“रूप आत्म [=स्व] नहीं होते हैं!
यदि रूप आत्म होता, तो वह हमें पीड़ा [=रोग, जीर्णता, विघटन] में नहीं डालता। और, हम उसे कह पाते कि — ‘मेरा रूप ऐसा हो, वैसा न हो (=अर्थात, हम अपने रूप का रूपांतरण कर पाते।)’
किन्तु, रूप वाक़ई आत्म नहीं होता है, इसलिए वह हमें पीड़ा में डालता है। और, हम उसे नहीं कह पाते कि — ‘मेरा रूप ऐसा हो, वैसा न हो।’
क्या मानते हो, रूप नित्य होता है, या अनित्य?”
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं होता, वह कष्टपूर्ण होता है, या सुखपूर्ण?”
“कष्टपूर्ण, भन्ते।”
“जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव का हो, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि — ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”
“नहीं, भन्ते।”
इसलिए, जो रूप — भूत, भविष्य, या वर्तमान के हो, आंतरिक हो या बाहरी, स्थूल हो या सूक्ष्म, हीन हो या उत्तम, दूर हो या समीप — सभी रूप ‘मेरे नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’ — इस तरह, वे जैसे बने हो, वैसे सही पता करके देखना चाहिए।"
इस तरह देखने से धर्म सुने आर्यश्रावक का रूपों के प्रति मोहभंग होता है। मोहभंग होने से वैराग्य आता है। वैराग्य आने से वह विमुक्त होता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है — ‘विमुक्त हुआ!’ और, तब उसे पता चलता है —‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’"
संवेदनाएँ (अनुभूतियाँ) आत्म नहीं होती हैं!
यदि संवेदनाएँ आत्म होती, तो वह हमें पीड़ा में नहीं डालती! और हम उसे कह पाते कि — ‘मेरी संवेदना ऐसी हो, वैसी न हो।’
किन्तु, संवेदनाएँ वाक़ई आत्म नहीं होती, इसलिए हमें पीड़ा में डालती है। और, हम नहीं कह पाते कि — ‘मेरी संवेदना ऐसी हो, वैसी न हो।’
क्या मानते हो, संवेदना नित्य होती है, या अनित्य?"
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं होती, वह कष्टपूर्ण होती है, या सुखपूर्ण?”
“कष्टपूर्ण, भन्ते।”
“जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव की हो, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि — ‘यह मेरी है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”
“नहीं, भन्ते।”
“इसलिए, जो संवेदना —भूत, भविष्य, या वर्तमान की हो, आंतरिक हो या बाहरी, स्थूल हो या सूक्ष्म, हीन हो या उत्तम, दूर हो या समीप — सभी संवेदनाएँ ‘मेरी नहीं, मेरी आत्म नहीं, मैं यह नहीं’ — इस तरह, वे जैसे बनी हो, वैसे सही पता करके देखना चाहिए।
इस तरह देखने से धर्म सुने आर्यश्रावक का संवेदनाओं के प्रति मोहभंग होता है। मोहभंग होने से वैराग्य आता है। वैराग्य आने से वह विमुक्त होता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है — ‘विमुक्त हुआ!’ और, तब उसे पता चलता है —‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’”
नज़रिए (दृष्टिकोण) आत्म नहीं होते हैं।
यदि नज़रिए आत्म होते, तो वे हमें पीड़ा में नहीं डालते। और, हम उसे कह पाते कि — ‘मेरे नज़रिए ऐसे हो, वैसे न हो।’
किन्तु, नज़रिए वाक़ई आत्म नहीं होते, इसलिए हमें पीड़ा में डालते हैं। और हम नहीं कह पाते कि — ‘मेरी नज़रिए ऐसे हो, वैसे न हो।’
क्या मानते हो, नज़रिया नित्य होता है, या अनित्य?"
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं होता, वह कष्टपूर्ण होता है, या सुखपूर्ण?”
“कष्टपूर्ण, भन्ते।”
“जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव का हो, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि — ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’”
“नहीं, भन्ते।”
इसलिए, जो नज़रिया —भूत, भविष्य, या वर्तमान के हो, आंतरिक हो या बाहरी, स्थूल हो या सूक्ष्म, हीन हो या उत्तम, दूर हो या समीप — सभी नज़रिए ‘मेरे नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’ — इस तरह, वे जैसे बने हो, सही पता करके देखना चाहिए।
इस तरह देखने से धर्म सुने आर्यश्रावक का नजरियों के प्रति मोहभंग होता है। मोहभंग होने से वैराग्य आता है। वैराग्य आने से वह विमुक्त होता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है — ‘विमुक्त हुआ!’ और, तब उसे पता चलता है —‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’"
रचनाएँ आत्म नहीं होती हैं।
यदि रचनाएँ आत्म होती, तो वे हमें पीड़ा में नहीं डालती। और, हम उसे कह पाते कि — ‘मेरी रचनाएँ ऐसी हो, वैसी न हो।’
किन्तु, रचनाएँ वाक़ई आत्म नहीं होती, इसलिए हमें पीड़ा में डालती है। और हम नहीं कह पाते कि — ‘मेरी रचनाएँ ऐसी हो, वैसी न हो।’
क्या मानते हो, रचना नित्य होती है, या अनित्य?"
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं होती, वह कष्टपूर्ण होती है, या सुखपूर्ण?”
“कष्टपूर्ण, भन्ते।”
“जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव की हो, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि — ‘यह मेरी है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ?’”
“नहीं, भन्ते।”
इसलिए, जो रचना —भूत, भविष्य, या वर्तमान की हो, आंतरिक हो या बाहरी, स्थूल हो या सूक्ष्म, हीन हो या उत्तम, दूर हो या समीप — सभी रचनाएँ ‘मेरी नहीं, मेरी आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’ — इस तरह, वे जैसे बनी हो, सही पता करके देखना चाहिए।
इस तरह देखने से धर्म सुने आर्यश्रावक का रचनाओं के प्रति मोहभंग होता है। मोहभंग होने से वैराग्य आता है। वैराग्य आने से वह विमुक्त होता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है — ‘विमुक्त हुआ!’ और, तब उसे पता चलता है —‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’"
चैतन्य आत्म नहीं होता है!
यदि चैतन्य आत्म होता, तो हमें पीड़ा में नहीं डालता। और हम उसे कह पाते कि — ‘मेरा चैतन्य ऐसा हो, वैसा न हो।’
किन्तु, चैतन्य वाक़ई आत्म नहीं होता है, इसलिए हमें पीड़ा में डालता है। और, हम नहीं कह पाते कि — ‘मेरा चैतन्य ऐसा हो, वैसा न हो।’
क्या मानते हो, चैतन्य नित्य होता है, या अनित्य?"
“अनित्य, भन्ते।”
“जो नित्य नहीं होता, वह कष्टपूर्ण होता है, या सुखपूर्ण?
“कष्टपूर्ण, भन्ते।”
जो नित्य न हो, बल्कि कष्टपूर्ण हो, बदलते स्वभाव की हो, क्या उसे इस तरह देखना योग्य है कि — ‘यह मेरा है, यह मेरा आत्म है, यही तो मैं हूँ’?”
“नहीं, भन्ते।”
इसलिए, जो चैतन्य —भूत, भविष्य, या वर्तमान का हो, आंतरिक हो या बाहरी, स्थूल हो या सूक्ष्म, हीन हो या उत्तम, दूर हो या समीप — सभी चैतन्य ‘मेरा नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं’ — इस तरह, वह जैसे बना हो, वैसे सही पता करके देखना चाहिए।
इस तरह देखने से धर्म सुने आर्यश्रावक का चैतन्य के प्रति मोहभंग होता है। मोहभंग होने से वैराग्य आता है। वैराग्य आने से वह विमुक्त होता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है — ‘विमुक्त हुआ!’ और, तब उसे पता चलता है —‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पुरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’”
— संयुत्तनिकाय २२:५९