“शुद्ध स्वर्ण विलुप्त नहीं होता, जब तक उसका जाली प्रतिरूप (=नकली स्वर्ण चलन में) न आ जाए। उसी तरह, शुद्ध धर्म भी विलुप्त नहीं होता, जब तक उसका जाली प्रतिरूप न आए।”
— भगवान बुद्ध (संयुत्तनिकाय १६:१३ : सद्धम्मपतिरूपक सुत्त)
क्या जो कुछ आज हम “बुद्ध वचन” के रूप में सुनते, पढ़ते और अभ्यास में लाते हैं, वह वास्तव में उसी स्वरूप में है जैसा बुद्ध ने कहा था?
यह प्रश्न केवल किसी विद्वता की खोज नहीं, बल्कि एक साधक की विनम्र जिज्ञासा है। आज जब बौद्ध धर्म की अनेक धाराएँ, परंपराएँ और व्याख्याएँ सामने हैं, तब यह जानना आवश्यक है कि धम्म का प्रारंभिक और मूल स्वरूप क्या था, और क्या वह मूल अब भी कहीं उपलब्ध है।
यह जिज्ञासा किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं। यह नवबौद्धों में उठ सकती है, जो सामाजिक न्याय और समता की खोज में बुद्ध के पास लौटे हैं; विपस्सना साधकों में भी, जो जानना चाहते हैं कि उनकी ध्यान-साधना किन शिक्षाओं की बुनियाद पर खड़ी है; और उन लोगों में भी, जो बौद्ध संस्कृति में पले-बढ़े हैं, पर अब यह सोचते हैं कि बुद्ध केवल एक पूजनीय मूर्ति हैं या जीवन की उलझनों को सुलझाने वाले एक जीवंत मार्गदर्शक।
क्या हम इतनी परिपक्वता पा चुके हैं कि असहज उत्तर भी हमारी श्रद्धा को विचलित न करें, बल्कि उसे और स्पष्ट और सजीव बना दें?
यह प्रयास किसी परंपरा को नकारने या किसी की आस्था को चुनौती देने का नहीं है। बल्कि यह एक प्रामाणिक और कुशल जिज्ञासा है — उस आर्य गूंज को फिर से सुनने की, जो कभी सारनाथ, श्रावस्ती और राजगृह की वनों में प्रतिध्वनित हुई थी। वह गूंज जो सदियों तक गूँजती रही, लेकिन धीरे-धीरे संसार के कोलाहल में धूमिल होकर दब गई। लेकिन आज भी वह गूंज सुनाई दे सकती है, यदि हम उसे संसार की धूल से छानकर पहचानने को तैयार हों।
हमें यह जानना आवश्यक है — क्या हम त्रिपिटक या अन्य बौद्ध ग्रंथों को आँख मूँद कर “बुद्ध वचन” मान लें? क्या यह संभव है कि कुछ भाग बुद्ध की वाणी के निकट हों, और कुछ नहीं? क्या वह मूल वाणी समय की धूल और परंपरा की परतों से अछूती रही? और यदि नहीं, तो हमें सच्चे सद्धम्म तक पहुँचने के लिए कौन-से दरवाज़े खोलने होंगे?
“बौद्ध धर्म के विकास के साथ, मूल शिक्षाएँ धीरे-धीरे विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभावों से प्रभावित हुईं। हमें चाहिए कि हम इन शिक्षाओं के मूल तत्वों की पहचान करें और उन्हें एकत्रित करें।”
— गैरी टुल्लॉक
(प्रारंभिक बौद्ध सूत्रों के अध्ययन में विद्वान)
आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि थेरवाद परंपरा का पालि त्रिपिटक ही बुद्ध की मूल वाणी हैं। लेकिन ऐतिहासिक प्रमाण हमें यह बताते हैं कि पालि साहित्य का विकास बुद्ध के समय नहीं हुआ। बल्कि वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा, और अनेक सांस्कृतिक प्रभावों से गुज़रा। इस विकास की प्रक्रिया में कई ऐसे असहज प्रश्न हैं जो सुलझे नहीं हैं, और जिनका उत्तर पाना आज आसान नहीं है।
इसके लिए हमें सबसे पहले बौद्ध इतिहास से एक जल्द-नज़र घुमानी होगी।
भगवान बुद्ध के समय तक भिक्षुओं के बीच भाणक, यानी मौखिक परंपरा, स्थापित हो चुकी थी। ये भाणक भिक्षु बुद्ध के उपदेशों को शब्दशः कंठस्थ कर लेते थे और फिर प्रायः दूर-दराज के एकांत स्थानों में जाकर साधना में लीन हो जाते थे। उस परंपरा में व्यक्तिगत स्मृति, गुरु-शिष्य संवाद, और धर्माभ्यास की गहरी भूमिका थी।
भिक्षु-संघ में विभिन्न प्रवृत्तियों वाले समूह थे। कुछ गाँवों के समीप विहारों में रहकर धर्म का अध्ययन और अभ्यास करते थे; कुछ “धुतांगधारी” अरण्य निवास करते हुए कठोर तपस्या में लगे रहते थे; कुछ समूह “चारिका” करते हुए लगातार भ्रमण करते रहते थे; और कुछ तो स्वयं भगवान बुद्ध के साथ या उनके आसपास ही बने रहते थे।
यद्यपि बुद्ध के उपदेश सामान्यतः सभी प्रकार की प्रवृत्तियों वाले शिष्यों के लिए उपयुक्त होते थे, फिर भी कुछ विशेष शिक्षाएँ कुछ समूहों के लिए विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होती थीं। उदाहरणतः, शांतचित्त भिक्षुओं को समाधि से संबंधित सूत्र अधिक उपयोगी लगते थे, जबकि अधिक चंचल प्रवृत्ति वाले साधकों को कठोर अभ्यास यानी “दुक्खा पटिपदा” से संबंधित उपदेशों से अधिक लाभ मिलता था। ऐसे में कई समूहों के लिए वे सूत्र, जो उन्होंने स्मरण में रखे थे, उनके अपने साधना-पथ की दिशा और पहचान बन जाते थे।
भिक्षु समुदायों के बीच आपसी संवाद का विशेष स्थान था। वे एक-दूसरे को बुद्ध द्वारा सुने गए उपदेश सुनाते, उन पर धर्मचर्चा करते, और अभ्यास के मार्ग पर सुझाव व मार्गदर्शन भी देते। नवागत भिक्षु अपनी प्रवृत्तियों के अनुसार उपयुक्त समूहों में सम्मिलित होते और साधना आरंभ करते। इस प्रकार, यद्यपि संघ विभिन्न स्थानों में बिखरा हुआ था, फिर भी उसकी एकात्मता बनी रहती थी।
समय के साथ संघ का विस्तार हुआ, शिष्य दूर-दूर के क्षेत्रों तक फैल गए, और विभिन्न समूहों को अपने-अपने ठिकानों पर स्थायी धर्म-अभ्यास और अनुशासन की आवश्यकता महसूस होने लगी। यही वह काल था जब बुद्ध की शिक्षा, धम्म-विनय, को एक संगठित रूप देने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। इस कार्य की आधारशिला स्वयं बुद्ध ने अपने जीवनकाल में रख दी थी। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने अपने शिष्य चुन्द से कहा —
“और, चुन्द, आज मैं शास्ता वरिष्ठ हो चुका हूँ — बहुत अनुभवी, चिरकाल से संन्यास ग्रहण किया वयोवृद्ध, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त!
और मेरे वरिष्ठ (“थेर” =१०+ वर्ष अनुभवी) भिक्षु श्रावक हैं — जो सक्षम, शिक्षित, आश्वस्त, बंधन-योग से राहत प्राप्त हैं, जो उस सद्धर्म को भलीभाँति स्पष्ट कर सकते हैं, या उत्पन्न पराई धारणा का धर्मानुसार खण्डन कर सकते हैं, और धर्म का प्रकटीकरण कर उपदेश कर सकते हैं…
और मेरे मध्यम (=५-१० वर्ष अनुभवी) भिक्षु… नवक (=०-५ वर्ष अनुभवी) भिक्षु… वरिष्ठ भिक्षुणी… मध्यम भिक्षुणी… नवक भिक्षुणी… श्वेत-वस्त्रधारी ‘ब्रह्मचारी’ उपासक… श्वेत-वस्त्रधारी कामभोगी उपासक… श्वेत-वस्त्रधारी ब्रह्मचारी उपासिका… श्वेत-वस्त्रधारी कामभोगी उपासिका श्राविका भी — सक्षम, शिक्षित, आश्वस्त, बंधन-योग से राहत प्राप्त हैं, जो उस सद्धर्म को भलीभाँति स्पष्ट कर सके, या उत्पन्न पराई धारणा का धर्मानुसार खण्डन कर सके, और धर्म का प्रकटीकरण कर के उपदेश करें…
और, चुन्द, मेरा ब्रह्मचर्य मार्ग — सफल, समृद्ध, विस्तृत, लोकप्रिय, और देव-मानवों में प्रचारित और सुप्रकाशित हैं।
और, चुन्द, जितने शास्ता अभी इस लोक में उत्पन्न हुए हैं, मैं किसी को इतना सर्वोच्च लाभ (दान-दक्षिणा) और सर्वोच्च यश प्राप्त करते हुए नहीं देखता हूँ, जितना मुझे प्राप्त होता है। और, जितने संघ-समुदाय अभी इस लोक में उत्पन्न हुए हैं, मैं किसी को इतना सर्वोच्च लाभ और सर्वोच्च यश प्राप्त करते हुए नहीं देखता हूँ, जितना भिक्षुसंघ को प्राप्त होता है।
और, चुन्द, (मेरे) इसी ब्रह्मचर्य के बारे में सही मायने में कहा जा सकता है कि — ‘यही एक ऐसा सर्वगुणसंपन्न, सर्वगुणपरिपूर्ण, स्पष्ट बताया हुआ, सर्वपरिपूर्ण ब्रह्मचर्य सुप्रकाशित हुआ है’, जो न कम है, न ही अधिक!… ‘जिससे कुछ निकाल दिया जाए, तब वह परिशुद्ध होगा’ — ऐसा दिखायी नहीं देता है। ‘जिसमें कुछ जोड़ दिया जाए, तब वह परिपूर्ण होगा’ — ऐसा भी दिखायी नहीं देता है…
अतः, चुन्द, जिस धर्म को मैंने प्रत्यक्ष जानकर तुम्हें बताया है, उसे तुम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर — अर्थ से अर्थ मिलाकर, वाक्य से वाक्य मिलाकर — “संगायन” करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए। ताकि यह ब्रह्मचर्य [दूर-दराज] यात्रा के योग्य और चिरस्थायी बना रहे, जो बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, इस दुनिया पर उपकार करते हुए, देव और मानव के कल्याण, हित, और सुख के लिए होगा।
और, चुन्द, वे कौन-से धर्म हैं, जिनको मैंने प्रत्यक्ष जानकर तुम्हें बताया है…? यही —
- चार स्मृति-प्रस्थान,
- चार सम्यक-प्रधान,
- चार ऋद्धिपद,
- पाँच इंद्रिय,
- पाँच बल,
- सात संबोध्यङ्ग,
- आर्य अष्टांगिक मार्ग!
— ये ही वे [३७ बोधिपक्खिय] धर्म हैं, चुन्द, जिनको मैंने प्रत्यक्ष जानकर तुम्हें बताया है, जिसे तुम सभी को मिल-जुलकर एकत्र होकर — अर्थ से अर्थ मिलाकर, वाक्य से वाक्य मिलाकर संगायन करना चाहिए, विवाद नहीं करना चाहिए…”
— दीघनिकाय २९ : पासादिक सुत्त
इस तरह हमें पता चलता है कि भगवान बुद्ध ने भिक्षुओं को केवल धर्म का सार—“३७ बोधिपक्खिय धम्म”—का ही संगायन करने का निर्देश दिया था। उनकी आज्ञा पर खरा उतरते हुए, सारिपुत्त भंते ने सर्वप्रथम स्वयं भगवान के समक्ष “सङ्गीति सुत्त” (दीघनिकाय ३३) और “दसुत्तर सुत्त” (दीघनिकाय ३४) की देशना दी। इन सूत्रों में उन्होंने न केवल ३७ बोधिपक्खिय धम्म, बल्कि बुद्ध द्वारा उपदेशित अन्य कई महत्वपूर्ण विषयों को भी एकत्र और क्रमबद्ध किया।
यद्यपि सारिपुत्त भंते ने सूत्रों को “संगायन” और ““अंगुत्तर” शैली में संगठित किया, परंतु इसे “औपचारिक” संगायन नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह संघ की सर्वसम्मति से संपन्न प्रक्रिया नहीं थी। इसलिए, भगवान के महापरिनिर्वाण के पश्चात, उनकी मंशा के अनुरूप, महाकश्यप भंते, जिन्हें “संघ का पितामह” माना जाता है, की अध्यक्षता में ऐतिहासिक संगायन राजगृह में सम्पन्न हुआ।
इस संगायन का मुख्य उद्देश्य था बुद्ध के “धम्म” उपदेशों को संरक्षित करना और संघ के “विनय” अनुशासन को एकरूपता देना। यह प्रयास निस्संदेह श्रद्धा और ईमानदारी से प्रेरित था, किंतु यहीं से धम्म को “एकरूप” और “संगठित” स्वरूप देने की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। विद्वानों के अनुसार, इस प्रक्रिया में वे उपदेश जिन्हें श्रुति परंपरा में बार-बार दोहराया गया था, उन्हें व्यवस्थित रूप में संकलित किया गया; साथ ही, कुछ स्थानों पर भाषा और शैली में भी परिवर्तन हुए।
स्वयं भगवान बुद्ध ने कई अवसरों पर स्पष्ट किया था कि उनका धर्म “नवङ्ग”, अर्थात नौ अंगों, से युक्त है —
- “सुत्त” — सूत्रात्मक उपदेश,
- “गेय्य” —गाने योग्य गद्य, जो पद्य और गद्य के मिश्र रूप में होता है,
- “वेय्याकरण” — स्पष्ट और विश्लेषणात्मक वचन,
- “गाथा” — पद्यात्मक रचनाएँ,
- “उदान” — सहज रूप से प्रकट हुए भावात्मक उद्गार,
- “इतिवुत्तक” — उद्धरण सहित वर्णित वचन (“इति वुतं भगवता…” से प्रारंभ)
- “जातक” — पूर्वजन्म की कथाएँ,
- “अब्भुतधम्म” — बुद्ध या प्रमुख शिष्यों से जुड़ी चमत्कारी घटनाएँ,
- “वेदल्ल” — प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत संवाद।
— मज्झिमनिकाय २२ : अलगद्दूपम सुत्त
इन नवाङ्ग धर्मसूत्रों को आगे चलकर पाँच “निकाय” या “आगम” 1 में संगठित किया गया:
पञ्चनिकाय ही उस समय सम्पूर्ण धम्म के रूप में मान्य था। इन्हीं में भगवान बुद्ध के उपदेशों का सार समाहित था। न तो इनमें अभिधम्म के सात ग्रंथ सम्मिलित थे, न ही कहीं बोधिसत्व आदर्श या पारमियों की कोई चर्चा थी।
उस समय न बुद्धवंश था, न चरियापिटक, न अपदान, न पेतवत्थु, न विमानवत्थु। न महानिद्देस और चूळनिद्देस का कोई उल्लेख था, न पटिसम्भिदामग्ग, मिलिन्दप्रश्न, नेत्तिप्पकरण या पेटकोपदेस का कोई अस्तित्व।
जातक कथाएँ किसी पृथक ग्रंथ के रूप में नहीं थीं, बल्कि वे विविध रूपों में चारों निकायों में बिखरी हुई थीं, जैसे बिखरे हुए फूलों से किसी अनाम उद्यान की महक बनती है।
और उस समय किसी भी सूत्र पर किसी तरह का औपचारिक, “संस्थागत” स्पष्टीकरण नहीं था — न कोई अट्ठकथा, न टिका, न अनुटिका, न विसुद्धिमग्गो, न विमुत्तिमग्गो, न ही कुछ और। बुद्धवाणी की व्याख्या व्यक्तिगत साधना और आपसी संवाद के माध्यम से होती थी, न कि किसी टीकाकार के निर्णय से।
दूसरी ओर, विनय को दो प्रमुख भागों में संगठित किया गया:
यही, प्रारंभिक और मूल, विनय था। इसमें चुल्लवग्ग के अंतर्गत (प्रथम और द्वितीय) संगीतिकथा, दण्ड, संपत्ति निवारण इत्यादि अध्याय नहीं थे। और न ही “परिवार” नामक ग्रंथ ही था, जिसे अभिधम्म शैली में सैकड़ों वर्षों पश्चात लिखा गया।
खैर, कुल-मिलाकर यही और इतना ही ‘प्रारंभिक और मूल’ धम्म-विनय था, जिसमें सहजता थी, सुलभता थी, स्पष्टता थी, अनुभवजन्यता थी, और व्यावहारिकता भी।
इसमें न तो अत्यधिक दैवी घटनाएँ थीं, न जटिल दार्शनिक उलझनें थीं, न पारमियों को संचित करने के नाम पर मुक्ति को भविष्य में टालने की प्रवृत्ति थी। इसमें व्यर्थ और निरर्थक दार्शनिक प्रश्नों के उत्तर जानबूझकर नहीं दिए गए थे, क्योंकि उन्हें मार्ग की बाधा माना गया था। बल्कि अधिकांशतः ध्यान केवल चार आर्यसत्यों पर केंद्रित रखा गया था, जिनमें ३७ बोधिपक्खिय धम्म सम्मिलित होते थे।
किन्तु, बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात, धीमे-धीमे संघ के भीतर मतभेद उभरने लगे। विशेष रूप से विनय (अनुशासन) के क्षेत्र में। जहाँ बुद्ध ने भिक्षुओं को परिस्थितियों के अनुसार कुल १५२ पातिमोक्ख नियम दिए थे और यह स्पष्ट निर्देश दिया था कि इन्हें बढ़ाया न जाए, हालाँकि समय, स्थान और परिस्थिति के अनुसार इन्हें घटाया जा सकता है। वहीं कुछ वरिष्ठ भिक्षुओं (“स्थविरों”) ने नये नियम जोड़ने आरंभ कर दिए। उनके द्वारा जोड़े गए “सेखिया” नामक अध्याय के कारण पातिमोक्ख नियमों की संख्या बढ़कर २२७ हो गई।
इन परिवर्तनों को संघ के बहुसंख्यक भिक्षुओं (“महासंघ”) ने स्वीकार नहीं किया, जिससे दो प्रमुख धाराओं का प्रादुर्भाव हुआ —
यह विभाजन केवल दार्शनिक नहीं था, बल्कि संगठनात्मक दृष्टिकोण और धम्म की व्याख्या की पद्धति में भी स्पष्ट दिखाई देने लगा। इसका सीधा प्रभाव ग्रंथों की संरचना पर पड़ा, क्योंकि अब प्रत्येक परंपरा ने अपनी-अपनी धर्म व्याख्याओं और परिशिष्टों को जोड़ना प्रारंभ कर दिया।
हालाँकि, भिक्षु सुजातो इस बिंदु पर एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं—
“जैसे-जैसे आगे नई सुत्तों की रचना होती गई, बुद्ध की मूल वाणी को हटाया नहीं गया। वह वहीं बनी रही, लेकिन उसके चारों ओर नई परतें जुड़ती गईं। इसे हम एक प्राचीन मंदिर की तरह समझ सकते हैं, जिसके भीतर मूल प्रतिमा आज भी विद्यमान है, बस उसके चारों ओर नई सज्जा और दीवारें खड़ी कर दी गई हैं।”
इसका अर्थ यह नहीं कि बाद की जोड़ें केवल विकृति ही थीं। अनेक बार वे ईमानदार सांस्कृतिक अनुकूलन थे, लेकिन यह भी सच है कि उनमें से कई मूल धम्म के स्वरूप से भिन्न थे। कभी-कभी ये नियम स्थानीय सामाजिक दबावों, शासकीय अपेक्षाओं, या भिक्षु समुदाय की आंतरिक राजनीति के कारण भी बनाए गए। इनका उद्देश्य भले ही संघ की रक्षा रहा हो, परंतु उन्होंने मूल धम्म की सहजता को धीरे-धीरे जटिलता में बदल दिया।
यहाँ तक भी ठीक था, लेकिन फिर सम्राट अशोक के समय संघ में भारी विकृति आ गई। क्योंकि कहा जाता हैं कि राजकीय संरक्षण मिलने से अनेक लोग स्वार्थवश भिक्षु बन गए थे। सम्राट अशोक ने गुरु भंते मोग्गलिपुत्त तिस्स के परामर्श पर भिक्षुसंघ की शुद्धि करवाई। इसके बाद तीसरी संगीति हुई, जिसमें गुरु भंते मोग्गलिपुत्त तिस्स ने अभिधम्म के प्रथम ग्रंथ “कथावत्थु” की रचना की, जो निश्चित तौर पर बुद्ध-वाणी नहीं थी।
हालांकि भगवान ने कहा था —
…“यदि इस धम्म से कुछ निकाल दिया जाए, तब वह परिशुद्ध होगा!” — ऐसा दिखायी नहीं देता।
“यदि इसमें कुछ जोड़ दिया जाए, तब वह परिपूर्ण होगा!” — ऐसा भी दिखायी नहीं देता।
…‘ऐसा सर्वगुणसंपन्न, सर्वगुणपरिपूर्ण, स्पष्ट रूप से प्रतिपादित, सर्वपरिपूर्ण ब्रह्मचर्य सुप्रकाशित हुआ है, जिसमें न कुछ कम है, न कुछ अधिक!’”
— दीघनिकाय २९ : पासादिक सुत्त
फिर भी पश्चात के कुछ भाषाविद भिक्षु यह सोचने लगे कि सूत्रों में शायद कुछ “अधिक” जोड़ा जा सकता है, ताकि वह “अधिक” परिपूर्ण हो। किसी बालक जैसी निष्कपट भावना, या कहिए, आत्म-गौरव की आकांक्षा से प्रेरित होकर, आगे कथावत्थु के क्रम में छह ग्रंथों की रचना कर उन्हें अभिधम्मपिटक के रूप में विनय और सुत्त के साथ जोड़ दिया गया। इस तीसरे पिटक की शैली मूल धम्म से भिन्न थी — यह विश्लेषणात्मक, वर्गीकृत और अमूर्त चिंतन से युक्त था — न सहज, न सुलभ, न ही व्यावहारिक, बल्कि बुद्ध के प्रत्यक्ष उपदेशों से भिन्न भी।
इसके बाद महायान की उदय की कथा आती है, जहाँ करुणा, पारमिता, और बोधिसत्व के आदर्शों को जोड़कर एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया। उत्तरी-भारत में आ रहा यह बदलाव धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए मूल्यवान रही, परंतु इससे धम्म की भाषा, लक्ष्य और शैली में एक नया रूप प्रकट हुआ, जो मूल बौद्ध उपदेशों से भिन्न था। भिक्षु सुजातो इस पर टिप्पणी करते हैं कि ऐसे ग्रंथों में चमत्कार, ब्रह्मांडीय कल्पनाएँ और दार्शनिक जटिलताएँ इतनी अधिक हैं कि वे बुद्ध की मूल “दुःख और उसके निवारण” की शिक्षा से बहुत दूर दिखाई देते हैं।
किन्तु, महायान से बोधिसत्व आदर्श, पारमी संचय से प्रेरित होकर, पालि साहित्य में भी बुद्धवंश और जातक कथाएँ रची गयी। साथ ही, चरियापिटक, अपदान, पेतवत्थु और विमानवत्थु के साथ अन्य ग्रंथ भी खुद्दकनिकाय में डाले जाते रहे। इसके बाद उन्होंने मूल सूत्रों पर समानांतर स्पष्टीकरण (अट्ठकथा, टिका, अनुटिका इत्यादि) भी जुड़ती चली गयी। उसमें तरह-तरह की कहानियों, विश्लेषणों और अभिधम्म की जटिल व्याख्याओं की परतें चढ़ा दी गईं। जो धम्म कभी स्पष्ट, सुलभ और अनुभूति की ओर उन्मुख था, वह धीरे-धीरे दार्शनिक बुद्धि-विलासी और गूढ़ हो गया कि साधारण साधक के लिए वह दूर, दुर्गम और कभी-कभी भयावह प्रतीत होने लगा।
इस प्रकार, ‘मिलावट’ को हम केवल “विकृति” के रूप में न देखकर, एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं—जिसमें धम्म के मूल बीज को अनेक नई मिट्टियाँ मिलीं। कुछ मिट्टियाँ पोषक रहीं, कुछ बोझिल। परंतु यह महत्वपूर्ण है कि इन सभी के नीचे आज भी वह बीज मौजूद है—और वह बीज हमें प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों में स्पष्ट रूप से मिलता है।
आख़िरकार, जब हम यह प्रश्न उठाते हैं कि बुद्ध की प्रारंभिक और मूल वाणी वास्तव में कहाँ सुरक्षित है, और आज हम उसे किस रूप में पढ़ सकते हैं — तो हमारे पास कुछ तरीके हैं, जिनसे पता किया जा सकता है कि वे मूल बुद्ध वचन है अथवा नहीं।
यह हम जानते हैं कि संघ में विभाजन हुआ और मूल धम्म-विनय को धीमे-धीमे पालि, संस्कृत, चीनी और तिब्बती भाषाओं में अलग-अलग लिखा गया। और फिर उनमें भी बदलाव होते गए। यदि आज हम पालि सूत्रों के समानान्तर — संस्कृत, चीनी और तिब्बती भाषा में भी ढूँढ पाएँ, और उनमें आपसी तुलना कर पाएँ, और साथ ही पालि भाषा के भाषाई बदलाव को पहचान सकें, उसकी शैली में आने वाले सूक्ष्म अंतर को पहचान सकें, पुरातन पालि को आधुनिक पालि से अंतर्भेद कर सकें, तो जो निचोड़ निकलेगा, उसे मूल बुद्ध वचन कहा जा सकता है।
हमारा संकेत उन सबसे प्राचीन सूत्रों की ओर जाता है जिन्हें “प्रारंभिक बौद्ध सूत्र” कहा जाता है, या अंग्रेज़ी में Early Buddhist Texts (संक्षेप में EBT)। ये वे सूत्र हैं जिनमें बुद्ध के सबसे पुराने, मौखिक परंपरा से संजोए गए, और तुलनात्मक रूप से प्रमाणित उपदेश आज भी उपलब्ध हैं।
ये सूत्र किसी एक संप्रदाय, भाषा या भूगोल तक सीमित नहीं हैं। ये पालि, चीनी, गंधारी और संस्कृत स्रोतों में पाए जाते हैं। और इन सबमें एक अद्भुत बात समान रूप से प्रकट होती है — शब्द बदल सकते हैं, भाषा भी, लेकिन भाव, शैली और उद्देश्य में एक जैसी गूंज सुनाई देती है। यह वही गूंज हो सकती है जो बुद्ध के जीवनकाल में उनके शिष्यों ने स्वयं अनुभव की थी।
भिक्षु अनालयो, भिक्षु सुजातो जैसे दर्जनों आधुनिक विद्वानों ने इन ग्रंथों की तुलनात्मक समीक्षा करके यह निष्कर्ष निकाला है कि EBT के सूत्र बुद्ध के जीवनकाल के सर्वाधिक समीप है। इनमें प्रयुक्त भाषा सरल, प्रायः संवादात्मक है; शैली में पुनरावृत्ति मिलती है, जो मौखिक (“भाणक”) परंपरा की विशेषता रही है।
“एवं मे सुतं” — अर्थात “ऐसा मैंने सुना” — से प्रारंभ होने वाले उपदेश केवल औपचारिक घोषणाएँ नहीं हैं। बल्कि यह दर्शाते हैं कि ये वचन किसी ने सीधे सुने, स्मरण किए और आगे बढ़ाए हैं। वहाँ श्रोता कोई काल्पनिक पात्र नहीं, बल्कि वास्तविक और ऐतिहासिक थे। यहाँ बुद्ध हर व्यक्ति की परिस्थिति और मानसिक अवस्था के अनुरूप उपमा देते हैं — कभी किसान से हल की बात करते, तो कभी राजा को रथ का दृष्टांत सुनाते।
इसीलिए प्रारंभिक सूत्रों में बुद्ध का स्वर इतना सजीव और मानवीय लगता है। इसी कारण EBT को हम ‘प्राचीन’ नहीं, ‘प्रारंभिक’ कहते हैं। क्योंकि वे केवल अतीत की नहीं, वर्तमान की भी वाणी हैं। वे हमारे लिए समकालीन हैं, या शायद कालातीत। समय बदलता है, युग बीतते हैं, लेकिन सच्चा धर्म हर युग में उतना ही प्रासंगिक होता है, जितना वह प्रारंभ में था।
EBT की विशेषता यह भी है कि यहाँ धर्म को किसी कठोर, रूढ़िवादी दार्शनिक प्रणाली के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है, न ही यह अनावश्यक चमत्कारों और अलौकिक घटनाओं से लिपटा हुआ दिखाई देता है। यहाँ बुद्ध एक चिकित्सक की भाँति सामने आते हैं, जो व्यर्थ के दार्शनिक विवादों और ब्रह्मांडीय कल्पनाओं में उलझने के बजाय कुछ मूलभूत, सार्थक प्रश्न पूछते हैं: “क्या यह दुःख है?”, “क्या इसका कारण है?”, और “क्या इससे छुटकारा संभव है?” इसी स्पष्टता और सरलता में इन सूत्रों की गहराई छिपी हुई है।
EBT को केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि इतिहास के जीवित दस्तावेज भी माना जाता है। यहाँ मुक्ति का मार्ग न रहस्य से ढका है, न जटिलता से भरा — बल्कि सीधा, व्यावहारिक और अनुभव-सिद्ध है। न यहाँ कोई मत थोपे जाते हैं, न आस्था को प्रमाण से ऊपर रखा जाता है; बल्कि अनर्थकारी मान्यताओं को जड़ से उखाड़ा जाता हैं। न किसी दैवी कथा की रचना की जाती है, न अलौकिकता की कोई ज़रूरत जताई जाती है। केवल एक ही आग्रह रहता है — “स्वयं परखो, अपने अनुभव से जानो।”
जब हम पीछे पलटकर बुद्धयुग की ओर देखते हैं, तो वह केवल एक ऐतिहासिक काल नहीं, बल्कि एक जीवंत चेतना का युग प्रतीत होता है — एक ऐसा समय, जब धम्म वाणी में था, लिपि में नहीं; अनुभव में था, ग्रंथों में नहीं। बुद्ध की शिक्षाएँ किसी संस्थागत सिद्धांत से नहीं, बल्कि सीधे संवाद से उपजती थीं। “एवं मे सुतं” से आरंभ होने वाले उपदेश कोई औपचारिक उद्घोषणाएँ नहीं, बल्कि जीवित वार्तालाप के अंश थे। वहाँ श्रोता कोई काल्पनिक पात्र नहीं, बल्कि वास्तविक जिज्ञासु थे। बुद्ध हर व्यक्ति की परिस्थिति और मानसिक अवस्था के अनुरूप उपमा देते — कभी किसान से हल की बात करते, तो कभी राजा को रथ का दृष्टांत सुनाते।
इसीलिए प्रारंभिक सूत्रों में बुद्ध का स्वर इतना सजीव और मानवीय लगता है। हाँ, यह भी सच है कि इनमें ऐसे प्रसंग मिलते हैं जहाँ बुद्ध देवताओं से संवाद करते हैं या किसी दूरस्थ स्थान पर प्रकट हो जाते हैं। परन्तु इन प्रसंगों का उद्देश्य चमत्कार दिखाने की प्रवृत्ति नहीं, बल्कि शिक्षापरक होता है। यहाँ देवता श्रोता होते हैं, नायक नहीं।
इसी तरह, EBT में पुनर्जन्म, स्वर्ग और अपाय (नरक) का उल्लेख भी मिलता है — लेकिन इन्हें रहस्य के रूप में नहीं, नैतिक परिणामों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। पुनर्जन्म बुद्ध के लिए केवल दुःख का विस्तार है — यह बताने का एक तरीका कि यदि लोभ, द्वेष और मोह छूटे नहीं, तो यह चक्र चलता रहेगा। स्वर्ग पुण्य का फल हो सकता है, लेकिन वह अंतिम लक्ष्य नहीं। नरक दुष्कर्म की गंभीरता को दर्शाने वाला प्रतीक है — डरावना हो सकता है, पर शाश्वत दंड नहीं।
यदि आज कोई बुद्ध को केवल ‘समाज सुधारक’ या ‘ध्यान आचार्य’ के रूप में देखता है, तो यह दृष्टि अधूरी है। और यदि कोई उन्हें ‘सर्वज्ञ ईश्वर’ मानता है, तो यह भी अतिशयोक्ति है। बुद्ध ने स्पष्ट कहा कि किसी भी उपदेश को अंधभक्ति से नहीं, बल्कि अनुभव और विवेक से परखना चाहिए।
उन्होंने यह भी निर्देश दिया कि यदि कोई कथित बुद्धवाणी धम्म-विनय के मूल स्वरूप से विपरीत प्रतीत हो, तो उसे त्याग देना चाहिए। इससे यह स्पष्ट होता है कि बुद्ध की दृष्टि में वाणी का सत्य और प्रामाणिकता अधिक महत्वपूर्ण है — न कि वह किसने कही।
इतिहास जब लंबा होता है, तो परंपराएं भारी हो जाती हैं—और सत्य, जो कभी स्वच्छ जल की तरह स्पष्ट था, वह परतों के नीचे छिप सकता है। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या हम आज भी बुद्ध की वाणी को उसकी मूल रूप में पहचान सकते हैं? भिक्षु सुजातो, जो आधुनिक बौद्ध अध्ययन में एक प्रमुख नाम हैं, इस प्रश्न का उत्तर एक सशक्त “हाँ” के साथ देते हैं—लेकिन वह यह “हाँ” किसी चमत्कार पर आधारित नहीं, बल्कि गहन शोध, तुलनात्मक ग्रंथ-विश्लेषण और ऐतिहासिक विवेक पर आधारित है।
भिक्षु सुजातो के अनुसार, प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों (EBT) की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अंतर्निहित एकरूपता दिखाते हैं, भले ही वे विभिन्न भाषाओं और परंपराओं से आए हों। जब हम पाली निकाय, चीनी आगम, गंधारी हस्तलिपियाँ और अन्य स्रोतों की तुलना करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि मूल सुत्तों की भाषा, विषय-वस्तु, शैली और उद्देश्यों में अद्भुत समानता है। यह कोई संयोग नहीं है—बल्कि यह संकेत है कि इनका स्रोत वास्तव में एक समान रहा होगा: स्वयं बुद्ध की वाणी।
इसके अतिरिक्त, सुजातो इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि EBT का अधिकतर भाग किसी भी राजनीतिक या सांस्कृतिक सत्ता की सेवा नहीं करता। बाद के कालों में लिखे गए अनेक ग्रंथ विशेष संप्रदायों या राजा-महाराजाओं के अनुकूल ढले होते हैं—उनमें ‘धर्म’ कहीं-कहीं ‘राजधर्म’ जैसा प्रतीत होता है। लेकिन EBT में कोई सत्ता-समर्थन या संस्थागत पक्षधरता नहीं मिलती। वहाँ केवल एक ही उद्देश्य है—दुःख का निरोध। यह राजनीतिक निरपेक्षता EBT की प्रामाणिकता का मौन प्रमाण है।
भिक्षु सुजातो इस बिंदु पर एक अनोखा दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं: उनका कहना है कि जब नए ग्रंथों की रचना हुई—महायान के सूत्र, तंत्र, और अन्य दार्शनिक अभिधम्म ग्रंथों की—तब भी EBT को न तो मिटाया गया, न ही संशोधित किया गया। वे जैसे थे, वैसे ही छोड़ दिए गए। यह चुप्पी स्वयं में एक स्वीकृति थी—कि मूल ग्रंथ इतने सम्मानित, इतने निर्विवाद और इतने सघन थे कि उन्हें छूने का साहस किसी परंपरा ने नहीं किया। जैसे कोई प्राचीन स्तूप जिसके चारों ओर नए विहार बनते जाते हैं, पर मूल गुम्बज को कोई नहीं छूता।
एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि EBT में बुद्ध की जो छवि प्रस्तुत होती है, वह अत्यंत मानवीय और यथार्थ है। वे न सर्वज्ञ देवता हैं, न चमत्कारी महापुरुष—बल्कि एक शिक्षक, एक चिकित्सक, और एक अन्वेषक के रूप में सामने आते हैं। यह भिन्नता भी EBT और बाद के ग्रंथों के बीच की सीमा को स्पष्ट करती है, क्योंकि जैसे-जैसे समय बीता, बुद्ध की छवि अधिक अलौकिक, अधिक रहस्यमयी होती गई।
संक्षेप में, सुजातो का मत यह है कि यदि हम बुद्ध की वाणी को उसके निकटतम रूप में सुनना चाहते हैं, तो हमें EBT की ओर लौटना चाहिए। यह न तो किसी मत का प्रचार है, न ही किसी संप्रदाय का आग्रह—बल्कि एक साधक के लिए एक आंतरिक आवश्यकता है। और यहीं से यह समझ उपजती है कि EBT केवल ग्रंथ नहीं, एक जीवंत वार्तालाप हैं—बुद्ध और उस साधक के बीच, जो अपने दुःख की जड़ को पहचानना चाहता है।
🔶 6. तीनों धाराओं के लिए प्रश्न: मैं किस बुद्ध को सुन रहा हूँ?
हर साधक, चाहे वह किसी भी परंपरा से जुड़ा हो, कभी न कभी अपने भीतर यह प्रश्न अनुभव करता है—“जिस बुद्ध को मैं सुन रहा हूँ, क्या वह वही बुद्ध हैं जिन्होंने निर्वाण का मार्ग बताया था? या वह बुद्ध हैं जिन्हें परंपराओं, पूजा-पद्धतियों, या दार्शनिक मतभेदों के माध्यम से मुझे बताया गया है?”
नवबौद्धों के लिए यह प्रश्न और भी गूढ़ हो जाता है, क्योंकि उनके धम्म में सामाजिक न्याय की स्पष्ट ध्वनि है। बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने जब बुद्ध को अपनाया, तो वह केवल धर्मांतरण नहीं था—वह एक सामाजिक और आत्मिक मुक्ति की घोषणा थी। लेकिन क्या आज के नवबौद्धों ने बुद्ध को केवल प्रतीक बना दिया है, या उनकी शिक्षाओं के भीतर जाकर यह भी देखा है कि मुक्ति केवल बाहरी नहीं, बल्कि भीतर की क्रांति से आती है? क्या हम बुद्ध के उस स्वर को सुन पा रहे हैं, जो कड़वी सत्ता की आलोचना तो करता है, पर साथ ही अहंकार और द्वेष की भी जड़ काटता है?
विपस्सना साधकों के लिए यह प्रश्न और भी सूक्ष्म है। वे ध्यान करते हैं, चित्त का निरीक्षण करते हैं, दुःख की जड़ों को अनुभव करते हैं—पर क्या वे इस प्रक्रिया के पीछे के धम्म को भी उतनी ही गंभीरता से समझते हैं? क्या वे जानते हैं कि जिस “सतिपट्ठान सुत्त” पर उनकी साधना टिकी है, वह EBT का ही हिस्सा है? और क्या उन्होंने कभी यह भी सोचा है कि बुद्ध का यह मार्ग केवल एक तकनीक नहीं, बल्कि एक समग्र जीवन दृष्टि है—जहाँ शील, समाधि और प्रज्ञा एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं?
परंपरागत या सांस्कृतिक बौद्धों के लिए, जो संभवतः घर के पूजा-स्थल में बुद्ध की मूर्ति के सामने दीप जलाते हैं, यह प्रश्न और भी कोमल है। उन्होंने बुद्ध को शायद परिवार, संस्कृति या परंपरा के माध्यम से जाना है—लेकिन क्या उन्होंने कभी उन शब्दों को भी पढ़ा है जो स्वयं बुद्ध ने बोले थे? क्या वे जानते हैं कि बुद्ध ने कभी आत्मा की बात नहीं की, और उन्होंने किसी भी अंधश्रद्धा या चमत्कार पर भरोसा नहीं किया? क्या वे जान सकते हैं कि बुद्ध को पूजा नहीं, प्रयोग पसंद था?
भिक्षु सुजातो के शब्दों में, “हमारे पास बुद्ध के विचारों को समझने का सबसे सटीक माध्यम EBT हैं—जो उनके शब्दों, शैली, और दृष्टिकोण को बिना किसी फ़िल्टर के हमारे सामने रखते हैं।” इसलिए यह प्रश्न किसी एक संप्रदाय के लिए नहीं, हर बौद्ध के लिए आवश्यक है।
तो क्या आप, मैं, और हम सब यह पूछ सकते हैं—“मैं किस बुद्ध को सुन रहा हूँ?” क्या वह बुद्ध हैं जो सत्ताओं और भ्रमों को तोड़ते हैं, या वे जिनकी छवि हमने अपनी सुविधाओं के अनुरूप गढ़ ली है? क्या वह बुद्ध हैं जिन्होंने दुख की जड़ खोजी, या वे जिन्हें हमने केवल पूजा-पाठ और प्रवचन तक सीमित कर दिया है?
यह प्रश्न आरोप नहीं है, यह आमंत्रण है—बुद्ध के निकट आने का, फिर से सुनने का, और संभव हो तो, उसी मार्ग पर एक बार पुनः चलने का।
🔶 7. निष्कर्ष: धम्म की ओर वापसी — आत्मा की शांति, परंपरा की नहीं इतिहास की यात्रा में परंपराएँ बनती हैं, बिखरती हैं, और फिर नए रूपों में पुनः उभरती हैं। लेकिन धम्म, यदि वह सचमुच धम्म है, तो वह परिवर्तन के पार होता है — वह न तो समय के अधीन है, न ही संप्रदायों की सीमाओं में बंद। आज जब हम प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथों (EBT) की ओर लौटने की बात करते हैं, तो हमारा उद्देश्य कोई प्राचीनता की पूजा करना नहीं, बल्कि उस जीवंत धम्म को पुनः पहचानना है, जो बुद्ध के शब्दों में, “प्रत्यक्ष, कालातीत, आमंत्रणकारी, और समझने योग्य” था।
EBT को पढ़ना कोई पुरातात्विक अभ्यास नहीं है। यह उस बिंदु तक लौटना है जहाँ बुद्ध ने कहा था — “अप्प दीपो भव” — “अपने दीपक स्वयं बनो।” यह लौ हमें न तो किसी संस्था से मिलने वाली है, न किसी देवता से; यह उस अनुभव से जलती है जो दुःख को देखता है, पहचानता है, और उससे बाहर निकलने का उपाय करता है। भिक्षु सुजातो कहते हैं कि EBT हमें बुद्ध की वाणी नहीं, बुद्ध की आँखें देते हैं — वे आँखें जिनसे संसार और स्वयं को देखना संभव होता है।
आज जब बौद्ध धर्म के भीतर सैकड़ों ग्रंथ, परंपराएँ और आचार संहिताएँ मौजूद हैं, तब यह और भी अधिक आवश्यक हो गया है कि हम पूछें — क्या मैं बुद्ध की उस सीधी वाणी को सुन रहा हूँ जो मुक्ति की ओर ले जाती है, या केवल किसी परंपरा की गूंज को दोहरा रहा हूँ? यह प्रश्न केवल आलोचना के लिए नहीं, बल्कि आत्मिक स्पष्टता के लिए है। और यह स्पष्टता तब आती है जब हम ग्रंथों को पुनः पढ़ते हैं, बिना पूर्वग्रह के, और स्वयं अनुभव करने को तैयार होते हैं।
धम्म की ओर लौटना किसी आंदोलन का नारा नहीं है। यह एक साधक की मौन यात्रा है, जहाँ वह बुद्ध से पूछता नहीं, सुनता है। और यदि हम ध्यान से सुनें, तो हमें भी शायद वही शब्द सुनाई दें जो 2500 वर्ष पहले सारनाथ के निर्जन वन में गूंजे थे — “दुःख है, उसका कारण है, उसका निवारण संभव है, और यह है मार्ग।”
बुद्ध की वाणी आज भी जीवित है। वह किसी मंदिर में नहीं, किसी ग्रंथालय की धूल में नहीं, बल्कि हमारे अपने ध्यान, अनुभव और जिज्ञासा में जीवित है। यदि हम तैयार हैं, तो वह हमें पुकार रही है — न परंपरा की शांति के लिए, बल्कि आत्मा की मुक्ति के लिए।
कुछ प्रारंभिक पालि सूत्रों में, जहाँ इन ग्रंथों के संकलन या संग्रह का उल्लेख मिलता है, वहाँ आश्चर्यजनक रूप से ‘निकाय’ के बजाय ‘आगम’ शब्द का प्रयोग किया गया है। तब प्रश्न उठता है कि जब प्रारंभिक “भाणक” या मौखिक परंपरा में ‘आगम’ शब्द प्रचलित था, तो बाद में लिखित पालि साहित्य में इन संग्रहों को ‘निकाय’ क्यों कहा जाने लगा? यह परिवर्तन न केवल भाषिक दृष्टि से रोचक है, बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी जिज्ञासा जगाने वाला है। विशेष रूप से तब, जब ‘निकाय’ शब्द का उपयोग प्रायः भिक्षु संघों के विभाजन या संप्रदायों के लिए भी होता रहा है। ↩︎