युवावस्था में राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह 1 हुआ। कुछ वर्षों के बाद उनके घर एक पुत्र का जन्म हुआ — जिसका नाम राहुल रखा गया।
उनका पारिवारिक जीवन सभी सांसारिक सुखों और वैभव से परिपूर्ण था, परंतु यह संसारिक जीवन सिद्धार्थ को संतोष नहीं दे सका। ऐसा प्रतीत होता है मानो पिछले जन्मों का संचित ज्ञान और अंतर्ज्ञान धीरे-धीरे जाग्रत हो रहा था। जीवन की गहराइयों में छिपी अस्थिरता, पीड़ा और परिवर्तनशीलता की सच्चाइयाँ उन्हें स्पष्ट दिखने लगीं।
भगवान ने जब स्वयं अपने मुख से उसका वर्णन किया, तो वह कुछ इस प्रकार था —
“मैं सुखों में पलता था; परमसुखों में पलता था; अत्यंत सुखों में पलता था। पिता ने मेरे महलों के आगे तीन पुष्करणीयाँ (=कमलपुष्पों से भरे तालाब) बनवाई थी — एक में रक्तकमल, एक में श्वेतकमल, और एक में नीलकमल ख़िलते थे।
मैं ऐसा चंदन (गन्धस्वरूप) उपयोग न करता, जो बनारसी न हो। मेरी पगड़ी व कुर्ता बनारसी होता; बल्कि मेरा अंतर्वस्त्र व बाह्यवस्त्र भी बनारस से लाया जाता। मेरे ऊपर एक सफ़ेद राजसी-छाता दिन-रात ताना जाता, ताकि मुझे ठंडी, धूप, धूल, मल, या ओस न लगे।
मेरे लिए तीन महल बने थे — एक शीतकाल के लिए; एक ग्रीष्मकाल के लिए; और एक वर्षाकाल के लिए। वर्षाकाल के चारों महीने वर्षामहल में रहते हुए, मुझे गायकी-नर्तकियों द्वारा बहलाया जाता, बिना अन्य पुरुष की उपस्थिति के। मुझे महल से नीचे एक बार भी उतरना न पड़ता। जहाँ अन्य घरों में श्रमिक और नौकरों को टूटा-चावल और दाल परोसी जाती, वही मेरे पिता के महल में उन्हें गेंहू, चावल, और मांस खिलाया जाता।
• इस तरह भाग्यशाली, अत्यंत सुखसंपन्न होने पर भी, मैंने सोचा, ‘कभी धर्म न सुना आम आदमी, स्वयं जीर्ण-धर्म से घिरा, जीर्ण-धर्म न लाँघा—जब किसी बूढ़े को देखें, तो खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करता है, भूलते हुए कि वह स्वयं बुढ़ापे से नहीं छूटा, बुढ़ापे के परे नही गया। यदि मैं भी जीर्ण-धर्म से घिरा, जीर्ण-धर्म न लाँघा, किसी बूढ़े को देख खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करूँ, तो मेरे लिए उचित नही होगा।’
— जैसे ही मैंने यह समीक्षा की, मेरा ‘यौवन’ का सारा नशा उतर गया।
• इस तरह भाग्यशाली, अत्यंत सुखसंपन्न होने पर भी, मैंने सोचा, ‘कभी धर्म न सुना आम आदमी, स्वयं रोग-धर्म से घिरा, रोग-धर्म न लाँघा—जब किसी रोगी को देखें, तो खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करता है, भूलते हुए कि वह स्वयं रोग से नहीं छूटा, रोग के परे नही गया। यदि मैं भी रोग-धर्म से घिरा, रोग-धर्म न लाँघा, किसी रोगी को देख खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करूँ, तो मेरे लिए उचित नही होगा।’
— जैसे ही मैंने यह समीक्षा की, मेरा ‘आरोग्य’ का सारा नशा उतर गया।
• इस तरह भाग्यशाली, अत्यंत सुखसंपन्न होने पर भी, मैंने सोचा, ‘कभी धर्म न सुना आम आदमी, स्वयं मरण-धर्म से घिरा, मरण-धर्म न लाँघा—जब किसी मृत को देखें तो खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करता है, भूलते हुए कि वह स्वयं मौत से नहीं छूटा, मौत के परे नही गया। यदि मैं भी मरण-धर्म से घिरा, मरण-धर्म न लाँघा, किसी मृत को देख खौफ़, लज्जा, और घिन महसूस करूँ, तो मेरे लिए उचित नही होगा।’
— जैसे ही मैंने यह समीक्षा की, मेरा ‘जीवन’ का सारा नशा उतर गया।” 2
— अंगुत्तरनिकाय ३:३६ : देवदूत सुत्त
इस तरह, सिद्धार्थ की एक समीक्षा से जीवन की गहरी परतें खुलने लगतीं। उनका तीक्ष्ण चित्त उम्र के साथ-साथ ऐसी बातों का बोध करने लगा, जो साधारण नहीं थी।
तब, उनके भीतर परम सत्य की खोज की प्रबल आकांक्षा जागृत हुई, जबकि संसार की संग्रह-वृत्ति और भोग-लालसा उन्हें निराश करने लगी। समाज उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो एक सूखते हुए जलाशय में मछलियाँ अपनी अंतिम साँस के लिए संघर्ष कर रही हों। इसी गहन बोध ने उनके भीतर वैराग्य और संवेग की चिंगारी जला दी —
"मैं बताता हूँ कैसे,
जागा संवेग मुझे।
छटपटाती दिखी जनता,
गड्ढे में मछलियों जैसे।
— विरुद्ध एक-दूसरे के,
देख भय लगा मुझे।
सारहीन पूर्णतः दुनिया,
दिशाएँ बिखरी ऐसे-तैसे।
इच्छा करते भवन की,
न मिला कुछ बिना पूर्वदावेदारी के।
न दिखा कुछ, बजाय स्पर्धा,
असंतुष्टि महसूस की मैंने।
अंततः दिखा मुझे—एक तीर,
जिसके दर्शन दुर्लभ बड़े।
हृदय बसते उस तीर से वशीभूत,
सभी दिशाएँ आप भागते।
किंतु खिंच तीर बाहर,
आप न भागते, न ही डूबते।”— सुत्तनिपात ४:१५ : अत्तदण्डसुत्त
बोधिसत्व के जीवन की दिशा और ध्येय, इस सामान्य-से लगते तर्क से पूरी तरह उलट गया —
“जब मैं संबोधिपूर्व केवल एक बोधिसत्व था—जन्म, रोग, बुढ़ापा, मौत, शोक, और क्लेश से घिरा—मैं (उसमें सुख) खोजता था, जो जन्म, रोग, बुढ़ापा, मौत, शोक, और क्लेश से ही घिरा था।
तो मैंने सोचा, ‘मैं उसे क्यों खोजूँ, जो जन्म, रोग, बुढ़ापा, मौत, शोक, और क्लेश से ही घिरा हो? क्यों न मैं खोज करूँ — अजन्म, अरोग, अजीर्ण, अमृत, अशोक, अक्लेश, योगबन्धन से सर्वोपरि राहत, निर्वाण की?” 3
— मज्झिमनिकाय २६ : पासरासि सुत्त
और तब, राजकुमार सिद्धार्थ ने २९ वर्ष की आयु में अपना सर्वस्व त्याग कर, अमृत की खोज में निकल पड़े। इस घटना को महाभिनिष्क्रमण कहते हैं —
“मुझे लगने लगा, ‘गृहस्थी-जीवन बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु संन्यास, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
तत्पश्चात मैं युवा ही था—काले केशवाला, जीवन के प्रथम चरण में, यौवन वरदान से युक्त—तब मैंने माता-पिता के इच्छाविरुद्ध, उन्हें आँसूभरे चेहरे से बिलखते छोड़, 4 सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो संन्यास लिया।”
— मज्झिमनिकाय ३६ : महासच्चक सुत्त
आईए, अब हम राजकुमार सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण — उस निर्णायक क्षण — की ओर बढ़ते हैं, जब एक युवा राजकुमार ने सांसारिक सुखों, प्रेम संबंधों और पारिवारिक उत्तरदायित्वों को त्यागकर, परम सत्य की खोज में अपने कदम बढ़ाए। एक ऐसी खोज, जहाँ दुःख का समूल अंत हो — और जहाँ मुक्ति, शांति और निर्वाण की अनुभूति हो सके।
यह उल्लेखनीय है कि राजकुमार सिद्धार्थ की पत्नी का नाम प्राचीन बौद्ध साहित्य में स्पष्ट रूप से नहीं मिलता। जहाँ-जहाँ उनका उल्लेख आता है, वहाँ उन्हें केवल राहुलमाता कहा गया है। बाद की अट्ठकथाओं में इस रिक्ति को भरते हुए उन्हें यशोधरा नाम से पहचाना गया है। यशोधरा कोलिय वंश के राजा सुप्पबुद्ध की कन्या थीं, और उनके भाई देवदत्त थे। यह भी उल्लेखनीय है कि सिद्धार्थ की माता महामाया और मौसी महापजापति भी कोलिय वंश से ही थीं — शाक्य और कोलिय वंशों के मध्य राजविवाह की परंपरा सामान्य मानी जाती थी। ↩︎
प्रचलित कथाओं के अनुसार, राजा शुद्धोधन ने बोधिसत्व को जीवन की सभी दुखद सच्चाइयों से दूर रखा था। ऐसा कहा जाता है कि २८ वर्ष की आयु तक बोधिसत्व ने न कभी किसी रोगी, न वृद्ध, न मृत व्यक्ति, और न ही भिक्षुक को देखा था। और एक दिन, रथ यात्रा के दौरान उन्होंने ये चार दृश्य देखे। किन्तु, इस सूत्र से प्रतीत होता है कि शायद यह कथा पूरी तरह से सही न हो। क्योंकि भगवान बुद्ध इस सूत्र में एक अलग चित्रण करते हैं — वे साधारण लोगों को ‘खौफ, लज्जा और घृणा’ से भरते देखते हैं और अपने भीतर गहन चिंतन-मनन करते हैं, जिससे उनका यौवन, चंगाई और जीवन से मोहभंग होता है, और उनका हृदय संवेग की ओर झुकता है। ↩︎
पिछली शताब्दी के ग्रंथों, विशेषतः डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की १९५६ की प्रतिष्ठित पुस्तक “बुद्ध और उनका धम्म” में यह उल्लेख मिलता है कि शाक्यों और कोलियों के बीच रोहिणी नदी को लेकर हुआ विवाद युद्ध की स्थिति तक पहुँच गया था, और इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप सिद्धार्थ ने गृहत्याग का निर्णय लिया। डॉ. आंबेडकर इस संदर्भ में यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि यह कथा, साथ ही तथागत द्वारा चार निमित्त—वृद्ध, रोगी, मृतक और भिक्षुक—देखने की घटना “तार्किक” प्रतीत नहीं होती।
वास्तव में, ये चार दृश्य प्राचीन पालि साहित्य (EBT) में सिद्धार्थ के जीवन प्रसंग में वर्णित नहीं मिलते। ऐसा माना जाता है कि इन दृश्यों की कथा सैकड़ों वर्षों बाद रचित अट्ठकथाओं में जोड़ी गई थी, जहाँ इसे एक नाटकीय और प्रतीकात्मक कथा रूप में प्रस्तुत किया गया।
यह ध्यान देने योग्य है कि पूर्वबुद्ध भगवान विपस्सी के संदर्भ में, इन चार दृश्यों को देखकर गृहत्याग करने का स्पष्ट विवरण दीघनिकाय १४, महापदान सुत्त में अवश्य प्राप्त होता है। किंतु, अट्ठकथाओं ने इस एक संदर्भ को सामान्यीकृत कर दिया और इसे खींचकर सभी बुद्धों के महाभिनिष्क्रमण का अनिवार्य कारण घोषित कर दिया।
इसी प्रकार, रोहिणी नदी विवाद का उल्लेख भी कहीं नहीं मिलता, न प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों (EBT) में, न संपूर्ण पालि त्रिपिटक में, न संस्कृत-चीनी महायान ग्रंथों में ही। डॉ. आंबेडकर ने स्वयं कहा है कि रोहिणी विवाद का विचार मात्र उनकी कल्पना या अनुमान था, जिसे कथा के रूप में प्रस्तुत किया गया।
प्राचीन पालि सूत्रों से यह स्पष्ट होता है कि भगवान बुद्ध ने अपने गृहत्याग का असली कारण आंतरिक संवेग और निर्वाण की खोज बताया है। अतः बुद्ध की स्वघोषित आत्मकथा को समझते हुए किसी अन्य काल्पनिक कारण की तलाश करने की आवश्यकता नहीं दिखती। इसी सोच से, बुद्ध से पूर्व और पश्चात भी कई भारतीय संवेग जागने के आधार पर संन्यास ग्रहण करते रहे हैं। ↩︎
प्रचलित कथाओं में यह वर्णन मिलता है कि बोधिसत्त्व ने एक रात चुपचाप, बिना किसी को सूचित किए, गृहत्याग किया था। किंतु, प्रारंभिक पालि सूत्रों (EBT) में स्वयं भगवान बुद्ध यह बताते हैं कि उन्होंने अपने माता-पिता को अश्रुपूरित नेत्रों और करुण विलाप के बीच छोड़ा। यह एक ऐसी घटना प्रतीत होती है जो संभवतः सबके सामने घटी हो। इससे यह संकेत मिलता है कि उनका गृहत्याग कोई गुप्त या रहस्यमय पलायन नहीं था, बल्कि एक गहन और सार्वजनिक संवेग से प्रेरित निर्णय था — जिसे उनके परिवार ने प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया। ↩︎