नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

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दुक्खा पटिपदा

काया आकर्षक नहीं!

भगवान कहते हैं —

“अनाकर्षक नज़रिए (“असुभ सञ्ञा”) की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी और महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।

कैसे साधक काया में बदसूरती देखने की साधना करता है?

कोई साधक अपनी काया का इस तरह मनन करता है —

अयं खो मे कायो
मेरी यह काया

उद्धं पादतला
पैर तल से ऊपर,

अधो केस मत्थका
माथे के केश से नीचे,

तच परियन्तो
त्वचा से ढ़की,

पूरो नानप्पकारस्स असुचिनो!
नाना प्रकार की गंदगियों से भरी है!

अत्थि इमस्मिं काये:
मेरी इस काया में है:

केसा लोमा नखा दन्ता तचो
केश, लोम, नाखून, दाँत, त्वचा

मंसं न्हारु अट्ठी अट्ठिमिञ्जं वक्कं
माँस, नसें, हड्डी, हड्डीमज्जा, तिल्ली

हदयं यकनं किलोमकं पिहकं पप्फासं
हृदय, कलेजा, झिल्ली, गुर्दा, फेफड़ा

अन्तं अन्तगुणं उदरियं करीसं मत्थलुङगं
आँत, छोटी-आँत, उदर, टट्टी, मस्तिष्क

पित्तं सेम्हं पुब्बो लोहितं सेदो मेदो
पित्त, कफ, पीब, रक्त, पसीना, चर्बी

अस्सु वसा खेळो सिङघाणिका लसिका मुत्तं!
आँसू, तेल, थूक, बलगम, जोड़ो में तरल, एवं मूत्र।

एवं अयं मे कायो
ऐसी है मेरी काया।

उद्धं पादतला
पैर के तल से ऊपर,

अधो केस मत्थका
माथे के केश से नीचे,

तच परियन्तो
त्वचा तक सीमित,

पूरो नानप्पकारस्स असुचिनो!
नाना प्रकार की गंदगियों से भरी है!


— इस तरह साधक काया में गंदगी देखते हुए रहता है। यह ‘अनाकर्षक-नज़रिया’ कहलाता है।

अनाकर्षक-नज़रिए की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी, महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।

जब कोई अनाकर्षक-नज़रिए में लीन रहे, तब मैथुन-कर्म की सोच मात्र से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

जैसे, मुर्ग़े का पँख या स्नायु के टुकड़े को आग में डाल दिया जाए, तो वह दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता। उसी तरह, जब कोई अनाकर्षक-नज़रिए में लीन रहे, तब मैथुन-कर्म की सोच मात्र से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।

किंतु कोई अनाकर्षक-नज़रिए में लीन रहने पर भी मैथुन-कर्म की सोच से आकर्षित होता हो, या घिन-भाव उपस्थित न हो — तब उसे समझ लेना चाहिए कि ‘मैं अनाकर्षक नज़रिए को सही तरह से विकसित नहीं कर पाया हूँ। क्योंकि मुझ में क्रमानुसार बदलाव नहीं आया। मैंने इस साधना का फ़ल नहीं पाया!’

इस तरह, वह सचेत हो जाए।

और, यदि कोई ‘अनाकर्षक नज़रिए’ में लीन रहे, और मैथुन-कर्म की सोच मात्र से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है — तब उसे समझ लेना चाहिए कि ‘मैंने अनाकर्षक-नज़रिया विकसित कर लिया। क्योंकि मुझमें क्रमानुसार बदलाव आ गया। मैंने इस साधना का फ़ल पा लिया!’

इस तरह, वह सचेत हो जाए।

अनाकर्षक-नज़रिए की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी, महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है!”

— अंगुत्तरनिकाय १०:६० + ७:४६


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