दुर्भावना, दरअसल, आत्मरक्षा की एक प्रतिक्रिया है।
जब कोई हमें शब्दों या कर्मों से आहत करता है, तो भीतर रक्षातंत्र तुरंत सक्रिय होकर संघर्ष की मुद्रा में आ जाता है। मन हृदय को पहुँचे दुःख का आंकलन करता है और भविष्य में ऐसी पीड़ा की पुनरावृत्ति से बचने के उपाय खोजने लगता है।
स्वाभाविक रूप से आत्मरक्षा करना कोई बुरा कर्म नहीं है। हर व्यक्ति को अपनी रक्षा का अधिकार है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब हम मामूली से मामूली बात को भी अपने अस्तित्व के लिए खतरा मान बैठते हैं।
उदाहरण के लिए, कोई कुछ कह दे और हमारी छवि को थोड़ी-सी खरोंच लग जाए, तो मन तुरंत प्रतिक्रिया देता है—“उसने मेरे साथ अन्याय किया।” हमारा अहंकार इस पीड़ा को आत्मसम्मान से जोड़ देता है—“मैं चुप कैसे रह सकता हूँ?” फिर हमारी बुद्धि उसमें ईंधन भर देती है—“मुझे इसे सबक सिखाना चाहिए, ताकि यह दोबारा मुझे आहत न कर सके।”
इस प्रकार, तुच्छ-सी बात भी हमारे लिए अस्तित्वगत संकट का रूप ले लेती है। उस काल्पनिक खतरे की आड़ में आक्रामकता जन्म लेती है। यदि इस क्षणिक प्रतिक्रिया को समय रहते न रोका जाए, तो यह एक छोटी-सी चिंगारी भीतर धधकती आग बन जाती है। यहीं से द्वेष, दुर्भावना और नफरत की शुरुआत होती है।
तुरंत ही, हम उस व्यक्ति को अपने मानसिक दृश्यपटल के मंच पर खड़ा कर देते हैं। हम बार-बार वही घटना, वही शब्द, वही दृश्य मन में दोहराते रहते हैं। हम भूल जाते हैं कि दुर्भावना, चाहे कितनी भी ‘उचित’ या ‘न्यायसंगत’ क्यों न प्रतीत हो, अंततः एक विष ही है—जो सबसे पहले उसी को क्षति पहुँचाता है जिसके भीतर वह पनपती है।
यदि प्रज्ञा की दृष्टि से देखा जाए, तो क्रोध एक “हत्यारी” ऊर्जा के रूप में प्रकट होता है—ऐसी ऊर्जा, जो जिस पर भी फूटे, उसी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। यदि वह ऊर्जा बाहर प्रकट होती है, तो सामने वाले को नुकसान पहुँचा सकती है। और यदि भीतर दबा दी जाती है, तो वह क्रोधित व्यक्ति को भीतर से जला डालती है। ऐसे लोग जो बार-बार क्रोध को दबाते हैं, वे किसी न किसी गंभीर बीमारी के शिकार हो जाते हैं।
इसलिए, इस “जानलेवा” ऊर्जा को न तो भीतर दबाना चाहिए और न ही बाहर किसी पर उड़ेल देना चाहिए। बल्कि, इसे बड़ी सूझबूझ, धैर्य और अंतर्ज्ञान के साथ बाहर निकाल कर धीरे-धीरे विलीन कर देना चाहिए। यही सच्चा समाधान है।
ऐसा कर पाने का सबसे प्रभावशाली उपाय है — सद्भावना, करुणा और तटस्थता की साधना।
सद्भावना और करुणा की जीवनदायिनी ऊर्जा ही उस विषैली, घातक ऊर्जा की वास्तविक प्रतिरोधक शक्ति है। यह ऊर्जा जहाँ भीतर की दुर्भावना को निष्क्रिय करने लगती है, वहीं साधक के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को भी धीरे-धीरे सशक्त बनाती है।
परिपक्व साधकों में यह गुण सहजता से प्रकट होने लगते हैं। लेकिन आरंभिक अवस्था में साधक को चाहिए कि वह ‘क्षांति’ की साधना करे — एक अद्वितीय संगम जिसमें धैर्य, क्षमाशीलता, सहनशीलता और सहिष्णुता एक साथ बहते हैं। यह कोई बनावटी विनम्रता या महानता का प्रदर्शन नहीं, बल्कि आत्म-सुरक्षा का एक शक्तिशाली उपाय है।
क्षांति, वस्तुतः, बाहर नहीं — भीतर घटित होती है। बाहर कुछ भी हो — कोई कुछ भी कहे या करे, और बाहर से हम चाहे कोई भी प्रतिक्रिया दें — लेकिन भीतर एक खुलापन, स्थिरता और क्षमाशीलता का प्रवाह बने रहें। क्षमा का अर्थ यह नहीं कि हम अन्याय को चुपचाप सह लें, बल्कि इसका वास्तविक अर्थ है — पहले हम भीतर की घातक प्रतिक्रिया से मुक्त हो जाएँ, फिर शांत चित्त से देखें कि उसे कब और कैसे उचित रूप से सुलझाना है।
यदि उस क्षण स्वयं को नियंत्रण में रखना कठिन लगे, तो सबसे पहले उस व्यक्ति पर से ध्यान हटा लेना चाहिए। मन को किसी अन्य, अधिक शांतिप्रद विषय में लगाना चाहिए। जब भीतर का तूफान थोड़ा थम जाए, तब उस व्यक्ति के कर्मों का निष्पक्ष मूल्यांकन करें — अलग-अलग टुकड़ों में उसे देखें। हो सकता है कि उसमें कोई गुण, कोई मानवता, कोई अच्छाई की झलक हमें दिखे।
यदि वह भी कठिन लगे, तो भी मन को संकुचित नहीं होने देना चाहिए। हमें अपने हृदय को विस्तृत करना होगा — इतना विराट कि उसे किसी घटिया से घटिया व्यक्ति की भी निम्न अच्छाई दिख पड़ें। तब उस सूक्ष्म अच्छाई को पकड़कर, धीरे-धीरे शेष दुर्भावना को भी छोड़ देना चाहिए।
आईये, भगवान बुद्ध के साथ-साथ, इस बार सारिपुत्त भंते के मुख से भी धर्म सुनें।
— धम्मपद ३ + ४ + ५
— धम्मपद २०१ + १०३ + १०४+ १०५
और हार दुःख में डुबाती है।
हज़ारों-हज़ारों लोगों से लड़कर
उन्हें हराने से बेहतर है
केवल एक पर जीत हासिल करना
स्वयं पर!
दूसरों के बजाय
स्वयं को जीतना बेहतर है।
जब आप स्वयं को
— अभ्यस्त करा चुके हो,
अथक संयम से रहते हो —
तब न देव, न गंधर्व,
न ब्रह्म, न ही मार
उस जीत को
हार में बदल सकता है।”
“अनुत्पन्न दुर्भावना को उत्पन्न करने, और उत्पन्न हुई दुर्भावना को बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है?
प्रतिरोधी विषय (“पटिघ निमित्त”) होता है — उस पर अनुचित चिंतन करना आहार बनता है अनुत्पन्न दुर्भावना उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई दुर्भावना बढ़कर अत्याधिक होने का।
किन्तु, मेत्ता चेतो-विमुक्ति होती है — उस पर उचित चिंतन करना अनाहार है अनुत्पन्न दुर्भावना उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई दुर्भावना बढ़कर अत्याधिक होने को।”
— संयुत्तनिकाय ४६:५१ : आहार सुत्त
“मित्रों, नफ़रत मिटाने के पाँच तरीक़े हैं, जिनका उपयोग कर भिक्षु उत्पन्न हुई नफ़रत को पूर्णतः मिटा देता है। कौन-से पाँच? जब भिक्षु को किसी व्यक्ति के प्रति नफ़रत जन्म ले, तब वह भिक्षु — — ये नफ़रत मिटाने के पाँच तरीक़े हैं। इनका उपयोग कर भिक्षु उत्पन्न हुई नफ़रत को पूर्णतः मिटा देता है।” — अंगुत्तरनिकाय ५:१६१
(१) “कुछ लोग ‘शारीरिक आचरण’ में अशुद्ध होते है, किंतु ‘वाणी के आचरण’ में शुद्ध होते हैं। ऐसे व्यक्ति के प्रति भी नफ़रत मिटा देनी चाहिए। कैसे? जैसे कोई पंसुकूलिक भिक्षु — जो त्यक्त, फेंकी हुई वस्तुओं से ही अपना निर्वाह करता है — मार्ग में पड़ा कोई पुराना चिथड़ा देखता है। वह अपने दाएँ पैर से उस वस्त्र के एक कोने को दबाता है, और फिर बाएँ पैर से उसे फैलाता है। और तब, उसके उपयोगी हिस्से को फाड़कर अलग कर लेता है, और उसे उठाकर चल पड़ता है। उसी तरह, व्यक्ति के अशुद्ध कायिक-आचरण पर ध्यान न दें। बल्कि, उसके केवल शुद्ध वाचिक-आचरण पर ही ध्यान दें। इस तरह, उसके प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए। (२) कुछ लोग ‘वाणी के आचरण’ में अशुद्ध होते है, किंतु ‘शारीरिक आचरण’ में शुद्ध होते हैं। ऐसे व्यक्ति के प्रति भी नफ़रत मिटा देनी चाहिए। कैसे? जैसे कोई जलाशय हो, जो शैवालों और जल-पौधों से आच्छादित हो। तब वहाँ एक व्यक्ति आता है — जो गर्मी से बदहाल है, पसीने से लथपथ, थकान से काँपता हुआ, और प्यासा। वह उस जलाशय में उतरता है। फिर, अपने हाथों से शैवालों और पौधों को एक ओर हटाता है, और [दोनों हाथों की अंजलि बनाकर] चुल्लू से उस जल को पीता है। और, फिर शांत होकर अपने रास्ते पर चल पड़ता है। उसी तरह, व्यक्ति के अशुद्ध वाचिक-आचरण पर ध्यान न दें। बल्कि, उसके केवल शुद्ध शारीरिक-आचरण पर ही ध्यान दें। इस तरह, उसके प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए। (३) कुछ लोग ‘शारीरिक और वाचिक’ दोनों ही आचरण में अशुद्ध होते हैं, किंतु वे समय-समय पर ‘चित्त में स्पष्टता और प्रशान्ति’ महसूस करते हैं। ऐसे व्यक्ति के प्रति भी नफ़रत मिटा देनी चाहिए। कैसे? जैसे किसी पथ पर जल से भरा एक गड्ढा हो — गाय के ख़ुर से बना हुआ। तब वहाँ एक व्यक्ति आता है — जो गर्मी से बदहाल है, पसीने से लथपथ, थकान से काँपता हुआ, और प्यासा। वह सोचता है, ‘यह गाय के ख़ुर से बना हुआ, जल से भरा एक गड्ढा है। यदि मैं इसे हाथों से उठाने का प्रयास करूँ, तो यह गड़बड़ा जाएगा, मटमैला हो जाएगा, और पीने के योग्य नहीं बचेगा। क्यों न मैं नीचे झुककर, गाय की भाँति धीरे-धीरे इसे सुड़ककर पी लूँ? [— बिना जल को विचलित किए]’ तब वह झुकता है, सावधानी से, गाय की भाँति जल को सुड़कता है। और, फिर शांत होकर अपने रास्ते पर चल पड़ता है। उसी तरह, व्यक्ति के अशुद्ध शारीरिक और वाचिक आचरण पर ध्यान न दें। बल्कि, उसे समय-समय पर मिलने वाली चित्त स्पष्टता और प्रशान्ति महसूस करने पर ही ध्यान दें। इस तरह, उसके प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए। (४) कुछ लोग ‘शारीरिक और वाचिक’ दोनों ही आचरण में अशुद्ध होते हैं, और वे समय-समय पर ‘चित्त में स्पष्टता और प्रशान्ति’ भी महसूस नहीं करते हैं। ऐसे व्यक्ति के प्रति भी नफ़रत मिटा देनी चाहिए। कैसे? जैसे कोई व्यक्ति बीमार हो — पीड़ा में, किसी गंभीर रोग से ग्रस्त, और यात्रा में हो — [वह किसी बस्ती से बहुत दूर हो] — न पिछले गाँव निकट हो, न अगला गाँव समीप। [वह अकेला हो ] न उसे उचित आहार मिले, न औषधि। न कोई सेवा करने वाला हो, न कोई ऐसा जो उसे किसी बस्ती तक पहुँचा सके। तभी कोई दूसरा यात्री वहाँ से गुज़रे। वह उस बीमार को देखकर रुक जाए। उसके भीतर करुणा जगे, दया उपजे, सहानुभूति फूट पड़े। वह सोचने लगे — “काश! इसे उचित आहार मिल जाए। काश! कोई इसे औषधि दे सके। कोई इसकी देखभाल कर सके। और कोई इसे किसी गाँव तक पहुँचा सके…। ऐसा क्यों? ताकि इसका इसी जगह, इस तरह विनाश न हो जाए।” उसी तरह ऐसे व्यक्ति के लिए दया, करुणा और सहानुभूति से जो कर सकें, करें, [सोचते हुए,] ‘काश! यह व्यक्ति शारीरिक-दुराचार त्याग कर शारीरिक सदाचार का अभ्यास करें! काश! यह वाचिक-दुराचार त्याग कर वाचिक-सदाचार का अभ्यास करें! काश! यह मानसिक-दुराचार त्याग कर मानसिक-सदाचार का अभ्यास करें! ऐसा क्यों? ताकि वह काया छूटने पर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में न उपजे!’ इस तरह, उसके प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए। (५) कुछ लोग ‘शारीरिक और वाचिक’ दोनों ही आचरण में शुद्ध होते हैं, और वे समय-समय पर ‘चित्त में स्पष्टता और प्रशान्ति’ भी महसूस करते हैं। ऐसे व्यक्ति के प्रति भी नफ़रत मिटा देनी चाहिए। कैसे? जैसे कोई जलाशय हो — निर्मल, शीतल, पारदर्शक। उसका जल मधुर हो, तट धीरे-धीरे ढलान वाला, और चारों ओर से अनेक वृक्षों की छाया से आच्छादित हो। तब वहाँ एक व्यक्ति आता है — जो गर्मी से बदहाल है, पसीने से लथपथ, थकान से काँपता हुआ, और प्यासा। वह उस शांत, स्वच्छ जलाशय में उतरता है। स्नान करता है, और चुल्लू भर-भरकर जल पीता है। फिर बाहर निकलकर उन्हीं वृक्षों की शीतल छाया में बैठ जाता है — या लेटकर विश्राम करता है। उसी तरह, व्यक्ति के शुद्ध शारीरिक और वाचिक आचरण पर ध्यान दें। और उसे समय-समय पर मिलने वाली चित्त स्पष्टता और प्रशान्ति महसूस करने पर भी ध्यान दें। ऐसा प्रेरणादायक व्यक्ति आप का चित्त शांत कर सकता है। इस तरह, उसके प्रति नफ़रत मिटा देनी चाहिए।” — अंगुत्तरनिकाय ५:१६२
इस विषय पर अधिक सूत्रों को पढ़ने के लिए देखें — पटिपदा - अध्याय छह »
सारिपुत्त भंते:
सारिपुत्त भंते:
जैसा कि मैंने पहले कहा, दुर्भावना दरअसल ‘आत्मरक्षा’ की प्रतिक्रिया है। लेकिन इसे कभी उचित मानने की भूल न करें, और न ही इसे न्यायसंगत ठहराने का प्रयास करें। यह प्रतिक्रिया निहायत ही असभ्य, अकुशल, आत्मघाती और हानिकारक होती है। इसे भीतर पालना मूर्खता और नीचता का लक्षण है। किसी भी प्रकार का ‘किन्तु-परंतु’ लगाकर इसे छिपाने या सही ठहराने की कोशिश न करें। इसे जितनी जल्दी हो सके त्याग दें — यही हमारा धार्मिक कर्तव्य है।
जब हृदय संकुचित होता है, तब हम दूसरों की अच्छाई को देखने की दृष्टि खो बैठते हैं। तब याद रखें, हमें अपनी दुर्भावना से दूसरों को ही नहीं, स्वयं को भी बचाना है। जब हम किसी के प्रति दुर्भावना का त्याग करते हैं, तो वह उसके ऊपर उपकार नहीं, स्वयं पर होता है।
याद रखें कि दुर्भावना की गर्मी से हम झुलसते हैं, व्याकुलता के पसीने से हम तरबतर होते हैं, थकान से काँपते हम ही हैं, और भीतर संकुचित होकर प्यासे भी हम ही होते हैं। ऐसे में आगे बढ़ना भी हमारे लिए ही कठिन हो जाता है। इसलिए, दूसरों की अच्छाई ढूँढना दूसरों की नहीं, हमारी स्वयं की आवश्यकता है।
हमें चाहिए कि हम दूसरों की अच्छाई ढूँढने की दृष्टि उत्पन्न करें, और उनकी निम्न से निम्न अच्छाइयों को खोज-खोजकर, उस अच्छाई का जल पीएँ। ताकि हमारी व्याकुलता से भरी प्यास मिट सके, और हमें थोड़ी राहत मिले। तभी हम शांति से जी सकेंगे और सुख-मार्ग पर आगे बढ़ सकेंगे।
इन उपमाओं पर बार-बार मनन करें। किसी के कर्मों को अलग करके उसकी छोटी-से-छोटी अच्छाई को देख पाना, हमारे अपने हृदय को विशाल बनाता है। जैसे किसी की अच्छाई देखने के लिए, हमें मानो ज़मीन पर झुककर, गाय की तरह सुड़क-सुड़क कर जल पीना पड़े—तो भी यह एक महान धार्मिक चेष्टा है। यह इस बात का प्रमाण है कि आप, सबसे बुरे संसार में रहते हुए भी, ब्रह्मधर्म की परम पवित्रता में प्रतिष्ठित हैं।
और, जब हृदय का विस्तार होता है, चित्त ब्रह्मविहार की ओर उन्मुख होकर असीम होने लगता है—तब वह समस्त संसार के प्रति, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव, प्रेम, करुणा और कृतज्ञता से भर उठता है। तब कोई आगे बढ़े न बढ़े — हम तो मुक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ते ही रहेंगे।
आईए, अब तीसरी रुकावट के त्याग की ओर बढ़ें — यानी उस सुस्ती और तंद्रा की ओर—