नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

गोतम बुद्ध

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बुद्धत्व लाभ

जब बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम को मध्यम मार्ग का बोध हुआ और वे उसकी साधना में प्रवृत्त हुए, तभी मुक्ति के मार्ग में बाधा डालने वाला मार सत्व नमुची 1 उन्हें विचलित करने आया। इस संदर्भ में भगवान कहते हैं —

“मुझे निरंजरा नदी के समीप
योगबन्धन से राहत पाने के लिए,
उद्यम में दृढ़-निश्चयी होकर,
झान में विशेष पराक्रम करते हुए
देख कर नमुची आया,
और करुणाभरे शब्द कहने लगा —

“आप तो दुवर्ण और पतले हो गए!
आपकी मौत पास आ गयी!
एक हज़ार अंश में मौत,
जीवन एक अंश में रह गया!
अरे, जीवित बचिए, श्रीमान!
जीवन बेहतर है!
जीवित बचे तो पुण्य करोगे!
ब्रह्मचर्य पालन कर,
अग्नियज्ञ कर पुण्य-संचय होगा!
भला ऐसे उद्यम से क्या लाभ?
दुर्गम है यह उद्यमपथ! दुष्कर है!
कठिन है टिकना!”

— ये गाथाएँ कहते हुए
मार खड़ा हुआ भगवान के आगे।

भगवान ने उत्तर दिया उस मार को—

“मदहोशों के रिश्तेदार ("पमत्तबन्धु") पापी!
जिस भी ध्येय से आए यहाँ।
पुण्यों की रत्ती-भर जरूरत मुझे नहीं।
पुण्यों की जरूरत जिन्हें,
मार-उपदेश के लायक वहीं।

मुझ में है श्रद्धा!
तप, ऊर्जा, और अन्तर्ज्ञान!
जब इतना दृढ़ हूँ,
क्यों करते हो जीने की याचना?
[घोर प्रयत्न से उठा] यह वायु
जला दे नदी की भी धारा,
तब मेरा लहू क्यों न सूखेगा?

लहू जब सूखेगा,
पित्त और कफ तब सूखेगा।
जब मांसपेशियां क्षीण होते,
चित्त स्पष्ट तब होगा।
स्मृति, अन्तर्ज्ञान, समाधि
अधिकाधिक स्थिर होते।
ऐसी परम अनुभूति पाकर रहने से
कामुकता के प्रति चित्त निरस हो जाता है!
देखो, सत्व की शुद्धि!

कामराग तुम्हारी सेना पहली!
बोरियत ("अरति") — दूसरी!
भूख-प्यास — तीसरी,
और तृष्णा — चौथी!
सुस्ती और तंद्रा — पाँचवी,
डर — छठी!
उलझन-शंका — सातवीं!
ढ़ोंग और अकड़ूपन — आठवी!
लाभ, सत्कार, और कीर्ति — नौवीं!
मिथ्याप्राप्त प्रतिष्ठा — दसवीं!
करना आत्मप्रशंसा,
दूसरों को तुच्छ दिखाना — ग्यारहवीं!
— बस यही नमुची, तुम्हारी सेना!
कान्हा की लड़ाकू-सेना!
कायर उन्हें हरा न पाये,
परंतु हराने पश्चात ही कोई सुख पाये!

क्यों लादू यह मुंजघास?
थूकता हूँ अपने जीवन पर!
संग्राम में होगी मौत बेहतर,
बजाय मैं बचूं जीवित, हारकर!
यही डूबकर अनेक श्रमण ब्राह्मण
दिखाई नहीं देते आगे!
उस पथ को वे जानते नहीं,
जिसकी साधना करते चला जाता है!

वाहनसहित मार को सुसज्जित-सेना के साथ
घिरा देखकर मैं संग्राम में उतरता!
कहीं मुझे स्थान से च्युत न कर दे!
देव-मानव सहित संपूर्ण ब्रह्मांड
तुम्हारी जिस सेना से जीत न पाए,
मैं अन्तर्ज्ञान से उसे ऐसे तोड़ूंगा
— जैसे कच्चे घडे को पत्थर से!

अपने संकल्पों को वश में कर,
स्मृति सुप्रतिष्ठित कर
अनेक श्रावकों को सिखाता,
देश-देश घूमूँगा!
होशपूर्ण, दृढ़निश्चयी,
अनुशासन पूर्ण करनेवाले—
मेरे श्रावक, तुम्हारी इच्छा के बावजूद
वहाँ जाएंगे, जहाँ जाकर
दुबारा न होता शोक!”

(मार:)
“सात वर्षों तक भगवान का पीछा किया,
परंतु गौरवपूर्ण सम्बुद्ध का कोई
द्वार न खोल पाया!
चर्बी-वर्ण का देख पत्थर,
कौवा उसके चक्कर काटे—
[सोचते हुए] ‘मैंने ढूंढ लिया कुछ कोमल!
शायद है स्वादिष्ट!’
परंतु कोई स्वाद न पा, उड़ा कौवा!
टूट पड़ते उस पत्थर पर,
कौवे की तरह
थक गया मैं गोतम के साथ!”

शोकग्रस्त होने पर बगल से उसकी वीणा गिर पड़ी। तब वह हताश यक्ष वहीं विलुप्त हो गया।”

— सुत्तनिपात ३:२ : पधानसुत्त


“अंततः मैंने कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।…

सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।…

प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।…

सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।

जब मेरा चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो गया, तब मैंने उस चित्त को पूर्वजन्म स्मरण करने की ओर झुकाया। तब मुझे अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण हुए — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त (=ब्रह्मांडिय सिकुड़न), कई कल्पों का लोक-विवर्त (=ब्रह्मांडिय विस्तार), कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह मैंने अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण किए।

मुझे इस प्रथम-ज्ञान का साक्षात्कार रात के प्रथम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।

तब मैंने अपने समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाया। तब मुझे अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखा। और मुझे पता चला कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह, मैंने अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखा।

मुझे इस द्वितीय-ज्ञान का साक्षात्कार रात के मध्यम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।

तब मैंने अपने समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाया। तब ‘दुःख’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘दुःख की उत्पत्ति’, मुझे यथास्वरूप पता चली। ‘दुःख का निरोध’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘दुःख का निरोधकर्ता मार्ग’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘आस्रव’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘आस्रव की उत्पत्ति’, मुझे यथास्वरूप पता चली। ‘आस्रव का निरोध’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘आस्रव का निरोधकर्ता मार्ग’, मुझे यथास्वरूप पता चला। इस तरह जानने से, देखने से, मेरा चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हुआ, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हुआ, अविद्या-आस्रव से विमुक्त हुआ। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न हुआ, ‘विमुक्त हुआ!’ मुझे पता चला, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’

मुझे इस तृतीय-ज्ञान का साक्षात्कार रात के अंतिम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है। किन्तु, इस तरह उत्पन्न सुखद संवेदना मेरे मन को अभिभूत कर के नहीं रह सकी।”

— मज्झिमनिकाय ३६ : पासरासि सुत्त


“और, जब तथागत को अनुत्तर ‘सम्यक-संबोधि’ प्राप्त होती है, तब पृथ्वी कंपित होती है, प्रकंपित होती है, थरथराती है।”

— दीघनिकाय १६ : महापरिनिब्बान सुत्त

और इस तरह, बोधिसत्व की सम्यक मेहनत रंग लाई और उन्होंने सम्यक-संबोधि प्राप्त की। तब, ‘भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ के मुख से यह बोल फूट पड़े —

“अनेक जन्म भटकता रहा,
बिना ईनाम के, न आराम के,
घर बनाने वाले की खोज में,
बार-बार दुःखों में जन्म हुआ!

घर बनाने वाले,
अब तुम्हें देख लिया गया!
अब तुम दुबारा घर
नहीं बना पाओगे!
सारी कड़ियाँ तोड़,
शिखर को ध्वस्त किया,
चित्त डुबाया विखंडन में,
तृष्णा का अन्त किया।”

— खुद्दकनिकाय धम्मपद : जरावग्ग : १५३ + १५४

आईए, अब अंतिम कड़ी में जानते हैं कि बोधि प्राप्त करने पर सिद्धार्थ गौतम ने क्या किया।

संबोधि के पश्चात »


  1. मार का सरल अर्थ है, वह “जो अंततः मृत्यु का कारण बनता है” अथवा “जो अमृत धर्म (निर्वाण) से वंचित रखता है।”

    प्राचीन सुत्तों में पाँच प्रकार के मार बताए गए हैं:

    • किलेस मार – लोभ, द्वेष, मोह जैसे मानसिक क्लेश, जो व्यक्ति के चित्त को मलिन कर देते हैं और आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालते हैं।
    • अभिसंङ्खार मार – पुराने संस्कारों का प्रभाव, जो पुनर्जन्म के चक्र में बांधता है और जन्म-मरण की निरंतरता बनाए रखता है।
    • खन्द मार – पाँच स्कंध [रूप, संवेदना, नजरिया, रचना, और चैतन्य], जो आसक्ति पैदा करते हैं और स्थिरता का मिथ्या बोध देते हैं।
    • मरण मार – मृत्यु, जो जीवन के सभी अनुभवों और अर्जित उपलब्धियों को समाप्त कर देती है, जिससे व्यक्ति फिर से पुनर्जन्म के चक्र में प्रवेश करता है।
    • देवपुत्र मार – यह एक देवलोक में प्राप्त होने वाला पद है, जो उस पुण्यशाली यक्ष को मिलता है, जिसे कुछ विशेष महाऋद्धियां प्राप्त होती हैं। जिनसे वह तमाम सत्वों का मन पढ़कर उनकी निजी कमज़ोरियां जान लेता है। वह मन में विचार डालकर या शरीर में विशेष आस्रव ऊर्जा प्रवाहित कर, किसी को भी प्रेरित, प्रभावित तथा नियंत्रित कर सकता है। ऐसी महाशक्ति प्राप्त कर उसका चित्त दूषित हो जाता है, तथा उसे सत्ता की हवस जागती है। तब वह राजद्रोह कर अपनी शैतानी गैंग बनाता है, और ऐश्वर्यशाली महाब्रह्म के समानांतर अपनी काली सत्ता चलाने लगता है।

    मार का उद्देश्य है, सभी को इस संसार में बांधकर रखना। क्योंकि सभी यदि मुक्त होने लगे, तो वह सत्ता किस पर चलाएगा? इसलिए वह सभी सत्वों के विराग धर्ममार्ग में बाधा उत्पन्न करता है, तथा उन्हें फुसलाकर पुनः हिंसा तथा वासना के मिथ्याधर्म में प्रतिष्ठित करता है। कहते हैं कि मार का सूक्ष्म वश महाब्रह्म तक नहीं पहचान पाते। किंतु वह बुद्ध की आँखों से नहीं बच पाता। भगवान बुद्ध उस कृष्णप्रवृत्ति के मार को “कान्हा” अर्थात् काला भी पुकारते हैं। और कभी-कभी उसे उसके असली नाम नमुची से भी पुकारते हैं। ↩︎