सम्यक संबोधि प्राप्त कर, सम्पूर्ण ज्ञान को आत्मसात कर, संसार के शिखर पर आरूढ़ होकर—यहाँ तक कि उसे भी पार कर लेने के बाद—भी उनकी विनम्रता वैसी की वैसी बनी रही। यह अगला सुत्त उसी विनम्रता का प्रमाण है, जो हमें एक गूढ़ शिक्षा प्रदान करता है।
उस समय बुद्ध भगवान उरूवेला में नेरञ्जरा नदी के किनारे बोधिवृक्ष के नीचे, बस अभी बुद्धत्व प्राप्त किए थे। वहाँ भगवान उस बोधिवृक्ष के नीचे एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे… एक सप्ताह बीतने पर, भगवान उस समाधि से उठकर, बोधिवृक्ष के नीचे से ‘अजपाल’ नामक वटवृक्ष के नीचे गए। वहाँ जाकर, वे अजपाल वटवृक्ष के तले एक सप्ताह तक एक आसन से बैठकर विमुक्ति सुख का निरंतर अनुभव करते रहे…
तब एकांतवास में उनके चित्त में विचार उठे, “(किसी ज्येष्ठ के प्रति) गौरव और आदर-सम्मान के बिना रहना दुःखदायी है। मैं किस श्रमण-ब्राह्मण का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसके निश्रय में रहूँ?”
तब उन्हें लगा, “अपने अपरिपूर्ण शील-स्कन्ध को पूर्ण करने के लिए, मुझे किसी श्रमण-ब्राह्मण का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसके निश्रय में रहना चाहिए। किन्तु, देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण-ब्राह्मण पीढ़ियाँ, शासक और जनता से भरे इस लोक में, मैं किसी अन्य श्रमण-ब्राह्मण को नहीं देखता हूँ, जो मुझसे अधिक शील-संपन्न हो, जिसका मैं आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसके निश्रय में रह सकता हूँ।
और, अपने अपरिपूर्ण समाधि-स्कन्ध… प्रज्ञा-स्कन्ध… विमुक्ति-स्कन्ध… विमुक्ति ज्ञानदर्शन को पूर्ण करने के लिए, मुझे किसी श्रमण-ब्राह्मण का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसके निश्रय में रहना चाहिए। किन्तु, देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण-ब्राह्मण पीढ़ियाँ, शासक और जनता से भरे इस लोक में, मैं किसी अन्य श्रमण-ब्राह्मण को नहीं देखता हूँ, जो मुझसे अधिक समाधि-संपन्न… प्रज्ञा-संपन्न… विमुक्ति-संपन्न… विमुक्ति ज्ञानदर्शन-संपन्न हो, जिसका मैं आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसके निश्रय में रह सकता हूँ।
क्यों न मैं उसी धर्म का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसका निश्रय लेकर रहूँ, जिससे मुझे अभी संबोधि मिली?”
और, सहम्पति ब्रह्मा ने भगवान के चित्त में चल रहे तर्क-वितर्क को जान लिया। तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, सहम्पति ब्रह्मा ब्रह्मलोक से विलुप्त हुआ और भगवान के समक्ष प्रकट हुआ। उस सहम्पति ब्रह्मा ने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, दाएँ घुटने को भूमि पर टिकाकर, हाथ जोड़कर भगवान से कहा —
“ऐसा ही होता है, भगवान! ऐसा ही होता है, सुगत! जितने ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ अतीतकाल में हुए, वे भी उसी धर्म का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसका निश्रय लेकर रहें, जिससे उन्हें संबोधि मिली थी। जितने ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ भविष्यकाल में होंगे, वे भी उसी धर्म का आदर-सम्मान और सत्कार करते हुए, उसका निश्रय लेकर रहेंगे, जिससे उन्हें संबोधि मिलेगी। और भगवान, जो अभी वर्तमान में ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है, वे भी उसी धर्म का आदर-सम्मान और सत्कार कर, उसका निश्रय लेकर रहे, जिससे उन्हें संबोधि मिली है।”
ऐसा सहम्पति ब्रह्मा ने कहा। ऐसा कहकर उसने आगे कहा,
“अतीत के सम्बुद्ध हो,
या भविष्यकाल के बुद्ध,
या हो बहुजन के शोक-नाशक,
वर्तमान के बुद्ध,
सब गौरव करते सद्धर्म का
— यही बुद्धों की धर्मता!
अतः जो स्वयं की भलाई चाहे,
रखता लक्ष्य महान,
वह भी गौरव करें सद्धर्म का,
याद रख बुद्ध शासन।”— संयुत्तनिकाय ६:२ : गारव सुत्त
आइए अब एक बार फिर अपने मूल प्रश्न पर लौटते हैं—“बुद्ध कौन थे?” या शायद, अधिक सटीक रूप से पूछा जाए तो—“बुद्ध क्या थे?”
यद्यपि हमने उनके जीवन और इतिहास के अनेक पहलुओं पर पर्याप्त प्रकाश डाला है, फिर भी यह प्रश्न अब भी पूरी तरह से उत्तरित नहीं हुआ है।
“क्या कोई साधारण मानव, जब सम्यक संबोधि प्राप्त कर लेता है, तब भी ‘मानव’ ही बना रहता है? या वह देवता बन जाता है? या फिर किसी और प्रकार का सत्व? उसे हम किस रूप में समझें, किस नाम से पुकारें?”
इन जटिल और गूढ़ प्रश्नों के उत्तर स्वयं भगवान बुद्ध ने ही दिए हैं। हमने उन उत्तरों को थोड़ा सरल बनाकर, प्रथम-व्यक्ति की शैली में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है—
एक समय द्रोण नामक ब्राह्मण उक्कट्ठ से सेतब्य के बीच यात्रा कर रहा था। तब उसे मार्ग पर किसी के पदचिह्न दिखे, जिसमें चक्र मौजूद थे — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ! उसे लगा, “आश्चर्य हैं! अद्भुत हैं! ये पदचिन्ह मानव के नहीं हैं!”
तब उसने उन पदचिन्हों का पीछा किया, जो रास्ते से होकर उपवन की ओर गए। उनका अनुसरण करते हुए, वह एक पेड़ के तले जा पहुँचा, जहाँ कोई पालथी मार, काया सीधी रख, स्मृतिमान बैठा था — प्रसन्न मुद्रा, विस्मयकारी रूप, श्रद्धाजनक, प्रशान्त इंद्रिय, प्रशान्त चित्त, संपूर्ण आत्मवश, असीम निश्चलता, संरक्षित इंद्रिय, उन पर परम नियंत्रण और संयम, सर्वश्रेष्ठ!
ब्राह्मण द्रोण उनके पास गया और पूछा, “महाशय, क्या आप देवता है?”
“नहीं, ब्राह्मण, मैं देवता नहीं हूँ!”
“तब, क्या आप गंधर्व है?”
“नहीं, ब्राह्मण, मैं गंधर्व नहीं हूँ!”
“तब, क्या आप यक्ष है?”
“नहीं, ब्राह्मण, मैं यक्ष नहीं हूँ!”
“तब, क्या आप मनुष्य है?”
“नहीं, ब्राह्मण, मैं मनुष्य नहीं हूँ!”
“जब आप देवता नहीं है, गंधर्व नहीं है, यक्ष नहीं है, मनुष्य नहीं है, तब भला आप किस तरह के सत्व है?”
“ब्राह्मण! जिस आस्रव का त्याग न करने से मैं देवता बनता, उसे मैंने त्याग दिया है, जड़ से उखाड़ दिया है, जिसकी पुनरुत्पत्ति संभव नहीं है। जिस आस्रव का त्याग न करने से मैं गंधर्व बनता… यक्ष बनता… मनुष्य बनता, उसे मैंने त्याग दिया है, जड़ से उखाड़ दिया है, जिसकी पुनरुत्पत्ति संभव नहीं है। जैसे कोई नीलकमल या श्वेतकमल जल में पैदा होता है, जल में बढ़ता है, और जल से ऊपर उठकर जल से अलिप्त रहता है। उसी तरह, मैं इस लोक में पैदा हुआ, इस लोक में पला-बढ़ा, और इस लोक को हराकर लोक से अलिप्त रहता हूँ। ब्राह्मण, मुझे ‘बुद्ध’ करके स्मरण रखो।
"जिस आस्रव से दैवत्व पाता,
या अंतरिक्षगामि गन्धब्ब बनता,
यक्षावस्था या मनुष्यत्व पाता,
आस्रव वे सभी,
नष्ट हुए मुझसे,
पूरी तरह विनष्ट कर,
मूल से काटे गए।
जैसे उगता नीलकमल,
जल से अलिप्त रहे,
अलिप्त हूँ इस लोक में,
अतः ब्राह्मण, मैं बुद्ध हूँ!"— अंगुत्तरनिकाय ४:३६ : दोण सुत्त
उस बुद्ध, ‘भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध’ को शत-शत नमन!