नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

सतिपट्ठान | सम्मपधान | इद्धिपाद | इन्द्रिय | बल | बोज्झङ्ग | अट्ठङ्गिक मग्ग

सात बोध्यङ्ग

बोध्यङ्ग — संबोधि पाने के सात आवश्यक अंग — विकसित किए जाए तो वे साथ मिलकर साधक को मुक्ति की ओर ले जाते हैं।

इनका गहरा संबंध सतिपट्ठान की साधना से है। प्राचीन पालि सूत्रों में इस संबंध को दो तरीकों से समझाया गया है — पहली सर्पिल साधना, और दूसरी समग्र साधना।

सर्पिल साधना

सर्पिल, या स्पाइरल घूमती हुई क्रमिक प्रक्रिया में बोध्यङ्ग चार स्मृतिप्रस्थान पर आधारित हैं। यह एक चरण-दर-चरण बढ़ती हुई विकासशील प्रक्रिया है, जो स्मृति से शुरू होकर प्रफुल्लता से गुजरते हुए अंततः तटस्थता की ओर बढ़ती है।

१. सति (स्मृति, स्मरणशीलता) — सभी चार स्मृतिप्रस्थान का अभ्यास करते हुए तत्पर और जागरूक होना पहला बोध्यङ्ग है।

२. धम्मविचय (धम्म-विश्लेषण, गुण की जिज्ञासा, स्वभाव की जाँच-पड़ताल) — यह प्रज्ञा और विवेक को बढ़ाता है। यह हमें यह जानने में मदद करता है कि कौन-से मानसिक गुण लाभदायी या उपयोगी हैं और कौन-से नहीं।

३. विरिय (ऊर्जा, पुरुषार्थ) — विवेक से मिली समझ के आधार पर, हम सही प्रयास करते हैं, सही दिशा में कदम बढ़ाते हैं, ताकि कुशल गुण बढ़ें और अकुशल घटें।

४. पीति (प्रीति, प्रफुल्लता, उमंग) — सही प्रयास से ध्यान में आनंदपूर्ण उत्साहवर्धन या प्रफुल्लता उत्पन्न होती है।

५. पस्सद्धि (प्रशान्ति) — आनंदपूर्ण प्रफुल्लता के बाद एक गहरी मानसिक शांति आती है।

६. समाधि (स्थिर एकाग्रता) — शांति से मन स्थिर और एकाग्र होता है।

७. उपेक्खा (तटस्थता, समत्व) — तब एक निष्पक्ष, संतुलित मनःस्थिति उत्पन्न होती है, जो सुख-दुख दोनों को समान दृष्टि से देखती है।

यहाँ तटस्थता निष्क्रिय भाव नहीं है, बल्कि यह चित्त की ऐसी स्थिति है जो किसी भी अनुभूति या आलंबन से विचलित नहीं होती। यह उसी समत्व के समान है जो चतुर्थ ध्यान में उत्पन्न होती है। यही समत्व आगे बढ़कर ध्यान में स्थिरता लाकर प्रज्ञा गहरी करते हुए अरचित (असङ्खत) अवस्था को लाता है।

प्राचीन पालि सूत्रों के सैकड़ों वर्षों के पश्चात लिखे गए अभिधम्म के ग्रन्थों के अनुसार बोध्यङ्ग केवल ‘लोकुत्तर’ स्तर पर ही सक्रिय होते हैं। लेकिन प्राचीन पालि सूत्र यह दर्शाते हैं कि ये बोध्यङ्ग सामान्य ‘लोकिय’ ध्यान साधना में भी सक्रिय हो सकते हैं। कुछ सूत्रों को हमने नीचे शामिल किया हैं। उनसे हमें पता चलता हैं कि कैसे बोध्यङ्गों को ‘आहार’ देने से ‘नीवरण’ भूखे रह जाते हैं। अर्थात, बोध्यङ्गों को बढ़ाकर विकसित करने से चित्त के विघ्नकारी क्लेश दूर होने लगते हैं।

साथ ही, साथ बोध्यङ्ग चार ब्रह्मविहार को विकसित करने में सहायक होते हैं जो अंततः ‘चेतो-विमुत्ति’ की ओर ले जाते हैं — जो एक लोकिय स्तर पर मुक्ति होती है। इससे पता चलता है कि बोध्यङ्ग न केवल निर्वाण की ओर ले जाने वाले धर्म-स्वभाव हैं, बल्कि वे ध्यान की साधारण अवस्थाओं में भी उपयोगी हैं — जैसे एक मजबूत नींव, जिस पर जागरूकता और प्रज्ञा की इमारत खड़ी होती है।

समग्र साधना

इसमें माना जाता है कि चारों स्मृतिप्रस्थानों (कायानुपस्सना, वेदनानुपस्सना, चित्तानुपस्सना, धम्मानुपस्सना) में से कोई भी अनुपश्यना जब सही प्रकार से की जाए, तो वह अपने-आप अगले छहों संबोध्यंगों को विकसित करने ही लगती है। एक संबोध्यङ्ग की साधना से सातों संबोध्यङ्ग स्वतः विकसित होते हैं और अपने चरम तक पहुँच सकते हैं।

इस तरह, सातों संबोध्यङ्ग अपने भीतर संबोधि के सभी सातों अंगों के बीज लिए होते हैं। यह हमें बताता है कि संबोधि के हर अंग में एक समग्र संपूर्णता है — और साधना का कोई भी सही प्रवेश द्वार, अंततः संबोधि की ओर ही बढ़ता है।

दोनों साधनाओं में समन्वय

समझने के लिए दोनों तरीके परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं:

  • सर्पिल एक क्रमिक विकास दिखाता है।
  • समग्र बताता है कि हर क्षण, हर साधना में पूर्णता का बीज है।

इन दोनों तरीकों का भेद केवल दृष्टिकोण का है। यह दोनों इदप्पच्चयता [=कारण-कार्य भाव] के सिद्धांत से मेल खाते हैं — जहां एक धर्म-गुण दूसरे का आधार बनता है, और वे दोनों एक-दूसरे को सशक्त बनाते हैं।

सात बोध्यङ्गों और पाँच इंद्रियों में कुछ रोचक भिन्नताएं हैं:

  • पाँच इंद्रियाँ “अप्पमाद” (लापरवाह न होने) पर आधारित होती हैं, जो “कर्म के सिद्धांत” में विश्वास से उत्पन्न होती है।
  • जबकि सात संबोध्यङ्ग की जड़ “योनिसो मनसिकार” (उचित चिंतन) में होती है, जो सम्यक-दृष्टि को जन्म देती है।

योनिसो मनसिकार

इसे “उचित चिंतन” कहा जाता है — यानी उचित जगह ध्यान देना, सही तरीके से सोचना, देखना और सवाल उठाना। इसे हम सूझ-बूझ से किया गया चिंतन, बुद्धिमत्ता से सोचने की कला भी कह सकते हैं।

यह एक ऐसी अंतर्दृष्टि है जिससे हम तय करते हैं कि किन बातों पर ध्यान देना सार्थक है और किन बातों को अनदेखा कर देना चाहिए। यह एक ऐसा मानसिक चश्मा है, जो हमें आत्म-विकास में सहायक प्रश्नों और बाधक प्रश्नों के बीच अंतर करना सिखाता है।

भगवान के अनुसार हमें उन विचारों और सवालों को छोड़ देना चाहिए जो “आस्रव” को बढ़ाते हैं — काम आस्रव, भव आस्रव, दृष्टि आस्रव, अविद्या आस्रव । इसके विपरीत, ऐसे प्रश्नों पर ध्यान देना चाहिए जो इन विकारों को कम करें और हमें संस्कार अनुभवों का यथास्वरूप चित्र दिखाए।

जिन प्रश्नों पर चिंतन करने से हमें दुःख के मुल कारण समझ में आए, या उन्हें समाप्त करने की ओर ले जाए, वही हमारे लिए उपयोगी चिंतन हैं। ऐसे प्रश्न मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं:

  • परिभाषा वाले प्रश्न — जैसे कि “दुःख क्या है?” या “आसक्ति” (उपादान) क्या है?"
  • वर्गीकरण वाले प्रश्न — जो किसी अनुभव या विचार को उचित श्रेणी में रखते हैं, जैसे “यह भावना किस आस्रव या क्लेश से जुड़ी है?”
  • कारण-कार्य वाले प्रश्न — जो यह खोजते हैं कि एक अवस्था दूसरी को कैसे प्रभावित करती है।

इनमें एक विशेष उप-श्रेणी भी है: हम किस प्रकार प्रश्न पूछते हैं, और यह प्रश्न करने की शैली हमारे मन पर क्या असर डालती है। यही सबसे परिपक्व प्रकार का उचित चिंतन है।

इस उचित चिंतन के सद्गुण को अचानक नहीं पाया जा सकता। यह एक चरणबद्ध प्रक्रिया है, जिसे स्मृतिप्रस्थान के चौथे चरण — धम्मानुपस्सना, यानी स्वभावों का निरीक्षण — के माध्यम से विकसित किया जाता है।

धम्मानुपस्सना का अभ्यास हमें सिखाता है:

  • नीवरणों को पहचानना और दूर करना।
  • संबोधि को उभारना।
  • हर मानसिक प्रक्रिया को कारण-कार्य के चश्मे से देखना।
  • और अंततः हर सोच और हर सवाल को इस कसौटी पर परखना — “क्या यह मुझे दुःख के अंत की ओर ले जा रहा है, अथवा नहीं?”

ध्यान साधना की शुरुआत होती है — मन में उठने वाले नीवरण (विघ्न) और संबोध्यङ्ग को पहचानने से। यह देखना कि कौन-से विचार या भावनाएं आ-जा रही हैं। ना तो उन्हें दबाना है, ना उनसे चिपकना — बस यह जानना है कि “यह अभी घट रहा है।”

उदाहरण के लिए, अगर क्रोध आ रहा है, तो प्रश्न यह नहीं कि “मैं किससे नाराज़ हूँ?” या “उसने ऐसा क्यों किया?” बल्कि “मेरे चित्त में अभी क्या घट रहा है? इसे किस श्रेणी में रखा जा सकता है?” इस तरह की साक्षी दृष्टि आपको ‘शून्यता’ की ओर ले जाती है।

हालाँकि बौद्ध दर्शन ‘अनात्म’ की बात करता है, फिर भी ध्यान के शुरुआती स्तर पर ‘मैं’ और ‘मेरा’ जैसे शब्द उपयोगी होते हैं। क्यों? क्योंकि हमारा मन अभी भी आत्मकथात्मक भाषा में चलता है — ‘मैं’ और ‘दूसरे’ के भेद के साथ। इसलिए शुरुआत में यह ज़रूरी है कि ध्यान भीतर की ओर केंद्रित हो, न कि बाहरी कारणों पर।

जब यह दृष्टिकोण पक्का हो जाता है — जब हम अनुभवों को सिर्फ अनुभव के रूप में देखने लगते हैं — तभी ‘मैं’ और ‘मेरा’ जैसे विचार पीछे छूट सकते हैं।

अब बात आती है अगले स्तर की — नीवरण और संबोध्यङ्ग की उत्पत्ति और व्यय को समझने की। यानी यह जानना कि वे मन में कैसे उत्पन्न होते हैं और कैसे दूर किए जा सकते हैं।

इसमें दो मुख्य दृष्टिकोण अपनाए जाते हैं:

  • संतुलन: ध्यान में ऊर्जा जगाने और उसे राहत देने के बीच संतुलन साधना।
  • पोषण और उपेक्षा: बोध्यङ्गों को पोषण देना, और नीवरणों को भूखा रखना।

उदाहरण के लिए, जब चित्त सुस्त हो — तब वीर्य (ऊर्जा), धर्म-विवेचना (स्वभाव को जाँचने की जिज्ञासा), और प्रीति (प्रफुल्लता) जैसे सक्रिय गुण मदद करते हैं। और जब चित्त बेचैन हो — तब प्रशान्ति, समाधि और तटस्थता जैसे शांत और निष्क्रिय गुण उसे स्थिर करते हैं। सातों संबोध्यङ्गों में स्मृति ही एकमात्र गुण है जो हर स्थिति में हितकारी है — और वही हमें इस संतुलन की याद भी दिलाता है।

ध्यान में आगे बढ़ने के लिए यह समझना ज़रूरी है कि कौन-से गुण कब अधिक सक्रिय हैं और कब उन्हें थोड़ा थामना है। जैसे, धर्म-विश्लेषण करना कभी-कभी चंचलता बढ़ा सकता है, लेकिन वही गुण यह भी बताता है कि अब शांत होने की आवश्यकता है। इस तरह, उचित चिंतन न केवल प्रज्ञा उत्पन्न करता है, बल्कि वह चित्त को संतुलन, स्पष्टता और अंततः निर्वाण की ओर भी ले जाता है।

एक महत्वपूर्ण विचार यह है कि हमारा सही जगह पर ध्यान देना या ‘उचित चिंतन’ करना — संबोधि के मार्ग को पोषण देता है, जबकि गलत जगह ध्यान देना या ‘अनुचित चिंतन’ — हमारे भीतर भ्रम, संशय और अन्य मानसिक अवरोधों को पुष्ट करता है। ध्यान एक खेत की तरह है। यदि आप सही बीजों को पानी देते हैं — यानी संबोध्यंगों पर ध्यान देते हैं — तो वे फलते-फूलते हैं। यदि आप गलत बीजों को — जैसे आलस्य, क्रोध, मोह — पानी देना बंद कर दें, तो वे मुरझा जाते हैं।

विशेषतः, धर्म-विचय (धर्म के गुणों का विश्लेषण) एक ऐसा संबोध्यङ्ग है जो सीधा संशय रूपी बाधा (विचिकिच्छा) को सुखाता है। जैसे ही कोई यह जानने लगता है कि कौन-सी मानसिक वृत्तियाँ उसे भटकाती हैं और कौन-सी उसे स्थिर करती हैं, उसका ध्यान खुद-ब-खुद सही दिशा में केंद्रित होने लगता है। यही अभ्यास, ‘योनिसो मनसिकार’ कहलाता है।

दूसरी ओर, जब हम उन सवालों में उलझते हैं जिनका कोई स्पष्ट जवाब नहीं — जैसे “मैं हूँ या नहीं?”, “आत्मा है या नहीं?” — तब मन भ्रमित होता है। बुद्ध ने ऐसे सवालों को अवांछनीय बताया है, क्योंकि वे ध्यान को भटकाते हैं और संबोधि से दूर ले जाते हैं।

एक बार किसी ने बुद्ध से सीधा सवाल पूछा — “क्या आत्मा है?” — तो उन्होंने चुप रहकर यह दर्शाया कि यह प्रश्न ही गलत दिशा में है। तो फिर सही सवाल क्या हैं?

भगवान ने सिखाया कि हमें अपने अनुभवों को “आत्मा है या नहीं?” की जगह, चार आर्य सत्यों की दृष्टि से देखना चाहिए:

  • क्या इस दुःख के पीछे मेरी ही कोई आसक्ति है?
  • उस आसक्ति के पीछे कौन-सी तृष्णा है?
  • क्या उस तृष्णा को छोड़ा जा सकता है?
  • तृष्णा छोड़ने के लिए मुझे चित्त में क्या विकसित करना होगा?

इन सवालों के सही उत्तर हमें बंधनों से मुक्त करते हैं और संबोधि दिलाते हैं। इसलिए ये सवाल सही हैं, उचित हैं, जो पुछे ही जाने चाहिए।

जैसे-जैसे साधक उचित चिंतन से अवरोधों की पहचान करता है और उनके कारणों की जाँच करता है, उसकी एकाग्रता (समाधि) मजबूत होती है। यह समाधि फिर स्मृति, धर्म-विश्लेषण, और तटस्थता जैसे बोध्यङ्गो को और सशक्त बनाती है। यह एक चक्र की तरह है: उचित चिंतन → संबोध्यङ्ग → गहन समाधि → गहरी प्रज्ञा → अधिक परिष्कृत उचित चिंतन।

शुरुआत में साधक सोचता है — “मैं ध्यान कर रहा हूँ”, “मेरा मन शांत है।” यह एक प्रकार का अहंभाव है। लेकिन सही अभ्यास से यह भाव धीरे-धीरे मिटने लगता है। तब साधक केवल अनुभव करता है: “यह एक स्वभाव है”… “यह है।” यह दृष्टि ही संबोधि की दहलीज़ होती है।

भगवान ने कहा था कि सप्त संबोध्यङ्ग — स्मृति, स्वभाव-विश्लेषण, ऊर्जा, प्रफुल्लता, प्रशांति, समाधि और तटस्थता — यदि सही तरीके से विकसित किए जाएँ, तो ये सीधे “ज्ञान और विमुक्ति की पराकाष्ठा” तक ले जाते हैं। लेकिन इस विकास का आधार है: उचित चिंतन, जो पूछता है:

  • “क्या यह मुझे बाँध रहा है, या मुक्त कर रहा है?”
  • “क्या यह मेरा है?”
  • “अगर मैं इसे पकड़ूं, तो क्या दुःख होगा?”

इन सवालों से जन्म लेता है असली बोध, जो न किसी आत्म को खोजता है, न किसी निराकार को, बल्कि केवल अनुभव की सच्चाई को पहचानता है।

भगवान कहते हैं कि हर संबोध्यङ्ग की साधना आदर्श तौर पर “निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करना है, जो त्याग परिणामी हो।” ये चार अवस्थाएँ लौकिक और लोकुत्तर दोनों ही स्तरों पर लागू होती हैं।

लौकिक स्तर पर वह समाधि को स्थिर करने के लिए उपयोग होती है, ताकि कोई उसमें आने वाले विघ्न अकुशल धर्मों को क्रमशः त्यागते जाए। इस ध्यान में जब अभ्यास विमुत्ति को अपना लक्ष्य बनाता है, तब यह योनिसो मनसिकार और धम्मविचय के निरन्तर अभ्यास से एक गहराई तक पहुँचता है, जहाँ पहातब्बं (त्याग देने योग्य) धर्म और सूक्ष्म से सूक्ष्म राग भी समझ में आने लगते हैं।

इस तरह, जब वह लोकुत्तर स्तर पर विकसित होती हैं, तब वह चित्त को अरचित निर्माण-विहीनता (“असङ्खत”) की स्थिति तक ले जाते हैं, जहाँ कुछ भी पकड़ने की आवश्यकता नहीं रह जाती।

बुद्ध वचन

एक समय भगवान साकेत के अञ्जनवन मृगदाय में विहार कर रहे थे। तब कुण्डलिय घुमक्कड़ भगवान के पास गया, और भगवान से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वह एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर कुण्डलिय घुमक्कड़ ने भगवान से कहा:

“गौतम गुरुजी, मैं आश्रमों में निश्रय लेता हूँ और सभाओं में जाता हूँ। यह मेरी आदत है कि मैं प्रातःभोज समाप्त करने पर एक आश्रम से दूसरे आश्रम, एक उद्यान से दूसरा उद्यान घूमते रहता हूँ। वहाँ मुझे कोई-कोई ऐसे श्रमण-ब्राह्मण दिखते हैं जो केवल इसीलिए बात करते हैं कि वे दूसरों की धारणाओं में खोट ढूँढ सकें और विवाद जीत सकें। किन्तु गौतम गुरुजी क्या पुरस्कारी बात देखकर विहार करते हैं?”

“कुण्डलिय, तथागत ‘विद्या-विमुक्ति फल’ की पुरस्कारी बात देखकर विहार करते हैं।”

“किन्तु, गौतम गुरुजी, कौन-से धर्मों की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर विद्या-विमुक्ति परिपूर्ण होती है?”

“कुण्डलिय, सात संबोध्यङ्गों की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर विद्या-विमुक्ति परिपूर्ण होती है।”

“किन्तु, गौतम गुरुजी, कौन-से धर्मों की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर सात संबोध्यङ्ग परिपूर्ण होते हैं?”

“कुण्डलिय, चार स्मृतिप्रस्थान की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर सात संबोध्यङ्ग परिपूर्ण होते हैं।”

“किन्तु, गौतम गुरुजी, कौन-से धर्मों की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर चार स्मृतिप्रस्थान परिपूर्ण होते हैं?”

“कुण्डलिय, तीन तरह (काया, वचन, मन) से सदाचार की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर चार स्मृतिप्रस्थान परिपूर्ण होते हैं।”

“किन्तु, गौतम गुरुजी, कौन-से धर्मों की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर तीन तरह से सदाचार परिपूर्ण होता है?”

“कुण्डलिय, इंद्रिय संवर की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर तीन तरह से सदाचार परिपूर्ण होता है। और, कुण्डलिय, कोई इंद्रिय संवर की साधना कर, उन्हें विकसित कैसे करता है, जिससे तीन तरह से सदाचार परिपूर्ण होते हैं?

ऐसा होता है, कुण्डलिय, कि कोई भिक्षु —

  • आँखों से अनुकूल रूप देखकर न उसके पीछे पड़ता है, न उसमें मजा लेता है, न ही कोई दिलचस्पी जगाता है। उसकी काया स्थिर होती है, और उसका चित्त भीतर से स्थिर होता है, सुसंगठित होता है, सुविमुक्त होता है। किन्तु, आँखों से प्रतिकूल रूप देखकर भी वह न तिलमिलाता है, न उसका चित्त अस्थिर होता है, न उसका मन खिन्न होता है, न उसका मानस दुर्भावना से भरता है। (तब भी) उसकी काया स्थिर होती है, और उसका चित्त भीतर से स्थिर होता है, सुसंगठित होता है, सुविमुक्त होता है।
  • कान से अनुकूल ध्वनि सुनकर…
  • नाक से अनुकूल गंध सूँघकर…
  • जीभ से अनुकूल स्वाद चखकर…
  • काया से अनुकूल संस्पर्श महसूस कर…
  • मन से अनुकूल स्वभाव जानकर न उसके पीछे पड़ता है, न उसमें मजा लेता है, न ही कोई दिलचस्पी जगाता है। उसकी काया स्थिर होती है, और उसका चित्त भीतर से स्थिर होता है, सुसंगठित होता है, सुविमुक्त होता है। किन्तु, [इंद्रियों] से प्रतिकूल [विषय] देखकर भी वह न तिलमिलाता है, न उसका चित्त अस्थिर होता है, न उसका मन खिन्न होता है, न उसका मानस दुर्भावना से भरता है। (तब भी) उसकी काया स्थिर होती है, और उसका चित्त भीतर से स्थिर होता है, सुसंगठित होता है, सुविमुक्त होता है।

इस तरह आँखों से अनुकूल या प्रतिकूल रूप देखने पर भी भिक्षु की काया स्थिर होती है, और उसका चित्त भीतर से स्थिर होता है, सुसंगठित होता है, सुविमुक्त होता है। इस तरह इंद्रिय संवर की साधना कर, उन्हें विकसित करने से तीन तरह से सदाचार परिपूर्ण होते हैं।

फिर, कुण्डलिय, तीन तरह से सदाचार की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर चार स्मृतिप्रस्थान कैसे परिपूर्ण होते हैं?

ऐसा होता है, कुण्डलिय, कि कोई भिक्षु दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाकर —

  • काया को काया देखते हुए रहता है
  • संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है
  • चित्त को चित्त देखते हुए रहता है
  • स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है

— तत्पर, सचेत और स्मरणशील। इस तरह, कुण्डलिय, चार स्मृतिप्रस्थान की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर सात संबोध्यङ्ग परिपूर्ण होते हैं।

फिर, कुण्डलिय, सात संबोध्यङ्गों की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर विद्या-विमुक्ति कैसे परिपूर्ण होती है?”

ऐसा होता है, कुण्डलिय, कि कोई भिक्षु —

  • स्मृति संबोध्यङ्ग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • स्वभाव-विश्लेषण संबोध्यङ्ग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • ऊर्जा संबोध्यङ्ग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • प्रफुल्लता संबोध्यङ्ग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • प्रशान्ति संबोध्यङ्ग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • समाधि संबोध्यङ्ग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • तटस्थता संबोध्यङ्ग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।

इस तरह, कुण्डलिय, सात संबोध्यङ्गों की साधना कर, उन्हें विकसित करने पर विद्या-विमुक्ति परिपूर्ण होती है।"

ऐसा कहे जाने पर कुण्डलिय घुमक्कड़ कह पड़ा, “अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!"

— संयुत्तनिकाय ४६:६ : कुण्डलिय सुत्त


योनिसो मनसिकार

“मैं ऐसा कोई एक धर्म (स्वभाव) नहीं देखता हूँ जिसके कारण अनुत्पन्न संबोध्यङ्ग उत्पन्न नहीं होते हैं, और उत्पन्न हुए संबोध्यङ्ग विकसित होकर परिपूर्ण नहीं होते हैं, जैसे अनुचित चिंतन (“अयोनिसो मनसिकार”)। जब किसी का चिंतन अनुचित हो (या ध्यान सही जगह नहीं हो), तब अनुत्पन्न संबोध्यङ्ग उत्पन्न नहीं होते हैं, और उत्पन्न हुए संबोध्यङ्ग विकसित होकर परिपूर्ण नहीं होते हैं।

मैं ऐसा कोई एक धर्म नहीं देखता हूँ जिसके कारण अनुत्पन्न संबोध्यङ्ग उत्पन्न होने लगते हैं, और उत्पन्न हुए संबोध्यङ्ग विकसित होकर परिपूर्ण होने लगते हैं, जैसे उचित चिंतन (“योनिसो मनसिकार”)। जब किसी का चिंतन उचित हो (या ध्यान सही जगह हो), तब अनुत्पन्न संबोध्यङ्ग उत्पन्न होने लगते हैं, और उत्पन्न हुए संबोध्यङ्ग विकसित होकर परिपूर्ण होने लगते हैं।”

— अंगुत्तरनिकाय १:७५-७६


संबोध्यङ्ग अनाहार और आहार

(🔔 इस सूत्र को भलीभाँति समझने के लिए हमने इसके शब्दों में परिवर्तन किया है।)

स्मृति

“अनुत्पन्न स्मृति संबोध्यङ्ग को उत्पन्न न करने, और उत्पन्न हुई स्मृति संबोध्यङ्ग को घटाकर कम करने का आहार क्या है? कुछ ऐसे स्वभाव होते हैं, जो स्मृति संबोध्यङ्ग के पनपने का आधार बनते हैं — (लेकिन) उनका उचित चिंतन न करना (उन्हें नजरंदाज़ करना या ध्यान न देना)।

किन्तु, जो ऐसे स्वभाव हैं, जो स्मृति संबोध्यङ्ग के पनपने का आधार बनते हैं — उन पर उचित चिंतन करना (या ध्यान देना) आहार बनता है अनुत्पन्न स्मृति संबोध्यङ्ग उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई स्मृति संबोध्यङ्ग बढ़कर अत्याधिक करने का।”

स्वभाव-विश्लेषण

“अनुत्पन्न स्वभाव-विश्लेषण संबोध्यङ्ग को उत्पन्न न करने, और उत्पन्न हुई स्वभाव-विश्लेषण संबोध्यङ्ग को घटाकर कम करने का आहार क्या है? कुछ ऐसे स्वभाव होते हैं, जो कुशल या अकुशल, दोषपूर्ण या निर्दोष, स्थूल या सूक्ष्म, अंधेरे पक्ष या उजले पक्ष के होते हैं — (लेकिन) उनका उचित चिंतन न करना (उन्हें नजरंदाज़ करना या ध्यान न देना)।

किन्तु, जो ऐसे स्वभाव हैं, जो कुशल या अकुशल, दोषपूर्ण या निर्दोष, स्थूल या सूक्ष्म, अंधेरे पक्ष या उजले पक्ष के होते हैं — उन पर उचित चिंतन करना (या ध्यान देना) आहार बनता है अनुत्पन्न स्वभाव-विश्लेषण संबोध्यङ्ग उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई स्वभाव-विश्लेषण संबोध्यङ्ग बढ़कर अत्याधिक करने का।”

ऊर्जा

“अनुत्पन्न ऊर्जा संबोध्यङ्ग को उत्पन्न न करने, और उत्पन्न हुई ऊर्जा संबोध्यङ्ग को घटाकर कम करने का आहार क्या है? ऊर्जा, प्रयास, और उद्यमशीलता का सामर्थ्य होता है — (लेकिन) उनका उचित चिंतन न करना (उन्हें नजरंदाज़ करना या ध्यान न देना)।

किन्तु, जो ऊर्जा, प्रयास, और उद्यमशीलता का सामर्थ्य होता है — उन पर उचित चिंतन करना (या ध्यान देना) आहार बनता है अनुत्पन्न ऊर्जा संबोध्यङ्ग उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई ऊर्जा संबोध्यङ्ग बढ़कर अत्याधिक करने का।”

प्रफुल्लता

“अनुत्पन्न प्रफुल्लता संबोध्यङ्ग को उत्पन्न न करने, और उत्पन्न हुई प्रफुल्लता संबोध्यङ्ग को घटाकर कम करने का आहार क्या है? कुछ ऐसे स्वभाव होते हैं, जो प्रफुल्लता संबोध्यङ्ग के पनपने का आधार बनते हैं — (लेकिन) उनका उचित चिंतन न करना (उन्हें नजरंदाज़ करना या ध्यान न देना)।

किन्तु, जो ऐसे स्वभाव हैं, जो प्रफुल्लता संबोध्यङ्ग के पनपने का आधार बनते हैं — उस पर उचित चिंतन करना (या ध्यान देना) आहार बनता है अनुत्पन्न प्रफुल्लता संबोध्यङ्ग उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई प्रफुल्लता संबोध्यङ्ग बढ़कर अत्याधिक करने का।”

प्रशान्ति

“अनुत्पन्न प्रशान्ति संबोध्यङ्ग को उत्पन्न न करने, और उत्पन्न हुई प्रशान्ति संबोध्यङ्ग को घटाकर कम करने का आहार क्या है? शारीरिक प्रशान्ति होती है, और मानसिक प्रशान्ति होती है — (लेकिन) उनका उचित चिंतन न करना (उन्हें नजरंदाज़ करना या ध्यान न देना)।

किन्तु, जो शारीरिक प्रशान्ति होती है, और मानसिक प्रशान्ति होती है — उस पर उचित चिंतन करना (या ध्यान देना) आहार बनता है अनुत्पन्न प्रशान्ति संबोध्यङ्ग उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई प्रशान्ति संबोध्यङ्ग बढ़कर अत्याधिक करने का।”

समाधि

“अनुत्पन्न समाधि संबोध्यङ्ग को उत्पन्न न करने, और उत्पन्न हुई समाधि संबोध्यङ्ग को घटाकर कम करने का आहार क्या है? निश्चलता के आलंबन (“समथ-निमित्त” = चित्त को अत्यंत शांत करने की संभावना) होते हैं, अ-व्याकुलता के आलंबन (“अब्यग्ग-निमित्त” = चित्त की व्याकुलता खत्म करने की संभावना) होते हैं — (लेकिन) उनका उचित चिंतन न करना (उन्हें नजरंदाज़ करना या ध्यान न देना)।

किन्तु, जो निश्चलता के आलंबन होते हैं, अ-व्याकुलता के आलंबन होते हैं — उस पर उचित चिंतन करना (या ध्यान देना) आहार बनता है अनुत्पन्न समाधि संबोध्यङ्ग उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई समाधि संबोध्यङ्ग बढ़कर अत्याधिक करने का।”

तटस्थता

“अनुत्पन्न तटस्थता संबोध्यङ्ग को उत्पन्न न करने, और उत्पन्न हुई तटस्थता संबोध्यङ्ग को घटाकर कम करने का आहार क्या है? कुछ ऐसे स्वभाव होते हैं, जो तटस्थता संबोध्यङ्ग के पनपने का आधार बनते हैं — (लेकिन) उनका उचित चिंतन न करना (उन्हें नजरंदाज़ करना या ध्यान न देना)।

किन्तु, जो ऐसे स्वभाव हैं, जो तटस्थता संबोध्यङ्ग के पनपने का आधार बनते हैं — उस पर उचित चिंतन करना (या ध्यान देना) आहार बनता है अनुत्पन्न तटस्थता संबोध्यङ्ग उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई तटस्थता संबोध्यङ्ग बढ़कर अत्याधिक करने का।”

— संयुत्तनिकाय ४६:५१ : आहार सुत्त


संबोध्यङ्ग का समग्र विकास

(१) “ऐसा होता है कि कोई भिक्षु दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाकर — काया को काया देखते हुए… संवेदना को संवेदना देखते हुए… चित्त को चित्त देखते हुए… स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है — तत्पर सचेत व स्मरणशील। उस अवसर पर उसकी स्मृति (स्मरणशीलता) स्थिर होती है, बिना भ्रंश हुए। जब उसकी स्मृति स्थिर होती है, बिना भ्रंश हुए, तब स्मृति संबोध्यङ्ग जागृत होता है। वह उसकी साधना करता है, और उसे विकसित कर परिपूर्ण करता है।

(२) इस तरह स्मृतिमान होकर वह स्वभाव की जाँच-पड़ताल करता है, उनका विश्लेषण करता है, और प्रज्ञा से उन्हें समझता है। जब वह इस तरह स्मृतिमान होकर स्वभाव की जाँच-पड़ताल करें, विश्लेषण करें, अन्तर्ज्ञान से उसे समझे, तब स्वभाव-विश्लेषण संबोध्यङ्ग जागृत होता है। वह उसकी साधना करता है, और उसे विकसित कर परिपूर्ण करता है।

(३) जो स्वभाव की जाँच-पड़ताल करें, विश्लेषण करें, अन्तर्ज्ञान से उसे समझे, उसमें ऊर्जा का संचार होता है। जब उसमें ऊर्जा का संचार हो, तब ऊर्जा संबोध्यङ्ग जागृत होता है। वह उसकी साधना करता है, और उसे विकसित कर परिपूर्ण करता है।

(४) जिस किसी की ऊर्जा जागृत होती हो, उसे निरामिष (आध्यात्मिक) प्रफुल्लता उत्पन्न होती है। जब ऊर्जा जागृत होने से निरामिष प्रफुल्लता उत्पन्न हो, तब प्रफुल्लता संबोध्यङ्ग जागृत होती है। वह उसकी साधना करता है, और उसे विकसित कर परिपूर्ण करता है।

(५) जो प्रफुल्लता से भर उठे, उसकी काया शान्त होने लगती है, और उसका चित्त शान्त होने लगता है। जब प्रफुल्लता से भर उठे भिक्षु की काया और चित्त शान्त हो, तब प्रशान्ति संबोध्यङ्ग जागृत होता है। वह उसकी साधना करता है, और उसे विकसित कर परिपूर्ण करता है।

(६) जो राहत से हो, जिसकी काया शान्त हो, उसका चित्त समाहित होने लगता है। जब राहत से होकर, काया शान्त होकर चित्त समाहित होने लगे, तब समाधि संबोध्यङ्ग जागृत होती है। वह उसकी साधना करता है, और उसे विकसित कर परिपूर्ण करता है।

(७) वह ऐसे समाहित चित्त का तटस्थतापूर्वक निरीक्षण करता है। जब वह ऐसे समाहित चित्त का निरीक्षण तटस्थतापूर्वक करें, तब तटस्थता संबोध्यङ्ग जागृत होती है। वह उसकी साधना करता है, और उसे विकसित कर परिपूर्ण करता है।

इस तरह जब चार स्मृतिप्रस्थान की साधना की जाए, उन्हें विकसित किया जाए, तब सात संबोध्यङ्ग परिपूर्णता की ओर जाते हैं।

और जब सात संबोध्यङ्ग की साधना की जाए, उन्हें विकसित किया जाए, तब विद्या और विमुक्ति परिपूर्णता की ओर जाते हैं। कैसे?

ऐसा होता है कि कोई भिक्षु स्मृति संबोध्यङ्ग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो। वह स्वभाव-विश्लेषण संबोध्यङ्ग… ऊर्जा संबोध्यङ्ग… प्रफुल्लता संबोध्यङ्ग… प्रशान्ति संबोध्यङ्ग… समाधि संबोध्यङ्ग… तटस्थता संबोध्यङ्ग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।

— इस तरह सात संबोध्यङ्ग की साधना की जाए, उन्हें विकसित किया जाए, तब विद्या और विमुक्ति परिपूर्णता की ओर जाते हैं।”

— संयुत्तनिकाय ५४:२


संबोध्यङ्ग में संतुलन

जब चित्त सुस्त हो, तब “प्रशान्ति, समाधि, और तटस्थता” संबोध्यङ्गो की साधना करने का गलत समय होता है। क्यों? क्योंकि कोई सुस्त चित्त उन [निष्क्रिय बनाते] स्वभावों से मुश्किल से ही उठेगा।

जैसे कोई पुरुष हो, जिसे किसी नन्ही-सी अग्नि को प्रज्वलित कर बड़ा करना हो — किंतु वह उस पर गीली घास, गीला गोबर, गीली लकड़ियां डाल देता है, उसे जल से सींच देता है, और उस पर धूल डाल कर बुझा देता है। तब क्या नन्ही-सी अग्नि प्रज्वलित होकर बड़ी होगी?”

“नहीं, भन्ते।”

“उसी तरह, जब चित्त सुस्त हो, तब “प्रशान्ति, समाधि और तटस्थता” संबोध्यङ्गो की साधना करने का गलत समय होता है। क्यों? क्योंकि कोई सुस्त चित्त उन [निष्क्रिय बनाते] स्वभावों से मुश्किल से ही उठेगा।

उस समय, “स्वभाव-विश्लेषण, ऊर्जा, और प्रफुल्लता” संबोध्यङ्ग की साधना करने का सही समय होता है। क्यों? क्योंकि कोई सुस्त चित्त उन [सक्रियता लाते] स्वभावों से आसानी से उठेगा।

जैसे कोई पुरुष हो, जिसे किसी नन्ही-सी अग्नि को प्रज्वलित कर बड़ा करना हो — वह उस पर सूखी घास, सूखा गोबर, सूखी लकड़ियां डालता है, उस पर मुँह से फूंक मारता है, धूल डाल कर बुझा नहीं देता। तब क्या नन्ही-सी अग्नि प्रज्वलित होकर बड़ी होगी?”

“हाँ, भन्ते।”

“उसी तरह, जब चित्त सुस्त हो, उस समय “स्वभाव-विश्लेषण, ऊर्जा और प्रफुल्लता” संबोध्यङ्ग की साधना करने का सही समय होता है। क्योंकि सुस्त चित्त उन [सक्रियता लाते] स्वभावों से आसानी से उठेगा।”


जब चित्त बेचैन हो, तब “स्वभाव-विश्लेषण, ऊर्जा, और प्रफुल्लता” संबोध्यङ्ग की साधना करने का गलत समय होता है। क्यों? क्योंकि कोई बेचैन चित्त उन [सक्रियता लाते] स्वभावों से मुश्किल से ही शांत होगा।

जैसे कोई पुरुष हो, जिसे बड़ी धधकती अग्नि को बुझाना हो — किंतु वह उस पर सूखी घास, सूखा गोबर, सूखी लकड़ियां डाल देता है, उसे मुँह से फूंक मारता है, लेकिन धूल डाल कर बुझा नहीं देता। तब, क्या वह बड़ी धधकती अग्नि बुझ पायेगी?”

“नहीं, भन्ते।”

“उसी तरह, जब चित्त बेचैन हो, तब “स्वभाव-विश्लेषण, ऊर्जा और प्रफुल्लता” संबोध्यङ्ग की साधना करने का गलत समय होता है। क्यों? क्योंकि कोई बेचैन चित्त उन [सक्रियता लाते] स्वभावों से मुश्किल से ही शांत होगा।

उस समय, “प्रशान्ति, समाधि, और तटस्थता संबोध्यङ्ग की साधना करने का सही समय होता है। क्यों? क्योंकि कोई बेचैन चित्त उन [निष्क्रिय बनाते] स्वभावों से आसानी से शांत होगा।

जैसे कोई पुरुष हो, जिसे बड़ी धधकती अग्नि को बुझाना हो — वह उस पर गीली घास, गीला गोबर, गीली लकड़ियां डाल देता है, उसे जल से सींच देता है, और उस पर धूल डाल कर बुझा देता है। तब क्या वह बड़ी धधकती अग्नि बुझ पायेगी?”

“हाँ, भन्ते।”

“उसी तरह, जब चित्त बेचैन हो, उस समय “प्रशान्ति, समाधि, और तटस्थता” संबोध्यङ्ग की साधना करने का सही समय होता है। क्योंकि कोई बेचैन चित्त उन [निष्क्रिय बनाते] स्वभावों से आसानी से शांत होगा।

और “स्मृति” संबोध्यङ्ग, मैं कहता हूँ, प्रत्येक अवसर पर लाभदायक ही होता है।”

— संयुत्तनिकाय ४६:५३


संबोधि-अंगों में जो भी,
चित्त को सही सुविकसित करे,
परित्याग कर आसक्तियों का,
अनासक्ति में जो रत रहे,
ज्योतिमान, क्षिणास्रव हो,
इसी लोक में परिनिर्वृत हो।

— धम्मपद ८९ : पण्डितवग्ग


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