भगवान कहते हैं, “चंचलता एक रोग है।”
यह वाक्य केवल आलंकारिक नहीं, बल्कि शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य का एक गहन सत्य है।
उच्च रक्तचाप से पीड़ित व्यक्ति भली-भाँति जानते हैं कि जब रक्तचाप बढ़ता है, तो केवल शरीर ही नहीं, मन भी पीड़ित हो उठता है। बेचैनी, पश्चाताप, चिढ़चिढ़ापन, नींद की कमी और कभी-कभी पुराने कर्मों की यादें उन्हें व्यथित कर देती हैं। इस तरह, शारीरिक असंतुलन के कारण मानसिक स्थिति में उथल-पुथल होती है।
दूसरी ओर, यदि मन तनावग्रस्त होने लगे—किसी चिंता, भय या अनिश्चितता से घिरने लगे—तो उसका प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है। रक्तचाप बढ़ने लगता है, और समय रहते यदि उस चिंता को नियंत्रित न किया जाए, तो यह गंभीर रोग का रूप ले सकता है। इस तरह, मानसिक असंतुलन के कारण शारीरिक रोग उत्पन्न हो सकता है।
इस तरह, मानसिक स्थिति और शारीरिक स्वास्थ्य एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। यही वह सत्य है, जिसे भगवान ने “चंचलता एक रोग है” कहकर बहुत सरल शब्दों में अभिव्यक्त किया।
दरअसल, बेचैनी-पश्चाताप हो या सुस्ती-तंद्रा — ये सभी संकेत हैं हमारी ऊर्जा के असंतुलन या “विषम” होने के। जब ऊर्जा अत्यधिक हो जाती है और सिर की ओर तीव्र गति से चढ़ती है, तब मन व्यग्र हो जाता है। फलस्वरूप, व्यक्ति को बेचैनी, चिंता, बिखरे हुए विचार, अस्थिर चित्त, आक्रोश या गहन पश्चाताप का अनुभव होता है।
वहीं, जब ऊर्जा क्षीण हो जाती है और ऊपर उठ नहीं पाती, तब मन में सुस्ती, तंद्रा, नीरसता और शरीर में भारीपन छा जाता है। व्यक्ति थका-थका और उत्साहहीन महसूस करता है।
लेकिन जब यह ऊर्जा संतुलित या “सम” हो जाती है — न अधिक होती है, न कम — तब अवसर होता है कि चित्त शांत हो जाए। तब सही साधना की जाए, तो चित्त में एकाग्रता, स्थिरता, स्पष्टता और प्रफुल्लता की अनुभूति होती है। इस तरह, ऊर्जा को संतुलन या “सम” करना, प्रज्ञा और मुक्ति के अनिवार्य चरण हैं।
कुछ लोगों के लिए इस संतुलन को पाने के लिए “ध्यान-साधना” ही प्राथमिक मार्ग है। जबकि दूसरे कुछ लोगों के लिए, सीधा ध्यान-साधना में जुटना संभव नहीं होता। उन्हें पहले अपने अंदर जमी हुई चिंताओं और पछतावों को एक-एक कर के छोड़ना पड़ता है, तभी ऐसी चित्त स्थिति उत्पन्न होती है, जो ध्यान-साधना कर सकें। हर व्यक्ति का अनुभव भिन्न होता है, इसलिए हर किसी को स्वयं के स्वभाव और आवश्यकताओं को समझते हुए अपना मार्ग चुनना चाहिए।
यही अंतर्ज्ञान या प्रज्ञा की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदम है।
जैसा कहा गया है, शारीरिक और मानसिक अवस्थाएँ परस्पर जुड़ी होती हैं। जब एक पक्ष संतुलित होता है, तो दूसरा भी धीरे-धीरे सम होने लगता है। लेकिन यह ऊर्जा के उतार-चढ़ाव का क्रम लम्बा चल सकता है। अनागामी अवस्था में भी भीतर हल्की बेचैनी बनी रह सकती है। यह पूरी तरह तभी समाप्त होती है जब चित्त अरहंत अवस्था तक पहुँच जाता है।
इसलिए आवश्यक है कि हम इस आंतरिक विकास को सही रूप में समझें, और निरंतर अभ्यास करते रहें—वह मार्ग जहाँ चित्त की विशुद्धि के साथ-साथ स्थूल से सूक्ष्मतम विक्षेप भी क्रमशः शांत होते जाते हैं, और चित्त को गहन शांति व असीम विश्रांति का अनुभव होने लगता है।
भगवान ने इस प्रक्रिया को कई उपमाओं के माध्यम से स्पष्ट किया है:
जब भिक्षु ने चित्त को ऊँचा उठाने [अर्थात, “अधिचित्त”] का संकल्प कर लिया हो, तब उसे समय-समय पर पाँच आलंबनों पर ध्यान देना चाहिए। कौन-से पाँच?
(१) कभी-कभी ऐसा होता है कि जब भिक्षु किसी विशेष विषय पर ध्यान केंद्रित करता है, तो उसे “राग, द्वेष या मोह” से जुड़े पापी अकुशल विचार उठने लगते हैं। ऐसी स्थिति में, उस विशेष विषय को छोड़कर उसे किसी अन्य ऐसे विषय पर ध्यान देना चाहिए, जो कुशलता से जुड़ा हो।
जिस तरह कोई कुशल बढ़ई — जब कोई मोटी कील गहराई में धँस गई हो — तो उसे निकालने के लिए ऊपर से एक छोटी कील ठोकता है।
उसी प्रकार, भिक्षु जब उस विशेष विषय को छोड़कर किसी अन्य, अधिक कुशल विषय पर ध्यान केंद्रित करता है, तब “राग, द्वेष और मोह” से जुड़े वे पापी अकुशल विचार छूटने लगते हैं, रुकने लगते हैं। उनके छूटते ही, भिक्षु अपने चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
(२) लेकिन, यदि किसी अन्य, अधिक कुशल विषय पर ध्यान केंद्रित करने पर भी, वे पापी अकुशल विचार न छूटे, तब उसे उन विचारों के दुष्परिणामों का आंकलन करना चाहिए — ‘वाक़ई ये विचार बड़े अकुशल है, बड़े निंदनीय है, बड़े पीड़ादायक है!’
जिस तरह किसी सौंदर्य-प्रेमी युवक या युवती की गर्दन में यदि अचानक किसी साँप, कुत्ते, या मनुष्य का शव लटका दिया जाए — तो वे किस तरह भय, लज्जा और घिन महसूस करते हैं।
उसी प्रकार, भिक्षु जब उन विचारों के दुष्परिणामों का आंकलन करता है, तब “राग, द्वेष और मोह” से जुड़े वे पापी अकुशल विचार छूटने लगते हैं, रुकने लगते हैं। उनके छूटते ही, भिक्षु अपने चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
(३) लेकिन, यदि दुष्परिणामों का आंकलन करने पर भी, वे पापी अकुशल विचार न छूटे, तब उसे उन विचारों को भुला देना चाहिए [“असति” = विस्मृति], ध्यान नहीं देना चाहिए [“अमनसिकार”]।
जिस तरह कोई अच्छी आँखोंवाला पुरुष यदि किसी रूप को न देखना चाहे, तो वह अपनी आँखें मूँद लेता है, या फेर लेता है।
उसी प्रकार, भिक्षु जब उन विचारों को भुला देता है, ध्यान नहीं देता, तब “राग, द्वेष और मोह” से जुड़े वे पापी अकुशल विचार छूटने लगते हैं, रुकने लगते हैं। उनके छूटते ही, भिक्षु अपने चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
(४) लेकिन, यदि भुला देने पर या ध्यान न देने पर भी, वे पापी अकुशल विचार न छूटे, तब उसे उन विचारों की वाचा-रचना को शिथिल करने पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
जिस तरह किसी तीव्र गति से चलते हुए पुरुष को लगता है, “मैं इतनी तेजी से क्यों चल रहा हूँ? क्यों न मैं थोड़ा धीमे चलूँ?” और वह अपनी गति धीमी कर देता है। फिर उसे लगता है, “मैं चल क्यों रहा हूँ? क्यों न मैं रुककर खड़ा हो जाऊँ?” और वह ठहर जाता है। फिर उसे लगता है, “मैं खड़ा क्यों हूँ? क्यों न मैं बैठ जाऊँ?” और वह बैठ जाता है। फिर उसे लगता है, “मैं बैठा क्यों हूँ? क्यों न मैं लेट जाऊँ?” और वह लेट जाता है।
उसी प्रकार, भिक्षु जब उन विचारों की वाचा-रचना को शिथिल करता है, तब “राग, द्वेष और मोह” से जुड़े वे पापी अकुशल विचार छूटने लगते हैं, रुकने लगते हैं। उनके छूटते ही, भिक्षु अपने चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।
(५) लेकिन, यदि वाचा-रचना को शिथिल करने पर भी, वे पापी अकुशल विचार न छूटे, तब उसे दाँत भींचकर, जीभ को तालु पर दबाकर, चित्त को अपने मानस से पीटकर, विवश कर, कुचल देना चाहिए।
जिस तरह कोई बलवान पुरुष हो, जो किसी दुर्बल को पकड़कर, उसके सिर, गले या कंधे को दबाकर, उसे पीटता है, विवश करता है, कुचल देता है।
उसी प्रकार, भिक्षु जब दाँत भींचकर, जीभ को तालु पर दबाकर, चित्त को अपने मानस से पीटकर, विवश कर, कुचल देता है, तब “राग, द्वेष और मोह” से जुड़े वे पापी अकुशल विचार छूटने लगते हैं, रुकने लगते हैं। उनके छूटते ही, भिक्षु अपने चित्त को भीतर से स्थिर करता है, स्थित करता है, एकाग्र करता है, समाहित करता है।"
—मज्झिमनिकाय २० :
“अनुत्पन्न बेचैनी और पश्चाताप को उत्पन्न करने, और उत्पन्न हुई बेचैनी और पश्चाताप को बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? मानस में व्याकुलता होती है — उस पर अनुचित चिंतन करना आहार बनता है अनुत्पन्न बेचैनी और पश्चाताप उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई बेचैनी और पश्चाताप बढ़कर अत्याधिक होने का। किन्तु, भीतर से शान्त चित्तता होती है — उस पर उचित चिंतन करना अनाहार है अनुत्पन्न बेचैनी और पश्चाताप उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई बेचैनी और पश्चाताप बढ़कर अत्याधिक होने को।” — संयुत्तनिकाय ४६:५१ : आहार सुत्त
“स्वर्ण में स्थूल अशुद्धियां होती है—धूलभरी रेत, कंकड़ और बजरी। धोनेवाला उस स्वर्ण को जलकुंड में रखता है, और बार-बार धोता है, जब तक वह पूर्ण धुल न जाए। जब वह धुल जाए, तब स्वर्ण में मध्यम अशुद्धियां बचती है—खुरदुरी रेत और सूक्ष्म बजरी। तब धोनेवाला उसे फ़िर बार-बार धोता है, जब तक वह पूर्ण धुल न जाए। जब वह धुल जाए, तब स्वर्ण में सूक्ष्म अशुद्धियां बचती है—महीन रेत और काली धूल। तब धोनेवाला उसे फ़िर बार-बार धोता है, जब तक वह पूर्ण धुल न जाए। जब वह धुल जाए, तब स्वर्ण में केवल स्वर्णधूल बचती है। तब सुनार उसे द्रोण [=तपते बर्तन] में रखकर धौंकनी से बार-बार हवा देता है, जब तक वह धूल उड़ न जाए। धौंकनी से बार-बार हवा देनेपर धूल जब तक पूर्णतः उड़ न जाए, और मैल छूटकर स्वर्ण परिशुद्ध न हो जाए, तब तक स्वर्ण मृदु, काम करने योग्य चमकीला नहीं होता। बल्कि वह भंगुर रहता है, आकार देने योग्य तैयार नहीं रहता। किंतु अंततः एक समय आता है, जब सुनार धौंकनी से बार-बार हवा देकर धूल पूर्णतः उड़ा ही देता है, और मैल छूटकर स्वर्ण परिशुद्ध, मृदु, काम करने योग्य चमकीला हो जाता है। तब वह भंगुर नहीं बचता, बल्कि आकार देने योग्य तैयार हो जाता है। तब सुनार जो आभूषण चाहे—पट्टा कर्णफूल कंठहार या लड़ी—स्वर्ण उसकी लक्ष्यपूर्ति करेंगा। उसी तरह चित्त ऊँचा उठाने «अधिचित्त» का मन बनाए भिक्षु में यह स्थूल अशुद्धियां होती है—कायिक दुराचरण, वाचिक दुराचरण, मानसिक दुराचरण। तब कोई सचेत, सक्षम वृत्ति का भिक्षु उन्हें त्यागता है «पजहति», हटाता है «विनोदेति», दूर करता है «ब्यन्तीकरोति», अस्तित्व से मिटा देता है «अनभावं गमेति»। जब वह उनसे छूट जाए, तब उसमें मध्यम अशुद्धियां रह जाती है—कामुक विचार, दुर्भावनापूर्ण विचार, हिंसात्मक विचार। तब वह सचेत, सक्षम वृत्ति का भिक्षु उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है। जब वह उनसे छूट जाए, तब उसमें सूक्ष्म अशुद्धियां रह जाती है—अपने परिवार-रिश्तेदारों का विचार, गाँव-नगर का विचार, निंदित न होने का विचार। तब वह सचेत, सक्षम वृत्ति का भिक्षु उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है। जब वह उनसे छूट जाए, तब उसमें केवल धर्म के विचार बच जाते है। किंतु उसकी समाधि न शांत होती है, न परिष्कृत। उसे न प्रशान्ति मिलती है, न मानस एकरस होता है। मात्र ‘दबावपूर्ण संयम’ रचते हुए ही उसने अपना चित्त संभाला होता है। किंतु एक समय आता है, जब उसका चित्त भीतर से स्थिर हो जाता है, स्थित हो जाता है, एकाग्र हो जाता है, समाहित हो जाता है। उसकी समाधि शांत हो जाती है, परिष्कृत हो जाती है। उसे प्रशान्ति मिलती है, और मानस एकरस हो जाता है। अब मात्र ‘दबावपूर्ण संयम’ रचते हुए ही उसने अपना चित्त संभाला नहीं होता। तब वह छह विशिष्ट-ज्ञानों «अभिञ्ञा» में से जिसे जानने, साक्षात्कार करने की ओर अपना चित्त मोड़ें, जब भी आयाम खुले, वह साक्षात्कार कर सकता है।” —अंगुत्तरनिकाय ३:१००
बेचैनी/पश्चाताप का आहार और अनाहार
यदि किसी दिन शरीर में ऊर्जा आवश्यकता से अधिक हो जाए और उसके परिणामस्वरूप चित्त में बेचैनी या अस्थिरता बढ़ने लगे, तो उसे संतुलित करना भी उतना ही आवश्यक है। इस अवस्था में एक शांतिप्रद उपाय यह है कि थोड़ी मात्रा में ठंडा पानी पिया जाए, जिससे शरीर की तीव्रता हल्की हो। साथ ही, साँस को छिछला रखें और उसे धीरे-धीरे, लंबी अवधि तक बाहर छोड़ते रहें। यह विधि शरीर की अतिरिक्त ऊर्जा को सहज रूप से शांत करती है।
जैसे अत्यधिक हवा भर देने पर फुटबॉल जरूरत से ज़्यादा उछलने लगता है, और उसे संतुलन में लाने के लिए थोड़ी हवा निकालनी पड़ती है, वैसे ही चित्त में आई हुई चंचलता को भी धीमी और लंबी साँसों द्वारा बाहर निकालना आवश्यक होता है। उदाहरण के लिए, दो पल में साँस लें और छह पल तक धीरे-धीरे छोड़ते रहें। यह अनुपात शरीर और चित्त—दोनों को शीतल और संतुलित करता है। जब आप अनुभव करें कि भीतर का असंतुलन कम हो गया है, तब साँस को अपने स्वाभाविक प्रवाह में छोड़ दें और साधना को सहज भाव से आगे बढ़ाएँ।
आईए, अब दूसरी रुकावट के त्याग की ओर बढ़ें — यानी उस उलझन की ओर—