नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

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दुक्खा पटिपदा

अनित्य नजरिया!

भगवान कहते हैं —

“अनित्य नज़रिया क्या है?

ऐसा होता है कि कोई साधक जंगल जाता है, या पेड़ के तले जाता है, या किसी ख़ाली जगह (शून्यागार) जाता है, और तब चिंतन करता है —

  • ‘रूप अनित्य हैं
  • संवेदनाएँ अनित्य हैं
  • नज़रिए अनित्य हैं
  • रचनाएँ अनित्य हैं
  • चैतन्य अनित्य है’

इस तरह, वह साधक “पाँच आधार-संग्रह” (“पञ्च-उपादान-क्खन्ध”) को अनित्य देखते हुए विहार करता है।

यह अनित्य-नज़रिया कहलाता है।

अनित्य-नज़रिए की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी, महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।

जब कोई अनित्य-नज़रिए में लिन रहे, तब वह लाभ, सत्कार, और कीर्ति 1 से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

जैसे, मुर्ग़े का पँख या स्नायु के टुकड़े को आग में डाल दिया जाए, तो वह दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता। उसी तरह, जब कोई अनित्य-नज़रिए में लीन रहे, तब ‘लाभ, सत्कार, और कीर्ति’ से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

किंतु, यदि कोई अनित्य-नज़रिए में लीन रहने पर भी ‘लाभ सत्कार व कीर्ति’ से आकर्षित होता हो, या घिन-भाव उपस्थित न हो — तब उसे समझ लेना चाहिए कि ‘मैं अनित्य नज़रिए को सही तरह से विकसित नहीं कर पाया हूँ। क्योंकि मुझ में क्रमानुसार बदलाव नहीं आया। मैंने इस साधना का फ़ल नहीं पाया!’

इस तरह, वह सचेत हो जाए।

और, यदि कोई ‘अनित्य नज़रिए’ में लीन रहे, और लाभ सत्कार व कीर्ति से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है — तब उसे समझ लेना चाहिए कि ‘मैंने अनित्य नज़रिया’ विकसित कर लिया। क्योंकि मुझमें क्रमानुसार बदलाव आ गया। मैंने इस साधना का फ़ल पा लिया!’

इस तरह, वह सचेत हो जाए।

अनित्य-नज़रिए की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी, महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है!”

— अंगुत्तरनिकाय १०:६० + ७:४६


यतो यतो सम्मसति,
खन्धानं उदयब्बयं
लभती पीतिपामोज्जं,
अमतं तं विजानतं

जैसे जैसे, छुए वह
स्कंधों का उदय व्यय,
प्रफुल्लता, प्रसन्नता मिले ।
जो जानकार हैं,
उनका अमृत वही है।

— धम्मपद ३७४


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  1. “लाभ, सत्कार, और कीर्ति, भिक्षुओं, बड़ी निर्दयी होती है। योगबन्धन से सर्वोपरि राहत पाने में बड़ी, कठोर व तीक्ष्ण बाधा बनती है। क्या तुमने कल रात बूढ़े सियार को रोते सुना?

    “हाँ, भन्ते।”

    वह बूढ़ा सियार खुजली से परेशान है। उसे कही सुख नहीं मिलता—चाहे वह गुफ़ा में जाए, पेड़ तले जाए, या खुली जगह। वह जहाँ भी जाए, जहाँ भी खड़े रहे, जहाँ भी बैठे, जहाँ भी लेटे—हमेशा परेशान ही रहता है।

    उसी तरह कोई भिक्षु ‘लाभ सत्कार व कीर्ति’ से पराभूत हो जाता है। उसका चित्त झुलस जाता है। उसे कही सुख नहीं मिलता—चाहे वह शून्यागार में जाए, पेड़ तले जाए, या खुली जगह। वह जहाँ भी जाए, जहाँ भी खड़े रहे, जहाँ भी बैठे, जहाँ भी लेटे—हमेशा परेशान ही रहता है।

    इतनी निर्दयी होती है भिक्षुओं, ‘लाभ सत्कार व कीर्ति’! योगबन्धन से सर्वोपरि राहत पाने में बड़ी, कठोर व तीक्ष्ण बाधा बनती है!

    इसलिए भिक्षुओं, तुम्हें सीखना चाहिए—‘जब भी हमें ‘लाभ सत्कार व कीर्ति’ मिल रही हो, हम उससे अलग हट जाएंगे। और जो ‘लाभ सत्कार व कीर्ति’ मिल चुकी हो, उससे अपना चित्त झुलसने नहीं देंगे।’”

    — संयुत्तनिकाय १७:८  ↩︎