भगवान ने साधकों के लिए कुल चार “पटिपदा” — या साधना मार्ग — बताए, जिन्हें मूलतः दो मुख्य मार्गों में संक्षेपित किया जा सकता है। किस शिष्य को कौन-सा मार्ग अपनाना चाहिए, यह उसकी व्यक्तिगत प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है।
उदाहरण के लिए, कुछ साधक शांत प्रकृति के होते हैं — जिनमें क्रोध, आवेग या भ्रम जैसी प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से नियंत्रण में होती हैं। ऐसे अनेक साधक सीधे साँस पर ध्यान केंद्रित कर सहज रूप से समाधि प्राप्त कर लेते हैं। समाधि की स्थिति में पहुँचने के बाद, उनके भीतर के विकार क्रमशः क्षीण होने लगते हैं, और वे सहज रूप से मुक्ति-पथ पर अग्रसर हो जाते हैं।
ऐसे साधकों के बारे में भगवान कहते हैं —
“कोई व्यक्ति सामान्यतः तीव्र रागपूर्ण… द्वेषपूर्ण… या मोहपूर्ण स्वभाव का नहीं होता, और न ही वह निरंतर राग/द्वेष/मोह से उत्पन्न दर्द-परेशानी को महसूस करता है। तब वह —
- कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहें
- आगे सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहें
- आगे प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करना। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहें
- और आगे, सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहें।
— अंगुत्तरनिकाय ४:१६२ : पटिपदावग्ग : वित्थार सुत्त
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दूसरी ओर, कुछ साधक स्वभाव से उग्र होते हैं — जिनमें क्रोध, आवेग, या भ्रम जैसी प्रवृत्तियाँ तीव्र होती हैं। उनका चित्त अस्थिर होता है और वे अपने विकारों पर सहज नियंत्रण नहीं रख पाते। ऐसे साधकों के लिए सीधे साँस पर ध्यान लगाकर समाधि प्राप्त कर पाना कठिन होता है। ऐसे में, उनके लिए उपयुक्त मार्ग है — “दुक्खा पटिपदा”, यानी कठिन साधना पथ, जो उन्हें मोक्ष की ओर ले जा सकता है।
ऐसे साधकों के विषय में भगवान कहते हैं —
“कोई व्यक्ति सामान्यतः तीव्र रागपूर्ण… द्वेषपूर्ण… या मोहपूर्ण स्वभाव का होता है, और वह निरंतर राग/द्वेष/मोह से उत्पन्न दर्द-परेशानी को महसूस करता है। तब वह —
- (“असुभानुपस्सी काये विहरति”) काया का अनाकर्षक-पहलु देखते हुए विहार करें
- (“आहारे पटिकूलसञ्ञी”) आहार के प्रति प्रतिकूल नजरिया रखें
- (“सब्बलोके अनभिरतिसञ्ञी”) सभी लोक के प्रति निरस नजरिया रखें
- (“सब्बसङखारेसु अनिच्चानुपस्सी”) सभी रचनाओं का अनित्य-पहलू देखते हुए विहार करें
- (“मरणसञ्ञा”) मौत के नजरिए में भलीभांति प्रतिष्ठित हों।”
— अंगुत्तरनिकाय ४:१६२ : पटिपदावग्ग : वित्थार सुत्त
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