नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

सतिपट्ठान | सम्मपधान | इद्धिपाद | इन्द्रिय | बल | बोज्झङ्ग | अट्ठङ्गिक मग्ग

चार ऋद्धिपद

इद्धि (पालि शब्द), जिसे कभी “ऋद्धि”, कभी “शक्ति”, तो कभी “सिद्धि” या “सफलता” भी कहा गया है, उसका कोई एक अर्थ नहीं है जो उसकी सभी परतों को समेट सके।

इद्धिपाद के सन्दर्भ में इसका अर्थ समाधि से उत्पन्न होने वाली अलौकिक ऋद्धियों से है — जैसे कि मनोमय-ऋद्धि (अपने कई काया बनाना), विविध ऋद्धियाँ, दिव्यश्रोत, परचित्त ज्ञान, पूर्व-जन्मों की स्मृति, दिव्यचक्षु, और अन्त में आस्रवों का अन्त।

इनमें से अंतिम शक्ति — आसव-क्खय — ही लोकुत्तर मानी जाती है, जो बोधि मार्ग के लिए अनिवार्य है। शेष शक्तियाँ मार्ग में सहायक हो सकती हैं, पर यदि इन्हें बिना विवेक के अपनाया जाए तो वे लोभ, द्वेष, और मोह को भी जन्म दे सकती हैं।

कुछ अरहन्त भी, जिन्होंने दीर्घकालिक परिणामों का चिंतन न किया हो, इन शक्तियों को अनुचित परिस्थितियों में प्रदर्शित कर बैठते हैं। इसीलिए भगवान बुद्ध ने अपने भिक्खु संघ को इन्हें जनता के समक्ष न दिखाने का निर्देश दिया। बुद्ध ने कहा कि किसी भी प्रकार की चमत्कारिक शक्ति की तुलना में वह धर्म कहीं अधिक अद्भुत है जो अभ्यास करने पर निश्चित रूप से फल देता है।

फिर भी, यह सच है कि ध्यान में कुछ लोग इन शक्तियों को प्राप्त करते हैं। उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है कि इन शक्तियों का उपयोग कैसे करें ताकि ये मार्ग में बाधा नहीं, बल्कि सहायक बनें। इसी उद्देश्य से इद्धिपाद की विधि दी गई है, जो दिखाती है कि कैसे इन शक्तियों का अभ्यास सतिपट्ठान की प्रक्रिया में समाहित हो सकता है, जिससे अन्ततः चित्त आसवों के विनाश की ओर अग्रसर हो।

इद्धिपाद के चार आधारों को दो सूत्रों में बताया गया है: एक संक्षिप्त और एक विस्तृत।

संक्षिप्त सूत्र कहता है:

“चार ऋद्धिपद हैं।

कोई भिक्षु —

  • चाहत (“छन्द”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • ऊर्जा (“वीरिय”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • मानस (“चित्त”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • विवेक (“वीमंस”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है।”

यह सूत्र दर्शाता है कि इन चारों आधारों में तीन तत्व हैं —

  • परिश्रम की रचना (“पधान सङ्खार” = चार सम्यक प्रयास),
  • समाधि,
  • वह मानसिक गुण (छन्द, वीरिय, चित्त, वीमंस) जिस पर वह समाधि आधारित है।

सूत्रों के अनुसार चाहत, ऊर्जा और मानस सभी समाधि-अवस्थाओं में मौजूद होते हैं। लेकिन जब कोई समाधि ‘चाहत’ पर आधारित हो, तो उन तीनों में ‘चाहत’ की प्रधानता होती है।

ध्यान देने की बात यह है कि यह चाहत “भव” (अस्तित्व बनाने) के पक्ष में है। परन्तु जब वह चाहत “अभव” (भव से पार जाने) के पक्ष में हो, तब वह दुःख का कारण नहीं, निर्वाण की ओर बढ़ने वाला साधन बन जाती है। और यदि उस चाहत से ‘असंतोष या व्याकुलता’ भी उत्पन्न हो, तब भी वह ‘कुशल’ ही होता है — क्योंकि वह साधक को निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।

विवेक (“वीमंस” =भेदबुद्धि) समाधि में सदा नहीं होती, पर जब यह सोच-विचार (“वितक्क-विचार”) के स्वरूप में कार्यरत होने लगे, तब यह प्रथम-ध्यान में मौजूद होती है। यह सम्यक-समाधि के पांचवें अंग में निश्चित रूप से आती है और बोधि की ओर ले जाती है। इसी से यह स्पष्ट होता है कि यह गुण समाधि की पूर्णता के लिए आवश्यक है।

विस्तृत सूत्र में बताया गया है कि साधक कैसे इन गुणों को संतुलित करता है:

“कोई भिक्षु चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है, सोचते हुए, ‘मेरी यह चाहत न बहुत मन्द हो, न बहुत तीव्र; न भीतर सिमटी हो, न बाहर बिखरी।’”

(इसी तरह, ऊर्जा, मानस और विवेक के लिए भी…)

यहाँ यह समझाया गया है कि दोष इन गुणों में नहीं है, बल्कि इन्हें अकुशल रूप से प्रयोग करने में है। यदि ये अनुपस्थित हों, तो साधना लक्ष्यहीन हो जाती है। और यदि ये बेलगाम हों, तो चित्त को विखंडित कर देते हैं। इसीलिए इन्हें कुशलतापूर्वक संतुलित करना चाहिए, ताकि ये चित्त को वर्तमान क्षण में केन्द्रित करें।

समाधि साधना में, यदि चाहत को केवल परिणामों की ओर लगाया जाए, तो वह विघ्नकारी बन जाती है। पर यदि चाहत को कारणों की रचना पर केंद्रित किया जाए — जैसे स्मृति, समाधि, प्रज्ञा — तो वही चाहत साधना को सफल बनाती है।

अगले भाग में यह बताया गया है कि ये गुण — चाहत, ऊर्जा, मानस, विवेक — लक्ष्य के विरुद्ध नहीं हैं, बल्कि मार्ग के लिए आवश्यक हैं। परन्तु जब लक्ष्य (निब्बान) प्राप्त हो जाता है, तो ये अपने आप छूट जाते हैं। बुद्ध का मार्ग एक पथ है, वह स्वयं लक्ष्य नहीं। जैसे किसी स्थान की ओर जाने वाला मार्ग उस स्थान को उत्पन्न नहीं करता, वैसे ही ये गुण लक्ष्य को उत्पन्न नहीं करते, केवल उसकी ओर ले जाते हैं।

बुद्ध का अंतिम लक्ष्य एक अरचित (“असङ्खत”) अवस्था है — निर्वाण — जिसे किसी रचित या निर्मित से नहीं पाया जा सकता। परन्तु वहाँ तक जाने का मार्ग रचित होता है, जिसमें इन गुणों का संतुलित प्रयोग आवश्यक होता है।

विस्तृत सूत्र का अंतिम अंश दर्शाता है कि कैसे साधक इन गुणों का उपयोग कर चित्त को उच्चतम जागरूकता की ओर ले जाता है:

“तब वह अपने आगे और पीछे इस नजरिए से देखता है कि जैसा आगे हो, वही पीछे हो, और जैसा पीछे हो, वैसा ही आगे हो; जैसा ऊपर हो, वैसा ही नीचे हो, और जैसा नीचे हो, वैसा ही ऊपर हो। जैसी रात हो, वैसा ही दिन हो, और जैसा दिन हो, वैसी ही रात हो। इस तरह, खुले और बिना-बाधित मानस के सहारे, वह उज्ज्वल चित्त विकसित करता है।”

यह ऐसी स्मृति और समाधि की अवस्था है जो समय और स्थान की सीमाओं से मुक्त होती है। यही वह चित्तवस्था है जिसमें अलौकिक शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं।

लेकिन बुद्ध यहाँ रुकने की सलाह नहीं देते। वे कहते हैं कि साधक को इससे आगे बढ़ना चाहिए। जैसे कि सतिपट्ठान के दूसरे चरण में होता है — जहाँ चित्त सहउत्पत्ति और व्यय को देखता है, और उनकी सीमाओं को पहचान कर उनके पार जाता है।

अगला चरण बताता है कि पूर्ण सिद्धि के लिए यह भावना भी छोड़नी होती है कि “मैं इस शक्ति का स्वामी हूँ” या “मेरा चित्त एकाग्र है”। इसके बजाय चित्त को अमृत की ओर प्रवृत्त किया जाता है। इसका अर्थ है — “जो है, बस वही देखना”, बिना किसी नई कल्पना या संकल्पना के। यही सतिपट्ठान का तीसरा चरण है — शून्यता में प्रवेश, जहाँ केवल यह जाना जाता है कि — “एतं अस्ति…"।

जब यह कुशल विवेक पूर्ण होता है, तब सिद्धि पूर्ण रूप से आत्मसात हो जाती है, और चित्त संस्कारों से परे जाकर बोधि के किनारे पर होता है।

कई लेखों में अक्सर इद्धिपाद की अवहेलना की गई है, क्योंकि इनका संबंध अलौकिक शक्तियों से जोड़ा गया है। परन्तु प्रारंभिक सूत्रों में, इन्हें व्यापक रूप से सिद्धि और सफलता के साधन माना गया है — चाहे वह सांसारिक कार्य हो या धर्म साधना।

किसी भी कार्य में — यदि सफलता चाहिए — तो छन्द, वीरिय, चित्त, और वीमंस को सम्यक प्रयास और समाधि के साथ संतुलित करना ही होगा। यही इद्धिपाद की सार्थकता है।

बुद्ध वचन

आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भंते, ऋद्धि क्या है? ऋद्धिपद क्या है? ऋद्धिपद की साधना क्या है? और ऋद्धिपद का साधनामार्ग क्या है?”

भगवान ने आयुष्मान आनन्द से कहा:

ऋद्धि क्या है?

(१) ऐसा होता है, आनन्द, कि कोई भिक्षु विविध प्रकार की ऋद्धियों को वश करता है — वह एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है।

(२) वह अपने विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।

(३) वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ विस्तारित चित्त पता चलता है कि ‘विस्तारित चित्त है।’ अविस्तारित चित्त पता चलता है कि ‘अविस्तारित चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’

(४) वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म अनुस्मरण करता है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।

(५) वह अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।

(६) वह आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार करता है।

ये ऋद्धियाँ हैं।


और, ऋद्धिपद क्या है?

जो मार्ग, जो साधना ऋद्धि पाने की ओर बढ़ती है, उसे वश करने की ओर बढ़ती है, वही ऋद्धिपद है।


और, ऋद्धिपद की साधना क्या है?

ऐसा होता है कि कोई भिक्षु —

  • चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • ऊर्जा और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • मानस और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • विवेक और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है।

यह ऋद्धिपद की साधना हैं।


और, ऋद्धिपद की साधना मार्ग क्या हैं?

बस यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात —

  • सही दृष्टि,
  • सही संकल्प,
  • सही वचन,
  • सही कार्य,
  • सही जीविका,
  • सही प्रयास,
  • सही स्मृति,
  • सही समाधि।”

परिश्रम की रचना

“जब कोई भिक्षु चाहत (“छन्द”) के आधार पर समाधि प्राप्त करता है, चित्त की एकाग्रता पाता है, तो उसे “चाहत पर आधारित समाधि” कहते हैं। वह चाहत पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है, ताकि — अनुत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव उत्पन्न न हो… उत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव छुट जाए… अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न हो… उत्पन्न कुशल स्वभाव टिके रहे, आगे आए, वृद्धि हो, प्रचुरता आए, विकसित होकर परिपूर्ण हो जाए। इन्हें परिश्रम की रचना कहते हैं। यह चाहत है, यह चाहत पर आधारित समाधि है, यह परिश्रम की रचना है। इसे “चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल” कहते हैं।

इसी तरह, जब कोई भिक्षु ऊर्जा (“वीरिय”) के आधार पर… मानस (“चित्त”) के आधार पर… विवेक (“वीमंस”) के आधार पर समाधि प्राप्त करता है, चित्त की एकाग्रता पाता है, तो उसे “ऊर्जा… मानस… विवेक पर आधारित समाधि” कहते हैं। वह चाहत पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है, ताकि — अनुत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव उत्पन्न न हो… उत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव छुट जाए… अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न हो… उत्पन्न कुशल स्वभाव टिके रहे, आगे आए, वृद्धि हो, प्रचुरता आए, विकसित होकर परिपूर्ण हो जाए। इन्हें परिश्रम की रचना कहते हैं। यह ऊर्जा… मानस… विवेक है, यह ऊर्जा… मानस… विवेक पर आधारित समाधि है, यह परिश्रम की रचना है। इसे “ऊर्जा… मानस… विवेक और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल” कहते हैं।”

— संयुत्तनिकाय ५१:१३ : छन्दसमाधि सुत्त


फलदायी साधना

“जब ये चार ऋद्धिपदों की साधना की जाती हैं, उन्हें विकसित किया जाता है, तो वह महाफलदायी, महापुरस्कारी होता है। कैसे?

कोई भिक्षु चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है, सोचते हुए, ‘मेरी यह चाहत न बहुत मन्द हो, न बहुत तीव्र; न भीतर सिमटी हो, न बाहर बिखरी।’ तब वह अपने आगे और पीछे इस नजरिए से देखता है कि जैसा आगे हो, वही पीछे हो, और जैसा पीछे हो, वैसा ही आगे हो; जैसा ऊपर हो, वैसा ही नीचे हो, और जैसा नीचे हो, वैसा ही ऊपर हो। जैसी रात हो, वैसा ही दिन हो, और जैसा दिन हो, वैसी ही रात हो। इस तरह, खुले, बिना-बाधित मानस के सहारे, वह उज्ज्वल चित्त विकसित करता है।

वह ऊर्जा… मानस… विवेक और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है, सोचते हुए, ‘मेरी यह ऊर्जा… मेरा यह मानस… मेरा यह विवेक न बहुत मन्द हो, न बहुत तीव्र; न भीतर सिमटी हो, न बाहर बिखरी।’ तब वह अपने आगे और पीछे इस नजरिए से देखता है कि जैसा आगे हो, वही पीछे हो, और जैसा पीछे हो, वैसा ही आगे हो; जैसा ऊपर हो, वैसा ही नीचे हो, और जैसा नीचे हो, वैसा ही ऊपर हो। जैसी रात हो, वैसा ही दिन हो, और जैसा दिन हो, वैसी ही रात हो। इस तरह, खुले और बिना-बाधित मानस के सहारे, वह उज्ज्वल चित्त विकसित करता है।

• और, कैसे चाहत बहुत मन्द (“अतिलीनो छन्दो”) होती है? जो भी चाहत आलस्य के साथ आती है, आलस्य से जुड़ी होती है, उसे बहुत मन्द चाहत कहते हैं।

• और, कैसे चाहत बहुत तीव्र (“अतिप्पग्गहितो छन्दो”) होती है? जो भी चाहत बेचैनी के साथ आती है, बेचैनी से जुड़ी होती है, उसे बहुत तीव्र चाहत कहते हैं।

• और, कैसे चाहत भीतर सिमटी (“अज्झतं संखित्तो छन्दो”) होती है? जो भी चाहत सुस्ती और तंद्रा के साथ आती है, सुस्ती और तंद्रा से जुड़ी होती है, उसे भीतर सिमटी हुई चाहत कहते हैं।

• और, कैसे चाहत बाहर बिखरी (“बहिद्धा विक्खित्तो छन्दो”) होती है? जो भी चाहत पाँच कामभोग की उत्तेजना के साथ आती है, बाहर की ओर बिखर कर विलीन होती है, उसे बाहर बिखरी हुई चाहत कहते हैं।

• और, कैसे कोई अपने आगे और पीछे इस नजरिए से देखता है कि जैसा आगे हो, वही पीछे हो, और जैसा पीछे हो, वैसा ही आगे हो? ऐसा होता है कि भिक्षु उसके आगे और पीछे का नजरिया अच्छे से धारण करता है, अच्छे से ध्यान देता है, अच्छे से ग्रहण करता है, अच्छे से (भीतर) प्रज्ञापूर्वक उतारता है। इस तरह कोई अपने आगे और पीछे इस नजरिए से देखता है कि जैसा आगे हो, वही पीछे हो, और जैसा पीछे हो, वैसा ही आगे हो।

• और, कैसे कोई अपने आगे और पीछे इस नजरिए से देखता है कि जैसा ऊपर हो, वैसा ही नीचे हो, और जैसा नीचे हो, वैसा ही ऊपर हो? ऐसा होता है कि भिक्षु अपनी काया को पैर तल से ऊपर, माथे के केश से नीचे, त्वचा से ढ़की हुई, नाना प्रकार की गंदगियों से भरी हुई मनन करता है —

अत्थि इमस्मिं काये:
मेरी इस काया में है:

केसा लोमा नखा दन्ता तचो
केश, लोम, नाखून, दाँत, त्वचा

मंसं न्हारु अट्ठी अट्ठिमिञ्जं वक्कं
माँस, नसें, हड्डी, हड्डीमज्जा, तिल्ली

हदयं यकनं किलोमकं पिहकं पप्फासं
हृदय, कलेजा, झिल्ली, गुर्दा, फेफड़ा

अन्तं अन्तगुणं उदरियं करीसं मत्थलुङगं
आँत, छोटी-आँत, उदर, टट्टी, मस्तिष्क

पित्तं सेम्हं पुब्बो लोहितं सेदो मेदो
पित्त, कफ, पीब, रक्त, पसीना, चर्बी

अस्सु वसा खेळो सिङघाणिका लसिका मुत्तं!
आँसू, तेल, थूक, बलगम, जोड़ो में तरल, एवं मूत्र।


इस तरह कोई अपने ऊपर और नीचे इस नजरिए से देखता है कि जैसा ऊपर है, वैसा ही नीचे है, और जैसा नीचे है, वैसा ही ऊपर हैं।

• और, कैसे कोई रात को दिन जैसे बिताता है, और दिन को रात जैसे? ऐसा होता है कि कोई भिक्षु दिन के समय जिस आकृति, लक्षण और निमित्त का उपयोग कर के चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है, रात के समय भी वह उसी आकृति, लक्षण और निमित्त का उपयोग कर के चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है। वह रात के समय जिस आकृति, लक्षण और निमित्त का उपयोग कर के चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है, दिन के समय भी वह उसी आकृति, लक्षण और निमित्त का उपयोग कर के चाहत और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है। इस तरह वह रात को दिन जैसे बिताता है, और दिन को रात जैसे।

• और, कैसे कोई खुले, बिना-बाधित मानस के सहारे, उज्ज्वल चित्त को विकसित करता है? ऐसा होता है कि कोई भिक्षु (दिन-रात किसी भी समय) उजाले के नजरिए (“आलोक-सञ्ञा”), दिन के नजरिए (“दिवा-सञ्ञा”) को (अपने भीतर) अच्छे से धारण करता है, अच्छे से स्थापित करता है। इस तरह, कोई खुले, बिना-बाधित मानस के सहारे उज्ज्वल चित्त को विकसित करता है।

(इसी तरह, ऊर्जा… मानस… और विवेक के लिए भी यही सूत्र फिर दोहराया जाता है।)

जब कोई भिक्षु इस तरह चार ऋद्धिपद की साधना करता है, विकसित करता है, तब वह विविध ऋद्धियों को वश करता है — वह एक होकर अनेक बनता है… अपने विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो… अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है… अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म अनुस्मरण करता है… अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखता है… आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार करता है।

इस तरह, जब इन चार ऋद्धिपदों की साधना की जाती हैं, उन्हें विकसित किया जाता है, तो वह महाफलदायी, महापुरस्कारी होता है।”

— संयुत्तनिकाय ५१:२० : इद्धिपाद विभङ्ग सुत्त


चाहत को चाहत से खत्म करना

ऐसा मैंने सुना — एक समय [शायद भगवान के परिनिर्वाण के पश्चात] आयुष्मान आनन्द कौशांबी के घोषित विहार में रह रहे थे। तब उण्णाभ ब्राह्मण आयुष्मान आनन्द के पास गया और उनसे मैत्रीपूर्ण हालचाल लिया। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वह एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर उसे आयुष्मान आनन्द से कहा, “आनन्द गुरुजी, श्रमण गौतम के ब्रह्मचर्य का लक्ष्य क्या है?”

“श्रमण गौतम के ब्रह्मचर्य का लक्ष्य चाहत (“छन्द”) को त्यागना है।”

“लेकिन क्या चाहत को त्यागने का कोई मार्ग है, कोई साधना है?”

“हाँ।”

“क्या है वह मार्ग, वह साधना?”

“ऐसा होता है कि कोई भिक्षु — चाहत… ऊर्जा… मानस… विवेक और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है। यही चाहत को त्यागने का मार्ग है, यही साधना है।”

“यदि ऐसा हो, तो वह मार्ग अनन्त है, कभी समाप्त नहीं होगा। क्योंकि चाहत को चाहत से त्याग पाना असंभव है।”

“अच्छा, ब्राह्मण, मैं तुम से प्रतिप्रश्न करता हूँ। जैसे तुम्हें ठीक लगे, वैसा उत्तर दें। क्या तुम्हें (यहाँ आने से) पहले चाह नहीं पैदा हुई, ‘मैं विहार में जाऊंगा’? और जब तुम यहाँ विहार में पहुँच गए, तो क्या तुम्हारी चाहत पूरी नहीं हुई?’

“हाँ, हुई, गुरुजी।”

“क्या तुम्हें (यहाँ आने से) पहले ऊर्जा… मानस… विवेक नहीं पैदा हुआ, ‘मैं विहार में जाऊंगा,’? और जब तुम यहाँ विहार में पहुँच गए, तो क्या तुम्हारी ऊर्जा… मानस… विवेक शांत नहीं हुआ?’

“हाँ, हुआ, गुरुजी।”

“उसी तरह, जो भिक्षु अरहंत होते हैं, आस्रव खत्म करते हैं, ब्रह्मचर्य परिपूर्ण करते हैं, कर्तव्य समाप्त करते हैं, बोझ को नीचे रखते हैं, परम-ध्येय प्राप्त करते हैं, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ देते हैं, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त होते हैं, उनका अरहत्व पाने के लिए जो भी चाहत… ऊर्जा… मानस… विवेक होता है, अरहत्व पाने पर उनकी वह चाहत… ऊर्जा… मानस… विवेक शांत हो जाता है। तो तुम्हें क्या लगता है, ब्राह्मण? क्या यह मार्ग अनन्त है, अथवा अन्तपूर्ण?”

“आप सही है, आनन्द गुरुजी। यह मार्ग अन्तपूर्ण ही है, अनन्त नहीं।”

— संयुत्तनिकाय ५१:१५ : उण्णाभब्राह्मण सुत्त


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