नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

अकुशल

कामेच्छा | दुर्भावना | सुस्ती-तंद्रा | बेचैनी-पश्चाताप | उलझन

उलझन

उलझन, भ्रम या शंका—जिन्हें पालि में “विचिकिच्छा” कहा गया है—अक्सर अनुचित संगति और विकृत विचारों का परिणाम होती है। यह तब उत्पन्न होती है जब सोच किसी एकपक्षीय दृष्टिकोण से ग्रस्त हो जाए, और चित्त की दिशा स्पष्ट न रहे।

उलझन बाहरी जानकारी की कमी से नहीं, बल्कि भीतर की अस्पष्टता से जन्म लेती है। यदि चित्त ठोस सिद्धान्त, स्पष्ट नीति और विवेक से अनुप्राणित न हो, तो वह बाहरी प्रभावों के अनुसार ढलता जाता है। यह कोई मानसिक दुर्बलता नहीं, बल्कि आत्मबोधहीनता की स्थिति है, जहाँ चित्त स्वयं में कोई आधार नहीं पाता, और लगातार “अन्य” के अनुसार परिभाषित होता रहता है—कभी समाज, कभी परंपरा, कभी किसी प्रभावशाली व्यक्ति के अनुसार।

कुछ चित्त स्वभावतः दृढ़ नहीं होते। जैसे जल जिस पात्र में पड़े, उसी का आकार लेता है, वैसे ही ऐसा चित्त भी परिस्थितियों के अनुसार रूप बदलता है। उसे न स्वयं पर विश्वास होता है, न दूसरों पर, और न ही किसी सिद्धान्त पर। जब उसे कोई ठोस जीवनशैली या अभ्यास का आधार नहीं मिलता, तो वह हर बात पर संदेह करने लगता है।

बुद्ध कहते हैं, जैसी संगति, वैसा चित्त। अनुचित संगति से चित्त दूषित होने के साथ-साथ पराधीन हो जाता है—निर्णय लेने में स्वतंत्र नहीं रहता। व्यक्ति अपनी बुद्धि पर भी भरोसा खो देता है और दूसरों के निर्देश पर चलने लगता है। यह स्थिति मानसिक गुलामी की तरह होती है, जहाँ सरल, स्वाभाविक समझ भी संशयास्पद लगने लगती है। अंधविश्वास यहीं जन्म लेता है।

ऐसे चित्त में भ्रम और भ्रांतियाँ गहराने लगती हैं। यदि कोई दुष्टविचारों की संगति में पड़ जाए, तो वे उसका मानसिक शोषण करते हैं, उसे विवेकशून्य और आत्मनिर्भरता से हीन बना देते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति साधारण बातों का भी यथार्थ अर्थ नहीं समझ पाता।

ऐसे व्यक्ति को केवल जानकारी नहीं, बल्कि दीर्घकालिक मार्गदर्शन चाहिए। उसे सत्पुरुष की संगति में रहना चाहिए—जो संदेहों का समाधान करते हुए, एक संयमित और कुशल जीवनपथ का अभ्यास कराएं। पहले चित्त को एक स्पष्ट और मजबूत आकार मिले, फिर उससे भी आगे बढ़कर वह पूर्ण स्वतंत्रता की ओर बढ़े।

कभी-कभी व्यक्ति को कुशल-अकुशल का बौद्धिक भेद समझा दिया जाता है, पर यदि उसका अंतर्ज्ञान विकसित न हो, तो वह फिर भटक सकता है।

जैसे, प्रसिद्ध कालाम सूत्र में पढ़ने मिलता है, जो उपदेश केवल अंधविश्वास से बचाव नहीं, बल्कि विवेक को जाग्रत करने का आह्वान है। और फिर मुक्ति के लिए अनिवार्य सुत्त सब्बासव में।

ध्यान रहे—यह भ्रांति केवल दुर्बल चित्त की नहीं। यदि मजबूत चित्त भी अनुचित दिशा में लग जाए, तो वह भी भ्रम में पड़ सकता है। इसे अयोनिसो मनसिकार कहा गया है—अर्थात अनुचित प्रकार से मन का लगना।

धर्म वचन

भगवान:

केशपुत्र के कालाम तब भगवान के पास गए। कुछ लोग भगवान को अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। कुछ लोग भगवान को नम्रतापूर्ण हालचाल पूछ कर एक-ओर बैठ गए। कुछ लोग हाथ जोड़, अंजलिबद्ध वंदन कर एक-ओर बैठ गए। कोई अपना नाम-गोत्र बता कर एक-ओर बैठ गए। तथा कोई चुपचाप ही एक-ओर बैठ गए। उन्होंने एक-ओर बैठकर भगवान से कहा:

“भन्ते! कुछ श्रमण एवं ब्राह्मण [हमारे गांव] केशपुत्र आते हैं। तब वे अपनी धारणा «वाद» का खुलासा कर गुणगान करते हैं। किंतु अन्य किसी की धारणा हो, तो वे विरोध करते हैं, अपशब्द कहते हैं, घृणा दिखाते हैं, निंदा करते हैं। और तब अन्य श्रमण एवं ब्राह्मण केशपुत्र आते हैं। वे अपनी धारणा का खुलासा कर गुणगान करते हैं। किंतु वे भी अन्य किसी की धारणा हो, तो विरोध करते हैं, अपशब्द कहते हैं, घृणा दिखाते हैं, निंदा करते हैं। वे हमें बिलकुल उलझन एवं संदेह में डाल देते हैं। तो भन्ते, इनमें कौन पूज्य श्रमण एवं ब्राह्मण सत्य बोलते हैं, और कौन झूठ बोलते हैं?”

“ज़रूर उलझन होगी, कालामों! ज़रूर संदेह होगा! संदेह का कारण हो, तभी उलझन होती है। जब ऐसा हो कालामों, तब —

  • «मा अनुस्सवेन» न सुनी-सुनाई बात मानो,
  • «मा परम्पराय» न [चली आ रही] परंपरागत बात मानो,
  • «मा इतिकिराय» न अटकलेबाजी मानो,
  • «मा पिटकसम्पदानेन» न शास्त्र-ग्रंथों की बात मानो,
  • «मा तक्कहेतु» न तर्कसंगत कारण मानो,
  • «मा नयहेतु» न अनुमानित कारण मानो,
  • «मा आकारपरिवितक्केन» न समतुल्य परिस्थिति में लागू होने वाली बात मानो,
  • «मा दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया» न अपनी धारणा से मेल खाने वाली बात मानो,
  • «मा भब्बरूपताय» न संभावित बात मानो,
  • «मा समणो नो गरूति» न श्रमण गुरु के सम्मानार्थ मानो।

बल्कि कालामों, जब तुम्हें स्वयं पता चले — ‘यह स्वभाव अकुशल है। यह स्वभाव दोषपूर्ण है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा निंदित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, दुःख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव त्याग देना चाहिए।

क्या लगता है, कालामों? जब किसी व्यक्ति के भीतर लोभ उपजता हो, तो वह उसके हित के लिए उत्पन्न होगा अथवा अहित के लिए?”

“अहित के लिए, भन्ते!”

“और कोई लालची लोभ के वशीभूत, लोभचित्त से बेकाबू होकर — जीवहत्या करे, चोरी करे, पराई औरत के पीछे जाए, झूठ बोले, और यह दुसरों से भी करवाए, तो क्या वह उसके दीर्घकालीन अहित और दुःख के लिए होगा?”

“हाँ, भन्ते!”

“और कालामों! जब किसी व्यक्ति के भीतर द्वेष उपजता हो, तो वह उसके हित के लिए उत्पन्न होगा अथवा अहित के लिए?”

“अहित के लिए, भन्ते!”

“और कोई दुष्ट द्वेष के वशीभूत, द्वेषचित्त से बेकाबू होकर — जीवहत्या करे, चोरी करे, पराई औरत के पीछे जाए, झूठ बोले, और यह दुसरों से भी करवाए, तो क्या वह उसके दीर्घकालीन अहित और दुःख के लिए होगा?”

“हाँ, भन्ते!”

“और कालामों! जब किसी व्यक्ति के भीतर भ्रम उपजता हो, तो वह उसके हित के लिए उत्पन्न होगा अथवा अहित के लिए?”

“अहित के लिए, भन्ते!”

“और कोई मूढ़ भ्रम के वशीभूत, भ्रमित चित्त से बेकाबू होकर — जीवहत्या करे, चोरी करे, पराई औरत के पीछे जाए, झूठ बोले, और यह दुसरों से भी करवाए, तो क्या वह उसके दीर्घकालीन अहित और दुःख के लिए होगा?”

“हाँ, भन्ते!”

“क्या लगता है, कालामों? यह स्वभाव कुशल हैं अथवा अकुशल?”

“अकुशल, भन्ते!”

“दोषपूर्ण है अथवा निर्दोष?”

“दोषपूर्ण, भन्ते!”

“ज्ञानियों द्वारा निंदित है अथवा प्रशंसित?”

“निंदित, भन्ते!”

“उसे मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, दुःख आता है अथवा नहीं? या क्या लगता है?”

“उसे मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, भन्ते! दुःख आता है। ऐसा ही हमें लगता है।”

“इसलिए कहता हूँ, कालामों। न सुनी-सुनाई बात मानो, न परंपरागत बात मानो, न अटकलेबाजी मानो, न शास्त्र-ग्रंथों की बात मानो, न तर्कसंगत कारण मानो, न अनुमानित कारण मानो, न समतुल्य परिस्थिति में लागू होती बात मानो, न अपनी धारणा से मेल खाती बात मानो, न संभावित बात मानो, न श्रमण गुरु के सम्मानार्थ मानो। बल्कि कालामों, जब तुम्हें स्वयं पता चले — ‘यह स्वभाव अकुशल है। यह स्वभाव दोषपूर्ण है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा निंदित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, दुःख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव त्याग देना चाहिए।

और कालामों! जब तुम्हें स्वयं पता चले — ‘यह स्वभाव कुशल है। यह स्वभाव निर्दोष है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा प्रशंसित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से हित होता है, सुख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव धारण कर उसी में रहना चाहिए।

क्या लगता है, कालामों? जब किसी व्यक्ति के भीतर निर्लोभता उपजती हो… निर्द्वेषता उपजती हो… निर्भ्रमता उपजती हो, तो वह उसके हित के लिए उत्पन्न होगी अथवा अहित के लिए?”

“हित के लिए, भन्ते!”

“और कोई निर्लोभी न लोभ के वशीभूत, न लोभचित्त से बेकाबू होकर… [अथवा] कोई निर्द्वेषी न द्वेष के वशीभूत, न द्वेषचित्त से बेकाबू होकर… [अथवा] कोई निर्भ्रमी न भ्रम के वशीभूत, न भ्रमचित्त से बेकाबू होकर — जीवहत्या न करे, चोरी न करे, पराई औरत के पीछे न जाए, झूठ न बोले, और न ही दुसरों से करवाए, तो क्या वह उसके दीर्घकालीन हित और सुख के लिए होगा?”

“हाँ, भन्ते!”

“और क्या लगता है, कालामों? यह स्वभाव कुशल है अथवा अकुशल?”

“कुशल, भन्ते!”

“दोषपूर्ण है अथवा निर्दोष?”

“निर्दोष, भन्ते!”

“ज्ञानियों द्वारा निंदित है अथवा प्रशंसित?”

“प्रशंसित, भन्ते!”

“उसे मानने से, उस पर चलने से हित होता है, सुख आता है अथवा नहीं? या क्या लगता है?”

“उसे मानने से, उस पर चलने से हित होता है, भन्ते! सुख आता है। ऐसा ही हमें लगता है।”

“इसलिए कहता हूँ, कालामों। न सुनी-सुनाई बात मानो, न परंपरागत बात मानो, न अटकलेबाजी मानो, न शास्त्र-ग्रंथों की बात मानो, न तर्कसंगत कारण मानो, न अनुमानित कारण मानो, न समतुल्य परिस्थिति में लागू होती बात मानो, न अपनी धारणा से मेल खाती बात मानो, न संभावित बात मानो, न श्रमण गुरु के सम्मानार्थ मानो। बल्कि कालामों, जब तुम्हें स्वयं पता चले — ‘यह स्वभाव कुशल है। यह स्वभाव निर्दोष है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा प्रशंसित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से हित होता है, सुख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव धारण कर उसी में रहना चाहिए।

«अंगुत्तरनिकाय ३:६६ : केसमुत्तिसुत्त»


उलझन का आहार और अनाहार

“अनुत्पन्न उलझन को उत्पन्न करने, और उत्पन्न हुई उलझन को बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है?

ऐसी बातें होती हैं जो उलझन के पनपने का आधार बनती हैं — उस पर अनुचित चिंतन करना आहार बनता है अनुत्पन्न उलझन उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई उलझन बढ़कर अत्याधिक होने का।

किन्तु, ऐसी बातें होती है जो कुशल या अकुशल, दोषपूर्ण या निर्दोष, स्थूल या सूक्ष्म, अंधेरे पक्ष या उजले पक्ष की होती हैं — उस पर उचित चिंतन करना अनाहार है अनुत्पन्न उलझन उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई उलझन बढ़कर अत्याधिक होने को।”

— संयुत्तनिकाय ४६:५१ : आहार सुत्त


“कोई जो आर्यदर्शन से वंचित, आर्यधर्म से अपरिचित, आर्यधर्म में न अनुशासित हो; या सत्पुरूषदर्शन से वंचित, सत्पुरूषधर्म से अपरिचित, सत्पुरूषधर्म में न अनुशासित हो—ऐसा धर्म न सुने आम आदमी को पता नहीं चलता कि कौन-सी बात पर गौर करना ‘उचित’ है, और कौन-सी बात पर ‘अनुचित’। इस कारण वह उचित बात पर नहीं गौर करता, बल्कि अनुचित पर करता है।

कौन-सी बात अनुचित है?

जिस पर गौर करने से —

  • अनुत्पन्न “कामुक-बहाव” उत्पन्न होने लगे, और उत्पन्न हुए बढ़ने लगे
  • अनुत्पन्न “अस्तित्व-बहाव” उत्पन्न होने लगे, और उत्पन्न हुए बढ़ने लगे
  • अनुत्पन्न “अविद्या-बहाव” उत्पन्न होने लगे, और उत्पन्न हुए बढ़ने लगे

— ऐसी बातों पर गौर करना ‘अनुचित’ होता है, जिस पर वह [=आम आदमी] गौर करता है।

तब कौन-सी बात उचित है? जिस पर गौर करने से अनुत्पन्न कामुक-बहाव… अस्तित्व-बहाव… अविद्या-बहाव उत्पन्न न हो, और उत्पन्न हुए थमने लगे। ऐसी बातों पर गौर करना ‘उचित’ होता है, किंतु जिस पर वह गौर नहीं करता।

और इस तरह ‘अनुचित’ बात पर गौर करने से, तथा ‘उचित’ बात पर गौर न करने से उसके अनुत्पन्न बहाव उत्पन्न होते रहते है, और उत्पन्न हुए बढ़ते रहते है।

कोई धर्म न सुना, आम आदमी इस तरह ‘अनुचित’ बातों पर गौर करता है—

  • ‘क्या मैं अतीतकाल में था?’
  • ‘क्या मैं अतीतकाल में नहीं था?’
  • ‘मैं अतीतकाल में क्या था?’
  • ‘मैं अतीतकाल में कैसा था?’
  • ‘मैं अतीतकाल में क्या बनकर फ़िर क्या बना था?’
  • ‘क्या मैं भविष्यकाल में रहूँगा?’
  • ‘क्या मैं भविष्यकाल में नहीं रहूँगा?’
  • ‘क्या मैं भविष्यकाल में रहूँगा?’
  • ‘मैं भविष्यकाल में कैसा रहूँगा?’
  • ‘मैं भविष्यकाल में क्या बनकर फ़िर क्या बनूँगा?’

या वह वर्तमानकाल को लेकर भ्रमित रहता है—

  • ‘क्या मैं हूँ?’
  • ‘क्या मैं नहीं हूँ?’
  • ‘मैं क्या हूँ?’
  • ‘मैं कैसा हूँ?’
  • ‘यह सत्व कहाँ से आया है?’
  • ‘वह कहाँ जानेवाला है?’

इस प्रकार अनुचित बातों पर गौर करने से, उसमें छह-दृष्टियों में से एक [मिथ्या] दृष्टी उत्पन्न होती है—

  • ‘मेरा आत्म है’… या
  • ‘मेरा आत्म नहीं है’… या
  • ‘आत्म के द्वारा आत्म महसूस करता हूँ’… या
  • ‘आत्म के द्वारा अनात्म महसूस करता हूँ’… या
  • ‘अनात्म के द्वारा आत्म महसूस करता हूँ’

—उसे यह उत्पन्न हुई दृष्टि सच लगती है, जिसे वह धारण करता है।

  • या उसे उत्पन्न हुई दृष्टि कुछ इस तरह होती है—‘मेरा यह जो आत्म है, जो यहाँ वहाँ भले-बुरे कर्मों के फ़ल-परिणाम भोगता है—वह नित्य ध्रुव शाश्वत है। वह कभी नहीं बदलेगा। अनन्तकाल तक वैसा ही बना रहेगा।’

इन्हें कहते है, भिक्षुओं—‘दृष्टियो का झुरमुट! दृष्टियो का जंगल! दृष्टियो का रेगिस्तान! दृष्टियो की विकृति! दृष्टियों की पीड़ापूर्ण ऐठन! दृष्टियो का बंधन!’ इस तरह दृष्टिबंधन में बँधा, धर्म न सुना, आम आदमी—जन्म बुढ़ापा मौत, शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा से छूट नहीं पाता! मैं कहता हूँ, वह दुःख से छूट नहीं पाता!


किंतु भिक्षुओं, कोई आर्यदर्शन लाभान्वित, आर्यधर्म से सुपरिचित, आर्यधर्म में अनुशासित हो; या सत्पुरूषदर्शन लाभान्वित, सत्पुरूषधर्म से सुपरिचित, सत्पुरूषधर्म में अनुशासित हो—ऐसा धर्म सुने आर्यश्रावक को पता चलता है कि कौन-सी बातों पर गौर करना उचित है, और कौन-सी बात पर अनुचित। इस कारण वह ‘उचित’ बात पर ही गौर करता है, अनुचित पर नहीं।

कौन-सी बात उचित होती है?

जिस पर गौर करने से अनुत्पन्न कामुक-बहाव… अस्तित्व-बहाव… अविद्या-बहाव उत्पन्न न हो, और उत्पन्न हुआ थमने लगे। ऐसी बातों पर गौर करना ‘उचित’ होता है, जिन पर वह [=आर्यश्रावक] गौर करता है। उसके ‘उचित बात’ पर गौर करने, और अनुचित बात पर गौर न करने से उसमें अनुत्पन्न बहाव उत्पन्न नहीं होते, और उत्पन्न हुए थमने लगते है।

धर्म सुना आर्यश्रावक इन उचित बातों पर गौर करता है—

  • ‘ऐसा दुःख होता है।’
  • ‘ऐसे दुःख की उत्पत्ति होती है।’
  • ‘ऐसे दुःख का निरोध होता है।’
  • ‘यह दुःख निरोध करानेवाला प्रगतिपथ है।’

इस तरह ‘उचित बात’ पर ही गौर करने से उसके तीन बंधन «संयोजन» टूट जाते [=श्रोतापतिफ़ल] है—

  • आत्मिय दृष्टि «सक्कायदिट्ठि»
  • अनिश्चितता «विचिकिच्छा»
  • शील व्रतों पर अटकना «सीलब्बतपरामासो»

—मज्झिमनिकाय २: सब्बासव सुत्त

उलझन का त्याग

इस तरह, जब चित्त योनिसो मनसिकार—अर्थात सही चिंतन करना, या उचित जगह पर ध्यान केन्द्रित करने—में स्थिर होता है, तभी उलझन से मुक्त होकर स्थायी सुख की ओर अग्रसर होता है। यह केवल तात्कालिक सुख-दुःख का नहीं, बल्कि दीर्घकालिक परिणामों का विचार है। यह अभ्यास केवल बौद्धिक नहीं, बल्कि एक गहन चित्त-प्रवृत्ति है, जिसे ध्यान और निरंतर अवलोकन से विकसित किया जाता है।

कुछ विषयों पर चिंतन से आरंभ में पीड़ा हो सकती है—जैसे शरीर की अस्थिरता या कुरूपता पर ध्यान। किन्तु यह पीड़ा भविष्य की गहरी दृष्टि और विवेक को जन्म देता है। इसके विपरीत, भोगप्रधान विषय तत्काल सुखद लगते हैं, लेकिन दीर्घकाल में दुखदायी सिद्ध होते हैं।

इसलिए केवल तात्कालिक अनुभूति नहीं, बल्कि चिंतन के दीर्घकालिक परिणाम ही मूल्यांकन का मापदंड होने चाहिए।

चित्त की मुक्ति केवल उलझन से बाहर आना नहीं है, बल्कि सभी बाहरी विश्वास-ढाँचों, जड़ दृष्टिकोणों और आत्म-विस्मृति से मुक्त होना है। जब चित्त “मैं हूँ” के आधार से भी परे चला जाए—तब वह न रचता है, न पकड़ता है, न आकांक्षा करता है।

बुद्ध ने इस स्थिति को अनुपादिसेस परिनिब्बान कहा—जहाँ चित्त किसी भी आधार को पकड़े बिना, पूर्णतः मुक्त होता है।