नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

शुरुवात कैसे करें?

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उदार जीवन की शुरुवात

सांसारिक जीवन में जमापूँजी करते हुए व्यक्ति का लालच और स्वार्थ बढ़ना स्वाभाविक है। लालच और स्वार्थ के मारे व्यक्ति जीवन के अंतिम सत्यों को नकारने लगता है, और धर्म से दूर होकर दुःख उत्पन्न करने लगता है।

इस अकुशल धर्म को काटने के लिए भगवान बुद्ध त्याग धर्म की आवश्यकता रेखांकित करते हैं —

“वह घर रहते हुए दानी होता है — कंजूसी के मल से छूटा, साफ़ चित्त का, मुक्त त्यागी, खुले हृदय का, उदारता में रत होता, याचनाओं का पूर्णकर्ता, दान-संविभाग में रत रहता है।”

जीवन में अपनी कमायी हुई वस्तु का उपभोग करने का एक सुख है। लेकिन उसे स्वेच्छा से त्याग देने का सुख, हमेशा उससे सोलह गुना बड़ा होता है।

अपने उपभोग को पराए के लिए त्यागना दान कहलाता है। जबकि अपने उपभोग का हिस्सा करके औरों के साथ बाँटना संविभाग। इस दान और संविभाग से हमारा हृदय खुलकर विशाल हो जाता है। स्वार्थ के बजाय हमारा ध्यान दूसरों की जरूरतों पर आने लगता है। उनका तात्कालिक कल्याण करने के साथ हमारा परमार्थ कल्याण होता है।

दान के कुछ मामूली पुरस्कार इसी जीवन में दिखायी देते हैं, जैसे दानी व्यक्ति को हर जगह पसंद किया जाता है, सम्मानित किया जाता है। लोग उसकी पीठ-पीछे प्रशंसा करते हैं और उसकी किर्ति दूर-दूर तक फैलती है। उसे संतोष और राहत मिलती है, आत्मविश्वास बढ़ता है, और उसका मन स्वच्छ और स्वस्थ रहता है। दान से पापी वृत्तियों में जकड़ा हुआ व्यक्ति भी पुण्य धर्म में प्रवेश करता है। लेकिन दान के असली पुरस्कार, दरअसल, अगले जीवन में मिलना प्रारंभ होते हैं।

दान और संविभाग अनेक तरह से किया जाता है — अपने आमिष (=वस्तु या रुपए) का, सेवा (=समय और ऊर्जा) का, अपने अंगों का (=रक्तदान, किडनीदान इत्यादि, या मरणोपरांत आँखें, हृदय या पूर्ण शरीर दान), और धर्म का।

जब दान निस्वार्थ भाव से, शुद्ध और जागरूक मन से किया जाए, तो उसके फलों की मिठास, व्यापकता और भव्यता भी उतनी ही बढ़ने लगती है। इसलिए बौद्ध उपासक या उपासिका भी दान करने की कला सीखते हैं, उसमें निपुणता और कुशलता लाते हैं, और विश्व में बढ़-चढ़कर सुख और खुशियाँ फैलाते हैं।

अधिक जानने के लिए पुण्य पुस्तक का दान अध्याय पढ़ें!


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