“ये पाँच-धातुएँ होती हैं। कौन-सी पाँच?
ये पृथ्वीधातु क्या है?
पृथ्वीधातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
भीतरी पृथ्वीधातु क्या है?
जो कुछ शरीर में भीतर कठोर है, ठोस है, [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे — केश, लोम, नाख़ून, दाँत, त्वचा, मांस, नसें, हड्डी, हड्डीमज्जा, तिल्ली, हृदय, कलेजा, झिल्ली, गुर्दा, फेफड़ा, क्लोमक, आँत, छोटी-आँत, उदर, टट्टी—या [अन्य] जो कुछ भीतर कठोर, ठोस और आधारित है, उसे भीतरी पृथ्वीधातु कहते है।
अब भीतरी पृथ्वीधातु और बाहरी पृथ्वीधातु केवल ‘पृथ्वीधातु’ ही है, जिसे जैसी हो वैसे (“यथाभूत”) सही पता करके देखना है कि यह — ‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
एक समय आता है, जब बाहरी जलधातु कुपित होती है [=बाढ़, सुनामी, महाप्रलय, कल्पान्त]। तब बाहरी पृथ्वीधातु विलुप्त हो जाती है। जब इतनी विशाल बाहरी पृथ्वीधातु की भी अनित्यता दिख पड़ती है, विनाश-स्वभाव दिख पड़ता है, पतन-स्वभाव दिख पड़ता है, बदलाव-स्वभाव दिख पड़ता है, तो इस अल्पकालिक काया का कहना ही क्या, जो तृष्णा पर आधारित है? क्या ‘मै’ ‘मेरा’ ‘मैं यह’ उसका होता भी है? यहाँ तो उसका कुछ नहीं है!
जब कोई पृथ्वीधातु जैसी हो, वैसी सही पता करके देखता है, तो उसका पृथ्वीधातु से मोहभंग होता है। अपने चित्त को वह पृथ्वीधातु से विरक्त करता है।
ये जलधातु क्या है?
जलधातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
भीतरी जलधातु क्या है?
जो कुछ भीतर शरीर में जल, तरल और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे — पित्त, कफ, पीब, रक्त, पसीना, चर्बी, आँसू, तेल, थूक, बलगम, जोड़ों में तरल, मूत्र — या [अन्य] जो कुछ भीतर जल, तरल और आधारित है, उसे भीतरी जलधातु कहते है।
अब भीतरी जलधातु और बाहरी जलधातु केवल ‘जलधातु’ ही है जिसे, जैसी हो, वैसी सही पता करके देखना है कि यह—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
एक समय आता है, जब बाहरी जलधातु कुपित होती है। तब वह गाँव नगर शहर राज्य और देश बहा ले जाती है।
या एक समय ऐसा आता है, जब महासागरों का जल केवल सात सौ-योजन… छह सौ… पाँच सौ… चार सौ… तीन सौ… दो सौ… केवल एक सौ योजन ही रह जाता है।
एक समय आता है, जब महासागरों का जल केवल सात ताड़-वृक्षों तक गहरा… छह… पाँच… चार… तीन… दो… एक ताड़-वृक्ष तक गहरा ही रह जाता है।
एक समय आता है, जब महासागरों का जल केवल सात पुरुष-लंबाई तक गहरा… छह… पाँच… चार… तीन… दो… एक पुरुष-लंबाई तक गहरा ही रह जाता है।
एक समय आता है, जब महासागरों का जल अर्ध पुरुष-लंबाई तक गहरा… कमर तक… घुटने तक… मात्र टखने तक ही रह जाता है।
और एक समय आता है, जब महासागरों का जल इतना भी गहरा नहीं बचता कि पैर की उँगली का जोड़ भिगो सके।
जब इतनी विशाल बाहरी जलधातु की भी अनित्यता दिख पड़ती है, विनाश-स्वभाव दिख पड़ता है, पतन-स्वभाव दिख पड़ता है, बदलाव-स्वभाव दिख पड़ता है, तो इस अल्पकालिक काया का कहना ही क्या, जो तृष्णा पर आधारित है? क्या ‘मै’ ‘मेरा’ ‘मैं यह’ उसका होता भी है? यहाँ तो उसका कुछ नहीं है!
जब कोई जलधातु जैसी हो, वैसी सही पता करके देखता है, तो उसका जलधातु से मोहभंग होता है। अपने चित्त को वह जलधातु से विरक्त करता है।
ये अग्निधातु क्या है?
अग्निधातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
भीतरी अग्निधातु क्या है?
जो कुछ भीतर शरीर में ज्वलनशील, गर्म और [तृष्णा पर] आधारित है, जिससे शरीर गर्म रहता है, जीर्ण होता है, तपता है, और जिसके द्वारा खाए पीए चबाए व निगले का पाचन होता है—या [अन्य] जो कुछ भीतर ज्वलनशील, गर्म और आधारित है, उसे भीतरी अग्निधातु कहते है।
अब भीतरी अग्निधातु और बाहरी अग्निधातु केवल ‘अग्निधातु’ ही है, जिसे जैसी हो, वैसी सही पता करके देखना है कि यह—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
एक समय आता है, जब बाहरी अग्निधातु कुपित होती है। तब वह गाँव नगर शहर राज्य और देश जलाकर भस्म कर देती है। और अंततः किसी हरेभरे नगर के छोर पर आकर, या मार्ग के किनारे आकर, या पथरीले नगर के किनारे आकर, या जलाशय के किनारे आकर, या हरियाली के किनारे आकर, या जल भरे क्षेत्र में आकर आहार न पाकर बुझ जाती है।
और एक समय [ऐसा भी] आता है, जब लोग मुर्गे के पँख और चमड़े के छिलके से अग्नि जलाने की चेष्ठा करते है।
जब इतनी विशाल बाहरी अग्निधातु की भी अनित्यता दिख पड़ती है, विनाश-स्वभाव दिख पड़ता है, पतन-स्वभाव दिख पड़ता है, बदलाव-स्वभाव दिख पड़ता है, तो इस अल्पकालिक काया का कहना ही क्या, जो तृष्णा पर आधारित है। क्या ‘मै’ ‘मेरा’ ‘मैं यह’ उसका होता भी है? यहाँ तो उसका कुछ नहीं है!
जब कोई अग्निधातु जैसी हो, वैसी सही पता करके देखता है, तो उसका अग्निधातु से मोहभंग होता है। अपने चित्त को वह अग्निधातु से विरक्त करता है।
ये वायुधातु क्या है?
वायुधातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
भीतरी वायुधातु क्या है?
जो कुछ भीतर शरीर में वायु, पवन और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे—ऊपर उठती वायु, नीचे गिरती वायु, पेट में वायु, आँत में वायु, शरीर में सर्वत्र घूमती वायु, आती जाती साँस (“आनापान”) — या जो कुछ भी भीतर वायु, पवन और आधारित है, उसे भीतरी वायुधातु कहते है।
अब भीतरी वायुधातु और बाहरी वायुधातु केवल ‘वायुधातु’ ही है, जिसे जैसी हो, वैसी सही पता करके देखना है कि यह—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
एक समय आता है, जब बाहरी वायुधातु कुपित होती है। तब वह गाँव नगर शहर राज्य और देश उड़ा ले जाती है।
और एक समय [ऐसा भी] आता है, जब ग्रीष्मकाल के अंतिम महीने में लोग पँखे या धौंकनी से हवा झलते है। तब छत की खर-पतवार तक नहीं हिलती।
जब इतनी विशाल बाहरी वायुधातु की भी अनित्यता दिख पड़ती है, विनाश-स्वभाव दिख पड़ता है, पतन-स्वभाव दिख पड़ता है, बदलाव-स्वभाव दिख पड़ता है, तो इस अल्पकालिक काया का कहना ही क्या, जो तृष्णा पर आधारित है? क्या ‘मै’ ‘मेरा’ ‘मैं यह’ उसका होता भी है? यहाँ तो उसका कुछ नहीं है!
जब कोई वायुधातु जैसी हो, वैसी सही पता करके देखता है, तो उसका वायुधातु से मोहभंग होता है। अपने चित्त को वह वायुधातु से विरक्त करता है।
ये आकाशधातु क्या है?
आकाशधातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
भीतरी आकाशधातु क्या है?
जो कुछ भीतर शरीर में ख़ाली, रिक्त जगह, और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे—कर्णछिद्र, नासिकाछिद्र, मुखद्वार, और वह [रास्ता] जिससे खाया पिया चबाया आस्वादित निगला जाता है, और जहाँ [उदर में] वह इकट्ठा होता है, और जहाँ नीचे से वह मल त्यागा जाता है—या [अन्य] जो कुछ भीतर शरीर में ख़ाली, रिक्त जगह और आधारित है, उसे भीतरी आकाशधातु कहते है।
अब भीतरी आकाशधातु और बाहरी आकाशधातु केवल ‘आकाशधातु’ ही है, जिसे जैसी हो, वैसी सही पता करके देखना है कि यह—‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
जब इतनी विशाल बाहरी धातुओं की भी अनित्यता दिख पड़ती है, विनाश-स्वभाव दिख पड़ता है, पतन-स्वभाव दिख पड़ता है, बदलाव-स्वभाव दिख पड़ता है, तो इस अल्पकालिक काया का कहना ही क्या, जो तृष्णा पर आधारित है? क्या ‘मै’ ‘मेरा’ ‘मैं यह’ उसका होता भी है? यहाँ तो उसका कुछ नहीं है!
जब कोई आकाशधातु जैसी हो, वैसी सही पता करके देखता है, तो उसका आकाशधातु से मोहभंग होता है। अपने चित्त को वह आकाशधातु से विरक्त करता है।”
— मज्झिमनिकाय ६२ + २८