‘विपस्सना’, दोनों को एक साथ जोड़ दिया। आनापानसति के सोलह चरण “समाधि के चार निमित्त” पता करने में सक्षम तो है ही, साथ ही “चार ध्यान” प्राप्त कराने में भी अनुकूल हैं। और तो और, “विपस्सना के चित्त विमुक्ति” के लक्ष्य को पाने में भी अनुत्तर भूमिका अदा करते हैं।
भगवान के आनापान में एक पैटर्न देखने को मिलता है। उदाहरणार्थ, कायानुपस्सना करते हुए पहले उसके निमित्त को पकड़ना होता है। जैसे चरण १, २, ३, ५, ६ इत्यादि से हम निमित्तों को पकड़ना, उनके प्रति संवेदनशील होना सीखते हैं। जब वे पकड़ में आ जाएँ तब हमें अपनी संवेदनशीलता को सूक्ष्म स्तर पर ले जाना होता है, ताकि हम उसकी आंतरिक रचना, उनका संस्कृत होना समझ सकें।
संस्कार तीन तरह के होते हैं: काया-संस्कार (श्वास), वाचा-संस्कार (वितर्क और विचार), चित्त-संस्कार (संज्ञा और वेदना)। चूंकि आनापान में ध्यान करते हुए हम वाचा-संस्कार नहीं रचते। इसलिए हमें केवल दो संस्कारों पर ही फोकस करना होता है। पहली चौकड़ी में ‘काया-संस्कार’ को शांत करना सीखना होता है। और दूसरी चौकड़ी में ‘चित्त-संस्कार’ को।
संस्कार को शांत करने के लिए पहले उसे समझना आवश्यक है, कि किस तरह हम बेहोशी में उसे रचते जा रहे हैं। उसके लिए हमें “समथ” काम आता है, जो हमें एकाग्रता देकर उनके प्रति संवेदनशील बनाता है, उन्हें देख पाने की एक नींव उपलब्ध कराता है। उस स्थिर और एकाग्र चित्त से हम उन संस्कारों को बनते हुए देख पाते हैं।
जैसे श्वास को उसकी लंबाई में जानने के बाद, हम सूक्ष्म स्तर पर समझने के लिए उसे पूरे काया में फैलते हुए श्वास को देखते हैं। ताकि हमें काया-संस्कार का गहरा स्तर समझ में आएँ। ताकि फिर हमें उसे शांत कर सकें। उसी तरह, चित्त-संस्कार को समझने के लिए हमें ‘संज्ञा’ और ‘वेदना’ को समझना आवश्यक है। एकाग्रता से प्राप्त प्रीति और सुख को महसूस करते हुए, फिर हम चित्त-संस्कार समझते हैं, संज्ञाओं और वेदनाओं को समझते हैं और उन्हें भी शांत करते जाते हैं।
(१) चारों स्मृतिप्रस्थानों का एक साथ घटित होना
हालांकि सोलह चरणों का अभ्यास क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है, परन्तु वास्तविक अनुभव में चारों अनुपस्सनाएँ एक-दूसरे से जुड़ी हैं और साथ-साथ घटित हो सकती हैं। उदाहरणतः, जब साधक कायानुपस्सना (१-४) कर रहा होता है, तो उसके साथ ही वेदनानुपस्सना (५-८), चित्तानुपस्सना (९-१२) और धम्मानुपस्सना (१३-१६) के चरण भी सूक्ष्म रूप में चलते रहते हैं। जैसे कोई काँच की खिड़की से बाहर देख रहा हो, और उसे एक ही समय में खिड़की की फ्रेम, काँच, बाहर का करीबी दृश्य, दूर का दृश्य भी साथ-साथ दिखता है। केवल हमारे फोकस को आगे-पीछे करना होता है।
(२) यह अभ्यास केवल क्रमबद्ध नहीं है
कई बार तीसरे चरण (श्वास को आनंददायक बनाना) में ही पाँचवाँ और छठा चरण (वेदना की अनुभूति को देखना) स्वतः प्रकट हो सकता है। चौथे चरण (श्वास के साथ चित्त को शांत करना) में साधक एक से अधिक ध्यानों का अनुभव कर सकता है। इसलिए अभ्यास में लचीलापन स्वाभाविक है।
ध्यान एक यांत्रिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है। साधक केवल किसी तयशुदा क्रम का पालन नहीं करता, बल्कि वह अपने अनुभव की रोशनी में अगला चरण पहचानता है। यह प्रक्रिया आत्म-निरीक्षण, संवेदनशीलता और आंतरिक गहराई से आगे बढ़ती है।
(३) समथ और विपस्सना का संगम
आनापान के इस ध्यान प्रक्रिया में समथ और विपस्सना दोनों ही साथ जुड़ी है, जिसे अलग-अलग करना मुश्किल होगा। लेकिन फिर भी, यदि दबाव में आकर इन १६ चरणों को श्रेणीबद्ध किया हाए तो पता चलता है कि पहले साधक संवेदनशीलता बढ़ाता है। संवेदनशील होकर निमित्त पकड़ता है। निमित्त पकड़कर वह संस्कारों को समझता है। फिर संस्कारों को विपस्सना के चरणों से शांत कर गहरी समथ अवस्था को प्राप्त करता है। इस तरह, गहरी-गहरी अवस्थाओं में उतरते हुए, वह अपने चित्त को स्थूल से सूक्ष्म से सूक्ष्मतम सभी आसक्तियों का परित्याग करता है।
चरण १, २, ३, ५, ६, और ९ शरीर, संवेदना और चित्त के प्रति सूक्ष्म जागरूकता उत्पन्न करते हैं। यह संवेदनशीलता से निमित्तों का ग्रहण होता है। इन निमित्तों को पकड़कर चरण ४, ७, ८ इत्यादि से वह संस्कारों को गहराई से समझने में सक्षम होने लगता है। यही सक्षमता उसे आगे चलकर, चरण १३ से १६ में विपश्यना या सच्ची अंतर्दृष्टि के द्वार खोलती हैं। और अंततः, गहरी अंतर्दृष्टि पाकर साधक संस्कारों को निरुद्ध करना सीखता है।
एक बार श्रावस्ती की बात है। भगवान ने पूछा, “भिक्षुओं, क्या आप आनापानस्मृति की साधना करते हैं?” भंते अरिट्ठ ने भगवान को तुरंत उत्तर दिया, “भंते, मैं करता हूँ।” भगवान ने पूछा, “कैसे करते हो, अरिट्ठ?”
भंते अरिट्ठ ने उत्तर दिया, “भंते, मैं अतीत की कामुकता के प्रति कामेच्छा का त्याग कर, भविष्य की कामुकता के प्रति कामेच्छा से विरत रह कर, भीतर और बाहर के स्वभाव में प्रतिरोधी नजरियों को भली-भांति दूर कर — स्मृतिमान होकर साँस लेता हूँ, स्मृतिमान होकर साँस छोड़ता हूँ। इस तरह, भंते, मैं आनापानस्मृति की साधना करता हूँ।”
तब भगवान ने कहा, “वह एक प्रकार की आनापानस्मृति है, अरिट्ठ। ऐसा नहीं कहूँगा कि नहीं है। लेकिन किस तरह आनापानस्मृति विस्तार के साथ ‘परिपूर्णता’ को प्राप्त होती है, ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ।
— संयुत्तनिकाय ५४:६
[/expand] यदि साँस लंबी हो, तो स्पष्ट अनुभव हो कि वह कैसी और कितनी लंबी है — लेते और छोड़ते दोनों समय। इसी तरह, यदि साँस गहरी या भारी हो, तो भी सजग रहें कि वह कैसी और कितनी गहरी/भारी है। यदि साँस छोटी हो, तो सजगता से जानें कि वह कैसी और कितनी छोटी हो गई है — लेते और छोड़ते समय दोनों। यदि साँस छिछली, हल्की या धीमी हो, तो भी स्पष्ट अनुभव करें कि वह इस तरह और इतनी है। साँस का रूप चाहे बदलता रहे — कभी लंबी, भारी, तेज़; तो कभी हल्की, छोटी, धीमी — उसे जैसे है वैसे जानना ही साधना है। यदि बीच में विचार भटकाएँ या नींद घेरने लगे, तो एक गहरी साँस लेकर फिर से ध्यान साँस पर स्थिर करें। जब कोई निरंतरता से साँस को जानते रहें, तब एक समय आता है, जब साँस चाहें बड़ी हो या छोटी, हमें साँस का “निमित्त” (आलंबन) प्राप्त होता है। और तब से, बड़ी आसानी हम साँस के आलंबन को पकड़ कर अगले चरणों में आगे बढ़ते हैं। ध्यान दें कि यह अभ्यास केवल साँस को “पजानाति” — यानि साक्षीभाव से निष्क्रिय रूप से देखने भर की प्रक्रिया नहीं है। यह “सिक्खति” — यानी साँस लेना-छोड़ना सीखने की एक जीवंत, सक्रिय साधना है। इसमें साधक यह अभ्यास करता है कि वह साँस को पूरे शरीर के साथ जोड़कर, उसे शरीर भर में महसूस करते हुए लेना और छोड़ना सीखे। यह चरण साँस को शरीर तक विस्तारित करने जैसा है — एक गहरी संवेदनशीलता, जो केवल नासिका या छाती तक सीमित न रहकर पूरे शारीरिक क्षेत्र को समेटने लगती है। 1 इस चरण का एक व्यावहारिक तरीका यह है — शरीर के किसी एक हिस्से से शुरुआत करें — जैसे नाभि से। साँस लेते हुए उस क्षेत्र को सजग बनाएं, फिर धीरे-धीरे वहाँ से ऊपर — पेट, छाती, गला, सिर, गर्दन, कंधे, बाँहें, हाथ, पीठ, कमर, नितंब, जांघे और पैर की ओर आगे बढ़ें। हर क्षेत्र को साँस के स्पर्श से संवेदनशील करें, उसे जीवित जानें। विपस्सना साधक सिर से पैर तक, और फिर पैर से सिर तक — शरीर के चक्कर काटते हैं, जो एक बहुत प्रभावी तरीका है। इस दौरान सूक्ष्म जागरूकता का विकास होता है। लेकिन, पर्याप्त चक्कर काटने के बाद किसी एक हिस्से पर — जैसे, सिर पर, या नाभि पर — ध्यान केन्द्रित करें और शरीर के सारे हिस्सों को आपस में जोड़ दें। ताकि शरीर एक इकाई की तरह महसूस हो। लेकिन याद रखें कि कोई एक तरीका ही सर्वश्रेष्ठ और अंतिम नहीं होता — जो सहज लगे, वही मार्ग अपनाएँ। लक्ष्य यही है — साँस के साथ-साथ पूरे शरीर को एक साथ, एक इकाई की तरह, सजीव और सचेत अनुभव करना। जब सभी हिस्सों में सजगता भर जाए, तब उन्हें अलग-अलग न जानें — अब पूरे शरीर को एक साथ, समग्रता में, साँस लेते और छोड़ते समय अनुभव करें। जैसे एक धागा हर हिस्से को जोड़ता है, वैसे ही साँस आपकी संपूर्ण काया में प्रवाहित हो रही हो — कोने-कोने में गहराई से। इस चरण में जैसे-जैसे एकाग्रता बढ़ती है, वैसे-वैसे हम कामुकता से दूर होने लगते हैं। हमें शरीर को ‘आटे का गोला’ समझकर उलट-पुलट करते हुए, साँस के साथ जागरूकता फैलाना होता है। इस कार्य में समय पाकर एक ‘निर्लिप्तता’ से उत्पन्न प्रीति-सुख उपजती है। भगवान उपमा देते हुए कहते हैं — “जैसे, कोई [आटा गूँथनेवाला] थाली में [आटा] रखकर, उसमें पानी छिड़क-छिड़ककर, उसे इस तरह गूँथता है कि पिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न। उसी तरह, साधक निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।” इस चरण के पूर्ण होते होते सम्यक-समाधि का “प्रथम ध्यान” विकसित होता है, और साधक आर्य अष्टांगिक मार्ग की ओर अग्रसर होने लगता है। जब साँस के साथ पूरे शरीर को एक साथ अनुभव करने की क्षमता आ जाए, तब अगला स्वाभाविक कदम है — उसे शांत करना, स्थिर बनाना, रुका ही देना। यहाँ “काया-सङ्खार” का आशय केवल साँस नहीं है, बल्कि वह पूरी लयबद्ध प्रणाली है जो साँस और शरीर को आपस में जोड़ती है — हर सूक्ष्म गतिविधि, हलचल, तनाव, और उत्तेजना जो शरीर में चल रही है। हमारा काम है — साँस को ऐसा बना देना, जो स्वयं में सौम्य, राहतपूर्ण और संतुलित हो, जिससे यह गुण धीरे-धीरे पूरे शरीर में फैल जाए। जब साँस सहज और कोमल हो, तब वह शरीर के भीतर उन क्षेत्रों तक पहुँचने लगती है जहाँ पहले तनाव या कठोरता बनी हुई थी। ध्यानपूर्वक उन हिस्सों पर साँस भेजें — जैसे जबड़ा, हृदय, नितंब, और रीढ़ — और देखें कि वहाँ कैसी धाराएँ चल रही हैं। साँस को इस तरह अनुभव करें कि वह थामे नहीं, धकेले नहीं — बस धीरे-धीरे गला दे, खोल दे। यह कोई बलपूर्वक ‘शांत’ करने की प्रक्रिया नहीं है — बल्कि एक निमंत्रण है शरीर को: “आराम कर लो… स्थिर हो जाओ… तुम्हें अब थामने की ज़रूरत नहीं।” जैसे-जैसे यह कौशल गहराता है, शरीर की सूक्ष्म हलचलों पर पकड़ बढ़ती है — और वे स्वाभाविक रूप से शांत होने लगती हैं। सूक्ष्म होती जागरूकता से हम शरीर के सूक्ष्म गहराइयों में उतरने लगते हैं। जैसे-जैसे गहराइयों में उतरते रहते हैं, वैसे-वैसे सूक्ष्म हलचल को शांत करते जाते हैं। और एक समय आता है, जब साँस और शारीरिक गतिविधियां शान्त होते-होते पूरी तरह रुक जाती है। तब चित्त शरीर के भीतर सिमटा हुआ नहीं रह पाता, बल्कि शरीर से बाहर निकल कर गुब्बारे की तरह फैल जाता है। यही चतुर्थ ध्यान का संकेत है। भगवान उसके लिए उपमा देते हुए कहते हैं — “जैसे, कोई पुरुष हो, जो सिर से लेकर तो पैर तक शुभ्र, उज्ज्वल वस्त्र को ओढ़कर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र से अव्याप्त न रहे। उसी तरह, वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रहे।” यह अवस्था चतुर्थ ध्यान का द्वार खोलती है — एक ऐसा ठहराव जहाँ शरीर, साँस, और चित्त में परस्पर एक सौम्य सामंजस्य उत्पन्न होता है। साँस को देखते-देखते एक समय आता है जब वेदना का “निमित्त” (आलंबन) मिलने लगता है। वेदना के निमित्त को पकड़ने से चित्त एक सूक्ष्मता को प्राप्त करता है, और शरीर की स्थूल ऊर्जाएँ पिघलने लगती है, और स्थूल अनुभूतियों की धुंद छटने लगती है। उसी के साथ, एक सूक्ष्म ऊर्जा फूट पड़ती है और शरीर में बहने लगती है। यह शरीर को रोमांचित करती है, पुरानी स्थूल और बासी ऊर्जाओं को बाहर खदेड़ती है, एक नयी उम्मीद और एक नयी स्फूर्ति जगाती है। इसे ही प्रीति या “प्रफुल्लता” कहते हैं। यह चरण किसी भी समय स्वयं आ सकता है। लेकिन भगवान के अनुसार हमें अपने अभ्यास से ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न करना होता है, जिससे कि यह प्रीति की धारा फूट पड़ें। जब भी वह फूट पड़ें, हमें संपूर्ण शरीर के कोने-कोने में उसे प्रवाहित कर, अधिक-से अधिक समय तक बहने देना होता है, पूरी तरह डुबो देना होता है। 2 ध्यान रहें कि हमें इस तरह से साँस लेना और छोड़ना सीखना हैं कि ‘प्रफुल्लता’ महसूस हो। जाहिर है कि इसमें साँस के साथ प्रयोग करना आवश्यक होता है। तरह-तरह से साँस लेकर, शरीर के भिन्न-भिन्न हिस्सों से गुजारते हुए, साधक अंततः अपने अन्तर्ज्ञान (प्रज्ञा) से ऐसे अनेक “बटनों” को ढूँढने में सफल होता है, जिन्हें दबाने पर प्रफुल्लता सक्रिय हो उठें और उसकी धारा बहने लगे। भगवान उपमा देते हुए कहते हैं — “जैसे, किसी गहरी झील में भीतर से जलस्त्रोत प्रस्फुटित (निकलता) हो। तब वह शीतल जलस्त्रोत फूटकर झील के जल से सींच देगा, भिगो देगा, फैल जाएगा, पूर्णतः व्याप्त करेगा। और उस संपूर्ण झील को कोई भी हिस्सा उस शीतल जलस्त्रोत के जल से अव्याप्त नहीं रह जाएगा। उसी तरह, साधक उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।” इस चरण को पूर्ण करते हुए द्वितीय-ध्यान अवस्था विकसित होती है, और हम आर्य अष्टांगिक मार्ग पर आगे बढ़ते हैं। जब शरीर में प्रफुल्लता का संचार होता है, तब मानो, पर्दे के पीछे सुख, शीतलता की अनुभूति कराते हुए शरीर में फैलते रहता है। अंततः एक समय आता है, जब प्रफुल्लता भी “स्थूल” महसूस होने लगती है। तब साधक उस स्थूल प्रफुल्लता से चित्त को विरक्त करता है, और चित्त को उसके आधार से मुक्त करता है। उसी के साथ, चित्त को अत्याधिक स्थिर एकाग्रता प्राप्त होती है। सुख, मानो, पर्दे के पीछे से निकलकर आगे आता है, और एक अभूतपूर्व राहत और शांति देते हुए, शरीर को एक शीतल गिलेपन में भिगोते हुए फैलने लगता है। तब साधक को चाहिए कि वह उसे, साँस के साथ-साथ, शरीर के कोने-कोने में फैलने दें, ताकि पूरा शरीर सुख में पूरी तरह डूब जाएँ। 3 इस चरण को पूर्ण करते हुए तृतीय-ध्यान अवस्था विकसित होती है, और हम आर्य अष्टांगिक मार्ग पर आगे बढ़ते हैं। भगवान उपमा देते हुए कहते हैं — “जैसे, किसी पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो बिना बाहर निकले, जल के भीतर ही जन्म लेते हैं, जल के भीतर ही बढ़ते हैं, जल के भीतर ही डूबे रहते हैं, जल के भीतर ही पनपते रहते हैं। वे सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते हैं, भिगोए जाते हैं, फैलाए जाते हैं, पूर्णतः व्याप्त किए जाते हैं। और उन कमलपुष्पों का कोई भी हिस्सा उस शीतल जल से अव्याप्त नहीं रह जाता। उसी तरह, साधक उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।” चित्त की रचना दो कारकों से प्रभावित होती है — वेदना और संज्ञा। अर्थात, अनुभूति और नजरिए (दृष्टिकोण) मिलकर चित्त को भिन्न-भिन्न आकार और रंग देते हैं। हमें इस चरण में उनकी भिन्न-भिन्न रचनाओं को जानते हुए साँस लेना और छोड़ना सीखना हैं। उदाहरणार्थ, यदि संवेदना “आध्यात्मिक सुख” हो और नजरिया उसे “सुखद” देख रहा हो, तब चित्त एक विशेष आकार में निर्मित होकर उसे बनाए रखता है। लेकिन यदि नजरिया बदलकर, उसे “स्थूल” या “अनित्य” की तरह देखें तब खेल बदल जाता है। तब चित्त उससे विरक्त होने के प्रयास में अलग आकार और रंग अख़्तियार करता है, और उससे परे जाने का प्रयास करता है। इस चरण में दोनों कारकों का खेल देखकर, और हम स्वयं भी खेलकर, चित्त-संस्कारों के प्रति गहन अंतर्दृष्टियों (विपस्सना) को प्राप्त करते हैं। इसी चरण में हम “संस्कार” की प्रक्रिया सीखते हैं, उनकी बहती धाराओं (currents, cross-currents) को समझने लगते हैं। आगे चलकर, हम जितना हो सकें, उतना इस प्रक्रिया पर नियंत्रण प्राप्त करते हैं। और इसे सीखने के लिए भी प्रयोग करने पड़ते हैं। चित्त-निर्माण की प्रक्रिया को सीखते-सीखते, गहन अंतर्दृष्टियों को प्राप्त करते-करते, हम इन्हें शान्त करना सीखते हैं। इसमें भी साँस लेते और छोड़ते हुए हम उन चैतसिक ऊर्जाओं को शान्त करने के तरीके सीखते हैं, जो जागरूकता की पृष्ठभूमि में निरंतर जारी रहती है। इस चरण के साथ-साथ हम ध्यान की गहन-गहन और प्रशान्त अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं, और उसके परे झाँकने का प्रयास भी करते हैं। जब हम हमारी जानकारी में उपस्थित सभी चित्त-संस्कारों को शान्त करते हुए चलते हैं, तब अंततः, एक समय आता है, जब चित्त निरोध का द्वार भी खुलता है। यह चरण १३ से १६ चरणों के साथ-साथ भी घटित हो सकता है। चित्त-संस्कारों को जानते हुए, उसे बदलते हुए, हम चित्त के प्रति संवेदनशील होने लगते हैं, और चित्त का “निमित्त” (आलंबन) भी पकड़ में आने लगता है। जब हमारी जागरूकता इतनी सूक्ष्म हो जाए कि वह अपने चित्त के आलंबन को कुशलता से पकड़ सकें, और उसके अनेक प्रकारों, आकारों और रंगों को जान सकें, तब वाकई माना जाता है कि साधक का चित्त बहुत सूक्ष्म हो चुका है। इतनी सूक्ष्म जागरूकता वाला व्यक्ति, अपने चित्त के साथ-साथ अक्सर पराए व्यक्ति का चित्त जानने में भी सक्षम हो जाता है। लेकिन यदि ऐसा न हो, तब भी हमें कम-से-कम स्वयं का चित्त जानने में सक्षमता हासिल करनी ही चाहिए, और यह कार्य भी साँस के साथ जुड़ा होना चाहिए। जब साधक को अपना चित्त पता चलने लगे, तो उसे चित्त को प्रमुदित या प्रसन्न करना आवश्यक है। क्योंकि प्रसन्न चित्त का सरलता से प्रसारण और विस्तार होता है, और वह “महग्गत” या विस्तारित चित्त की श्रेणी में आने लगता है। साथ ही, विस्तारित चित्त “अनुत्तर” होने की दिशा में भी आगे बढ़ता है। विस्तारित चित्त में अनेक अनोखे गुणधर्म होते हैं, जैसे वह अत्यधिक उजालेदार, लचीला, हल्का, लेकिन शक्तिशाली होता है। और अनुत्तर चित्त अत्यधिक सूक्ष्म अवस्थाओं को पाने लगता है, जिसे पहले कभी प्राप्त न किया गया हो। चित्त के ये गुणधर्म साधक को अनेक संभावनाओं की ओर अग्रसर करते हैं, जैसे ऋद्धियों को प्राप्त करना, दूसरों के मन को पढ़ लेना, दूर की मानवीय या अमानवीय आवाज़े भी सुन लेना, दूरदृष्टि से सब देख लेना इत्यादि। अनुत्तर चित्त में साधक अपने अनेक जन्मों से लगे चित्त के अवरोधपूर्ण सीमाओं को लाँघने लगता है, और अनुत्तर अवस्थाओं में प्रवेश करता है। चित्त को पहले-पहले प्रसन्न करने के लिए साधक बाहरी विचारों का आधार ले सकता है। जैसे, बुद्ध या अन्य अनुस्मृतियाँ, मेत्ता या अन्य ब्रह्मविहार भावना इत्यादि। लेकिन अंततः उसे केवल अपने साँस के साथ, बिना किसी बाहरी आलंबन के, चित्त को प्रसन्न करना सीखना होता है। इसमें भी वह अनेक छिपे हुए चित्त के बटन ढूँढता है, जिससे वह प्रसन्न होने लगे। यदि वह बिना विचार किए ऐसी सक्षमता हासिल करने लगे, तब उसकी आध्यात्मिक उन्नति में अनेक अनोखे बदलाव आते हैं। अब तक इस चरण में लगभग तीन निमित्त — साँस का आलंबन (आनापान निमित्त), संवेदना का आलंबन (वेदना निमित्त), और चित्त का निमित्त साथ-साथ चल रहे होते हैं। तब, साधक इन चरण में उन निमित्तों का उपयोग कर अपने चित्त को समाहित करना सीखता है। समाहित होना ‘समाधि में पूरी तरह से डूबने’ की प्रक्रिया है। इस चरण में साधक अपने चित्त की सूक्ष्म सक्रियता, या नन्ही-से-नन्ही चंचलता को भी शान्त और स्थिर करते हुए एकाग्रता में तल्लीन होना सीखता है। जब चित्त समाहित हो, तब उसे मुक्त करना अपेक्षाकृत सरल होता है। इसलिए यह चरण पिछले चरण के साथ मिलकर आगे-पीछे कई बार घटित होकर चित्त को विमुक्त करना सीखता है। विमुक्त करने के लिए उसके अनेक आलंबनों को छोड़ना आवश्यक होता है। इसलिए पुनः १३ से १६ चरणों का उपयोग करते हुए साधक चित्त को विमुक्त करना सीखता है। इस चरण में “चेतो-विमुक्ति” होती है, जो लौकिक स्तर पर होती है, लेकिन समय पकने पर लोकुत्तर स्तर पर भी हो सकती है। ये चारों ही चरण “विपस्सना” के श्रेणी में आते हैं। साधक धम्मानुपस्सना के इन चारों ही चरणों का किसी भी समय, किसी भी चरण के पश्चात उपयोग कर सकता है। धम्मानुपस्सना की इस शुरुवाती कदम में साधक “अनित्य संज्ञा” को धारण करता है, और पहले अपने पाँच आसक्ति-स्कंधों (उपादानक्खंध) को अनित्य दृष्टिकोण से देखता है। अनित्य के नजरिए से देखने पर चित्त के गहराई में बसी वह आसक्ति ढीली पड़ने लगती है। बौद्ध दर्शन में “राग” को रंग से जोड़ा जाता है। इसलिए जब रागपूर्ण हो, तब चित्त कोई न कोई रंग अख़्तियार करता है। लेकिन “विराग” देखते हुए साधक, उसका रंग, उसका आकर्षण खत्म कर देता है। और वह इस तरह से उस विशिष्ठ आसक्ति को देखता है कि वह आसक्ति बिलकुल बेरंग हो जाए। जाहिर है, बेरंग आसक्ति अधिक देर तक चित्त में बनी नहीं रह सकती। और, वह अगले चरणों में चित्त से मुक्त होकर विलीन हो जाती है। “जो धर्म कारण से उत्पन्न होते हैं, उनका निरोध भी होता ही है।” इस आर्य दृष्टिकोण के साथ, साधक इस चरण में प्रवेश करता है। वह अपनी आसक्तियों या किसी भी आलंबन को उसके निरोध होने वाले स्वभाव की नजर से देखता है। इस वजह से भले हीआसक्तियों की यदि कोई अब भी छिपी हुई पकड़ हो, वह भी दृश्यमान होने लगती है। निरंतर इस नजरिए से देखने पर कोई भी आसक्ति टिक नहीं पाती है। इस अंतिम चरण में साधक अपनी आसक्तियों को बड़ी सक्रियता से देखता है कि इस चित्त के आलंबन का परित्याग करना है। जब इस नजर से निरंतर देखा जाए, तो छोटी-बड़ी कोई भी आसक्ति अंततः त्याग ही दी जाती है। इस तरह, आनापानस्मृति (१६ चरणों में) विस्तार के साथ, ‘परिपूर्णता’ को प्राप्त होती है। इस तीसरे चरण में “काया” शब्द को लेकर अट्ठकथाओं और अन्य ग्रन्थों में यह कहा गया है कि यहाँ “काया” का अर्थ केवल “साँस की पूरी लंबाई” से है। लेकिन यह व्याख्या संदर्भ में उचित नहीं लगती, जिसके तीन मुख्य कारण हैं: (१) पहले दो चरण ही साँस की पूरी लंबाई को जानने पर आधारित हैं: अगर कोई व्यक्ति साँस की लम्बाई—लंबी या छोटी—का ध्यान कर रहा है, तो वह पहले से ही साँस के आरंभ से अंत तक सजग है। इसलिए तीसरे चरण में अगर फिर से “पूरी काया” का मतलब ‘साँस की लंबाई’ ही हो, तो वह दोहराव जैसा होगा, नया कुछ नहीं। (२) चौथे चरण में साँस को ‘काय-संस्कार’ कहा गया: अगर बुद्ध इसी साँस को तीसरे चरण में “साँस की लंबाई” और चौथे में “काय-संस्कार” कह रहे होते, तो वे ज़रूर संकेत करते कि शब्द का अर्थ बदल रहा है — जैसा कि वे अक्सर स्पष्ट करते हैं। लेकिन यहाँ ऐसा कोई संकेत नहीं है। इससे यह समझ आता है कि तीसरे चरण की “काया” साँस की लंबाई नहीं, बल्कि सचमुच काया या शरीर ही है — जैसे शरीर की पूर्ण संवेदनशीलता। (३) (अंगुत्तरनिकाय १०:२० जैसे) सूत्र बताते हैं कि चौथा चरण चित्त को चतुर्थ-ध्यान की ओर ले जाता है: जहाँ साँस सूक्ष्म होते-होते अंततः रुक जाती है, और शरीर “शुद्ध, उज्ज्वल चेतस” से भर जाता है। इस चतुर्थ-झान में प्रवेश के पहले पूरी काया के प्रति सूक्ष्म सजगता आनी अनिवार्य है — और वही इस तीसरे चरण का कार्य है: साँस के साथ-साथ पूरे शरीर को महसूस करना, सजग बनाना। इसलिए “पूरे काया की अनुभूति” का तात्पर्य यह है कि चित्त अब केवल साँस की लंबाई पर नहीं, बल्कि पूरे शरीर की अवस्था पर फैला हुआ होता है — व्यापक, सजीव और सजगता के साथ। ↩︎ यह प्रीति स्वस्थ्य के लिए भी अत्यंत लाभकारी है। इसलिए इसे बढ़ाकर, विकसित कर अधिक-से-अधिक समय तक सेवन करना चाहिए। प्रारंभिक सूत्रों के अनुसार, स्वयं भगवान बुद्ध, समय-समय पर केवल प्रीति-भोज कर विहार करते थे। हम जानते हैं कि पश्चात लिखे गए ग्रन्थों में प्रीति से भय उत्पन्न कराया गया, यह कहते हुए कि प्रीति से आसक्ति हो सकती हैं और मुक्ति में विलंब हो सकता है। लेकिन याद रखें कि यह प्रीति एक संबोध्यङ्ग भी है — जिसे बढ़ाकर, विकसित करते हुए, परिपूर्ण करना होता है। यदि प्रीति पूरी तरह से विकसित होकर परिपूर्ण न हो, तो सम्यक-समाधि ध्यान अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। सम्यक-समाधि के अभाव में आर्य अष्टांगिक मार्ग पूर्ण नहीं होता। और, आर्य अष्टांगिक मार्ग पूर्ण न हो, तो मुक्ति मिलना असंभव है। ↩︎ यह सुख “कामसुख” जैसा अकुशल नहीं होता। बल्कि यह अत्यंत कुशल आध्यात्मिक सुख होता है, जो चित्त की स्थिर एकाग्रता के कारण पैदा होता है। भगवान कहते हैं, (मज्झिमनिकाय ५९, ६६ इत्यादि के अनुसार) “इस ध्यान-सुख के साथ जुड़ना चाहिए! इसकी साधना करनी चाहिए! इसे विकसित करना चाहिए! इसके पीछे पड़ना चाहिए! इससे भयभीत नहीं होना चाहिए!” ↩︎
(१)
दीघं वा पस्ससन्तो ‘दीघं पस्ससामी’ति पजानाति।
(२)
रस्सं वा पस्ससन्तो ‘रस्सं पस्ससामी’ति पजानाति;
(३)
‘सब्बकायप्पटिसंवेदी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति;
(४)
‘पस्सम्भयं कायसङ्खारं पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति।
(५)
‘पीतिपटिसंवेदी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति।
(६)
‘सुखपटिसंवेदी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति।
(७)
‘चित्तसङ्खारपटिसंवेदी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति;
(८)
‘पस्सम्भयं चित्तसङ्खारं पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति।
(९)
‘चित्तपटिसंवेदी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति;
(१०)
‘अभिप्पमोदयं चित्तं पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति;
(११)
‘समादहं चित्तं पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति;
(१२)
‘विमोचयं चित्तं पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति।
(१३)
‘अनिच्चानुपस्सी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति;
(१४)
‘विरागानुपस्सी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति;
(१५)
‘निरोधानुपस्सी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति;
(१६)
‘पटिनिस्सग्गानुपस्सी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति।