नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

सतिपट्ठान | सम्मपधान | इद्धिपाद | इन्द्रिय | बल | बोज्झङ्ग | अट्ठङ्गिक मग्ग

पाँच बल

जैसे शारीरिक बल हमारी मांसपेशियों से उपजता है, वैसे ही आध्यात्मिक बल हमारी पाँच इंद्रियों से विकसित होता है। इंद्रियाँ जितनी अधिक प्रशिक्षित और संयमित होंगी, उतनी ही अधिक आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न होगी।

अब प्रश्न यह उठता है—इन बलों की आवश्यकता क्या है? इन्हें क्यों बढ़ाया जाए? और यदि न बढ़ाए जाएँ, तो क्या हानि होती है?

उत्तर स्पष्ट है: इन बलों के माध्यम से हम अपने भीतर जमी हुई पापकर्मों की अकुशल वृत्तियों को त्याग सकते हैं और सद्गुणों को दृढ़ता से स्थापित कर उन्हें विकसित कर सकते हैं।

जिस प्रकार एक दुर्बल व्यक्ति ज़रा-से दबाव में टूट जाता है, वैसे ही आध्यात्मिक रूप से दुर्बल व्यक्ति भी जीवन की कठिनाइयों या सांसारिक आकर्षणों के दबाव में धर्म-पथ से विचलित हो जाता है। थोड़ी-सी प्रतिकूलता, भय या मोह उसे उसकी साधना से भटका सकते हैं।

विपरीत स्थिति में, आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली व्यक्ति कठिन से कठिन साधना को भी पूर्ण कर सकता है—जैसे कोई बलवान पर्वत की चोटी पर चढ़ जाता है, जबकि दुर्बल व्यक्ति रास्ते में ही थककर रुक जाते हैं।

यह बात ध्यान रखने योग्य है कि न इंद्रियाँ जन्म से सशक्त होती हैं, न ही ये पाँच बल कोई जन्मजात वरदान हैं। इन्हें विकसित किया जाता है—साधना से, अनुशासन से, और सतत प्रयास से। कोई भी व्यक्ति माँ के गर्भ से पहलवान बनकर नहीं निकलता; उसे व्यायामशाला में पसीना बहाना पड़ता है, स्वादिष्ट परंतु हानिकारक खाद्य पदार्थों का त्याग कर पोषक आहार अपनाना पड़ता है। तब जाकर धीरे-धीरे शरीर में शक्ति आती है।

उसी प्रकार, आध्यात्मिक विकास के लिए भी तप, संयम और साधना की आवश्यकता होती है। यह मार्ग किसी विशेष पुण्य के सहारे या केवल पूर्व जन्मों की कमाई पारमी से नहीं चलता। जो आज अभ्यास करेगा, वही कल आगे बढ़ेगा।

इसलिए बहाने नहीं, अभ्यास करें। आध्यात्मिक बल अर्जित करने का मार्ग सबके लिए खुला है—जरूरत है तो बस संकल्प, श्रद्धा, और सतत प्रयास की।

इंद्रिय और बल में फर्क

पाँच इंद्रिय साधक के मन को नियंत्रित करने वाले आध्यात्मिक गुण हैं। इन्हें इन्द्रिय इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये साधना मार्ग पर चेतना को नियंत्रित और मार्गदर्शित करते हैं। ये गुण साधक के अंदर विकसित हो रहे होते हैं, और पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं भी हो सकते हैं। साधना के शुरुआती चरणों में ये इन्द्रियाँ असंतुलित हो सकती हैं — जैसे कि अत्यधिक श्रद्धा लेकिन कम प्रज्ञा, या अधिक ऊर्जा और प्रयास लेकिन कम एकाग्रता और समाधि।

जब ये पाँच इन्द्रियाँ परिपक्व हो जाती हैं और अविचल रूप से दृढ़ हो जाती हैं, तब इन्हें ही बल कहा जाता है। बल का अर्थ है ऐसी आध्यात्मिक शक्ति जो किसी भी विपरीत परिस्थिति में भी डगमगाए नहीं। उदाहरण के लिए, जब श्रद्धा बल के रूप में विकसित हो जाती है, तो वह संदेह से विचलित नहीं होती; जब प्रज्ञा बल के रूप में परिपक्व होती है, तो वह मोह या भ्रम को काट देती है। इसलिए, इन्द्रियाँ साधना को दिशा देने वाले गुण हैं, जबकि बल वे गुण हैं जो साधक के भीतर स्थायी और अडिग शक्ति बन चुके होते हैं।

इस प्रकार, इन्द्रियाँ और बल मूलतः एक ही गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन उनके विकास की अवस्था और कार्य में अंतर होता है — इन्द्रियाँ प्रारंभिक, मार्गदर्शक रूप हैं, और बल परिपक्व, अडिग रूप हैं।

बुद्ध वचन

ये पाँच बल हैं —

  • श्रद्धा बल
  • ऊर्जा बल
  • स्मृति बल
  • समाधि बल
  • प्रज्ञा बल

श्रद्धा-बल क्या है?

जैसे किसी राजसी गढ़ पर भीतरी प्रजा की रक्षा के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए — एक ध्वजखंभ स्थापित किया जाता है — गहराई तक गड़ा, मज़बूती से स्थापित, अविचल, और स्थिर!

उसी तरह, कोई साधक श्रद्धा स्थापित करता है। वह तथागत की बोधि को लेकर आश्वस्त होता है कि ‘वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’

वह ऐसी ध्वजखंभ-रूपी श्रद्धा स्थापित कर अकुशल का त्याग करता है, और कुशलता को बढ़ाता है। वह पाप का त्याग करता है, और निष्पापता को बढ़ाता है। और स्वयं का शुद्धता से ख्याल रखता है। इस तरह, वह श्रद्धा-संपन्न होता है। यही उसका श्रद्धाबल है।


ऊर्जा-बल क्या है?

जैसे किसी राजसी गढ़ पर भीतरी प्रजा की रक्षा के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए — शक्तिशाली सेनाएँ नियुक्त की जाती हैं — जैसे, हाथीरोही सेना, अश्वरोही सेना, रथिक सेना, धनुर्धर सेना, ध्वजरोही सेना, निवास-आपूर्ति अधिकारी, भोजन-आपूर्ति सैनिक, लोकप्रिय राजकुमार, छापामार वीर सेना, पैदल सेना, एवं गुलाम सेना!

उसी तरह, कोई साधक ऊर्जा जगाकर रहता है — अकुशल स्वभाव को त्यागने के लिए, और कुशल स्वभाव को धारण करने के लिए। वह निश्चयबद्ध, दृढ़, और पराक्रमी होता है। कुशल स्वभाव के प्रति अपने कर्तव्य से जी नहीं चुराता।

वह ऐसी शक्तिशाली सेनारूपी ऊर्जा जगाकर अकुशल का त्याग करता है, और कुशलता को बढ़ाता है। वह पाप का त्याग करता है, और निष्पापता को बढ़ाता है। और स्वयं का शुद्धता से ख्याल रखता है। इस तरह, वह ऊर्जा-संपन्न होता है। यही उसका श्रद्धाबल है।


स्मृति-बल क्या है?

जैसे किसी राजसी गढ़ पर भीतरी प्रजा की रक्षा के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए — एक चतुर, समर्थ और बुद्धिमान द्वारपाल होता है — जो संदेहास्पद लोगों को बाहर रखता है, और परिचित भले लोगों को ही भीतर प्रवेश देता है।

उसी तरह, कोई साधक स्मृतिमान होता है, याददाश्त में बहुत तेज़! पूर्वकाल में किया गया कर्म, पूर्वकाल में कहा गया वचन भी स्मरण रखता है, और अनुस्मरण कर पाता है।

वह ऐसी द्वारपाल-रूपी स्मृति जगाकर अकुशल का त्याग करता है, और कुशलता को बढ़ाता है। वह पाप का त्याग करता है, और निष्पापता को बढ़ाता है। और स्वयं का शुद्धता से ख्याल रखता है। इस तरह, वह स्मृति-संपन्न होता है। यही उसका स्मृतिबल है।


समाधि-बल क्या है?

• जैसे किसी राजसी गढ़ पर भीतरी प्रजा के सुख, सुविधा व आराम के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए — बहुत घास, काष्ट (=लकड़ी) और जल का भंडार (=संचित) किया जाता है।

उसी तरह, कोई आर्यश्रावक स्वयं की सुख, सुविधा व आराम के लिए, और निर्वाण को जागृत करने के लिए — काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त — सोच और विचार के साथ, निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले प्रथम-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।

• आगे, जैसे किसी राजसी गढ़ पर भीतरी प्रजा के सुख, सुविधा व आराम के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए — बहुत चावल और जौ का भंडार किया जाता है।

उसी तरह, कोई आर्यश्रावक स्वयं की सुख, सुविधा व आराम के लिए, और निर्वाण को जागृत करने के लिए — सोच और विचार रुक जाने पर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले द्वितीय-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।

• आगे, जैसे किसी राजसी गढ़ पर भीतरी प्रजा के सुख, सुविधा व आराम के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए — बहुत तिल, मूँग, और चनों का भंडार किया जाता है।

उसी तरह, कोई आर्यश्रावक स्वयं की सुख, सुविधा व आराम के लिए, और निर्वाण को जागृत करने के लिए — प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशीलता और सचेतता के साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं — वह उस तृतीय-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।

• आगे, जैसे किसी राजसी गढ़ पर भीतरी प्रजा के सुख, सुविधा व आराम के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए — बहुत (तरह के स्वादिष्ट) पेय्य का भंडार किया जाता है, जैसे घी, मक्खन, तेल, शहद, गुड़ और नमक इत्यादि।

उसी तरह, कोई आर्यश्रावक स्वयं की सुख, सुविधा व आराम के लिए, और निर्वाण को जागृत करने के लिए — सुख और दर्द दोनों ही हटाकर, खुशी और परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से, अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।

जैसे, कोई राजसी गढ़ अपने लिए इन चार तरह के आहारों को जब चाहे, बिना दिक्कत, बिना परेशानी के उपलब्ध रखता है। उसी तरह, कोई आर्यश्रावक स्वयं के लिए ऊँचे चित्त के चार ध्यान अवस्थाओं को जब चाहे, बिना दिक्कत, बिना परेशानी के उपलब्ध रखता है।

वह ऐसी आहार-रूपी समाधि लगाकर अकुशल का त्याग करता है, और कुशलता को बढ़ाता है। वह पाप का त्याग करता है, और निष्पापता को बढ़ाता है। और स्वयं का शुद्धता से ख्याल रखता है। इस तरह, वह समाधि-संपन्न होता है। यही उसका समाधिबल है।


प्रज्ञा-बल क्या है?

जैसे कोई राजसी गढ़ भीतरी प्रजा की रक्षा के लिए, और बाहरी शक्तियों को दूर रखने के लिए — एक ऊँची, मोटी और पक्की रक्षार्थ दीवार से घिरा होता है। उसी तरह किसी आर्यश्रावक मेन आर्य और भेदक अन्तर्ज्ञान (प्रज्ञा) होता है — उदय-व्यय पता करने योग्य, दुःखों का सम्यक अंतकर्ता!

वह ऐसे दीवार-रूपी ‘प्रज्ञा’ से घिरकर अकुशल का त्याग करता है, और कुशलता को बढ़ाता है। वह पाप का त्याग करता है, और निष्पापता को बढ़ाता है। और स्वयं का शुद्धता से ख्याल रखता है। इस तरह, वह प्रज्ञा-संपन्न होता है। यही उसका प्रज्ञाबल है।"

— अंगुत्तरनिकाय ७:६३ : नगरोपम सुत्त + अंगुत्तरनिकाय ५:२ : वित्थत सुत्त


किस तरह विकसित करें?

“जैसे गंगा नदी पूरब की ओर बहती है; पूरब की ओर ढलती है; पूरब की ओर ही झुकती है। उसी तरह जब कोई साधक इन पाँच बलों को विकसित करे, बढ़ाएँ, तो वह निर्वाण की ओर बहता है, निर्वाण की ओर ढलता है, निर्वाण की ओर झुकता है।

और किस तरह कोई साधक इन पाँच बलों को विकसित करता है, बढ़ाता है?

  • ऐसा होता है कि कोई भिक्षु श्रद्धा बल की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • वह ऊर्जा बल की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • वह स्मृति बल की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • वह समाधि बल की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • वह प्रज्ञा बल की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।

इस तरह, जब कोई साधक इन पाँच बलों को विकसित करे, बढ़ाएँ, तो वह निर्वाण की ओर बहता है, निर्वाण की ओर ढलता है, निर्वाण की ओर झुकता है।”

— संयुत्तनिकाय ५० : १


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