नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

सतिपट्ठान | सम्मपधान | इद्धिपाद | इन्द्रिय | बल | बोज्झङ्ग | अट्ठङ्गिक मग्ग

पाँच इंद्रिय

पाँच इंद्रिय हैं —

  • श्रद्धा इंद्रिय
  • ऊर्जा इंद्रिय
  • स्मृति इंद्रिय
  • समाधि इंद्रिय
  • प्रज्ञा इंद्रिय

बौद्ध परंपरा में अनेक इन्द्रियों का वर्णन मिलता है — शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। लेकिन यहाँ जिन पाँच इन्द्रियों की चर्चा है, वे विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक हैं, जो संबोधि प्राप्ति के लिए चित्त में विकसित की जाती हैं।

इन्हें “इन्द्रिय” कहा गया है क्योंकि ये चित्त पर नियंत्रण और नेतृत्व की भूमिका निभाती हैं। “इन्द्रिय” शब्द स्वयं “इन्द्र” से जुड़ा है — तैतीस देवों का राजा — जिससे इसमें प्रभुता, सत्ता और शासन का भाव समाहित होता है।

कुछ सूत्रों में भगवान ने इन पाँच इन्द्रियों को ‘बोधिपक्खिय धम्म’ कहा है। दरअसल, सभी ३७ बोधिपक्खिय धर्म इन्हीं पाँच इंद्रियों में समाहित हैं, विशेषतः श्रद्धा, जो अन्य समूहों में उतनी प्रत्यक्ष नहीं है।

इन पाँच इन्द्रियों को एक रूपक से समझना सहज है। जैसे किसी दुर्बल व्यक्ति की मांसपेशियाँ प्रारंभ में बलहीन होती हैं — वह भारी वस्तुएँ नहीं उठा सकता, शीघ्र थक जाता है और आत्मबल की कमी अनुभव करता है। लेकिन जब वह नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार अपनाता है, तो वही मांसपेशियाँ क्रमशः सशक्त होने लगती हैं। उनके सुडौल होने के साथ-साथ उसके शरीर में शक्ति, संतुलन और आत्मविश्वास आता है; वह अधिक भार उठाने और कठिन परिश्रम करने में समर्थ हो जाता है।

ठीक इसी प्रकार, आर्य मार्ग में इन पाँच इन्द्रियों — श्रद्धा, ऊर्जा, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा — को भी साधना के माध्यम से सशक्त करना होता है। प्रारंभ में चित्त अस्थिर, चंचल और दुर्बल होता है, पर निरंतर अभ्यास से ये इन्द्रियाँ धीरे-धीरे बलवती होती हैं, और चित्त को भीतर से सुडौल बनाकर साधक के अंदर एक स्थायी आध्यात्मिक सामर्थ्य का विकास करती हैं। यही सामर्थ्य उसे आर्य पुरस्कारों की ओर अग्रसर करता है — जहाँ अंतर्ज्ञान (प्रज्ञा) के आलोक में अविद्या का क्षय होता है, और दुःख का वास्तविक अंत प्रारंभ होता है।

इन इन्द्रियों के बीच एक परस्पर-निर्भर प्रक्रिया चलती है:

  • श्रद्धा से ऊर्जा उत्पन्न होती है
  • ऊर्जा से स्मृति सुदृढ़ होती है
  • स्मृति से समाधि जन्मती है
  • समाधि से प्रज्ञा उत्पन्न होती है

यह क्रम केवल एक सीधा अनुक्रम नहीं है, बल्कि एक चक्र की तरह गतिशील है। जब यह प्रज्ञा परिपक्व होकर परम ज्ञान में रूपांतरित होती है, तब साधक प्रथम आर्य फल — श्रोतापत्ति — को प्राप्त करता है। यह प्रत्यक्ष अनुभव घूमकर पुनः श्रद्धा को सशक्त बनाता है, जिससे अधिक ऊर्जा, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा उपजने लगती है, जो अगला आर्यफल प्रकट कराने का रास्ता खोलती है। इस तरह यह चक्र गतिशील होते हुए सशक्त होता जाता है — तब तक, जब तक साधक क्रमशः सभी आर्य फलों को प्राप्त कर अरहत्त्व तक न पहुँच जाए।

इस प्रक्रिया की जड़ में जो श्रद्धा है, वह कोई अंधविश्वास या केवल भावनात्मक लगाव नहीं है। यह श्रद्धा टिकती है तीन मुख्य आधारों पर —

  • बुद्ध तथा उनके शिष्य सत्पुरुषों की योग्यता और संबोधि में विश्वास,
  • उनके उपदेशों की सत्यता और मार्गदर्शन में अडिग आस्था,
  • और इन उपदेशों को अपने जीवन में उतारने की प्रामाणिक इच्छा।

बौद्ध परंपरा में श्रद्धा का केंद्र है — बुद्ध का स्वयं बोधि प्राप्त करना, और यह गहन समझ कि उन्होंने कर्म के नियमों को आधार बनाकर स्वयं को संसार के चक्र से मुक्त किया। अतः बौद्ध श्रद्धा कोई धार्मिक मान्यता नहीं, बल्कि एक सजीव, क्रियाशील विश्वास है। ऐसा विश्वास जिसे केवल हृदय में धारण करना पर्याप्त नहीं, बल्कि जिसे व्यवहार में उतारना अनिवार्य है।

जहाँ अन्य परंपराएँ मुक्ति को ईश्वर की कृपा से प्राप्त होने वाली वस्तु मानती हैं, वहीं बौद्ध धर्म में मुक्ति की सम्पूर्ण जिम्मेदारी स्वयं साधक की होती है। यह श्रद्धा ही उसे प्रेरित करती है कि वह बुद्ध के मार्ग पर स्वयं चले — अपने कुसंस्कारों को अभ्यास द्वारा रूपांतरित करे और अंततः निर्वाण को प्राप्त करे।

श्रद्धा से उत्पन्न ऊर्जा ही वह प्रारंभिक बल है, जो साधक को साधना में आगे बढ़ाती है। यही ऊर्जा स्मृति को दृढ़ करती है — अभ्यास में निरंतरता और जागरूकता की गुणवत्ता को सशक्त करती है। जब स्मृति स्पष्ट, स्थिर और निरंतर हो जाती है, तब वह समाधि का आधार बनती है — विशेष रूप से चार ध्यान (“झान”) अवस्थाओं में प्रवेश के लिए आवश्यक भूमि तैयार करती है।

ध्यान की ये अवस्थाएँ चित्त को भीतर तक स्थिर और निर्मल करती हैं। इस निर्मल चित्त से ही प्रज्ञा जन्म लेती है — जो मुक्तिपथ की अंतिम और निर्णायक सीढ़ी है।

जब यह प्रज्ञा पूर्ण रूप से विकसित हो जाती है, तब वह साधक को प्रत्यक्ष अनुभव के माध्यम से सत्य का ऐसा बोध कराती है, जो चित्त को गहन विराग में डुबो देता है — और सांसारिक तृष्णाओं व आसक्तियों से मुक्त करता है। यह अंततः आर्यफल की प्राप्ति का द्वार खोलता है। यह अनुभव न केवल पूर्व में अर्जित श्रद्धा को दृढ़ करता है, बल्कि उसे और भी अधिक गहराई, स्थिरता और जीवंतता प्रदान करता है। परिणामस्वरूप, चित्त में नई ऊर्जा, तीव्र स्पष्टता और जागरूकता उत्पन्न होती है — और साधना का प्रवाह एक नवीन, उच्चतर परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है।

इस पूरे अभ्यास का मुख्य प्रेरक तत्व है — अप्पमाद, अर्थात अप्रमाद या लापरवाह न होना। यह मात्र सतर्कता या सावधानी नहीं, बल्कि एक संवेगात्मक सजगता है — जो गहराई से जानती है कि जन्म-मरण के चक्र में कितना अंधकार, संकट और दुख निहित है; और यह भी कि एक क्षण की लापरवाही साधक को पुनः उसी चक्र में बाँध सकती है। यही अप्पमाद वह आध्यात्मिक शक्ति है जो साधक को अभ्यास में निष्ठा, ऊर्जस्विता और निरंतरता प्रदान करती है।

ऊर्जा के संतुलन को लेकर एक प्रसिद्ध दृष्टांत वीणा की तार से दिया जाता है: साधना में प्रयास न तो शिथिल हो, न अत्यधिक कठोर — जैसे वीणा की मुख्य तार को पहले ‘सम’ किया जाता है, और फिर अन्य तारों को उसी सुर में साधा जाता है। उसी प्रकार, जब साधक अपनी ऊर्जा को समत्व में लाता है, तभी वह अपनी इंद्रियों को भी उसी लय में ढाल सकता है। यही संतुलन उसे ध्यान के आलंबनों — जैसे चार स्मृतिप्रस्थानों — को व्यवस्थित रूप से विकसित करने की सामर्थ्य प्रदान करता है।

प्रज्ञा को लेकर कहा गया है कि जब वह परिपक्व हो जाती है, तब साधक को यह भी पहचानना होता है कि इस प्रज्ञा से कैसे पार जाया जाए। यह बौद्ध परंपरा की गहराई है — कि वह यहां तक कहती है कि कुशल गुणों से भी अंततः पार जाना होता है। अंतिम मुक्ति केवल कुशल गुणों के विकास से नहीं, बल्कि उनसे पार जाने की क्षमता से संभव होती है। प्रज्ञा, चित्त को मुक्ति की ओर ले जाने वाला प्रकाश है — लेकिन अंतिम बंधन तभी टूटता है जब चित्त किसी भी दृष्टि, किसी भी धारण या यहां तक कि अपनी प्रज्ञा को भी पकड़ना छोड़ देता है।

ब्रह्मजाल सुत्त में बुद्ध का यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है — कि वे किसी भी दृष्टि को उसके प्रभाव के आधार पर देखते हैं, न कि केवल उसकी विषयवस्तु पर टिकते हैं। इसलिए वे जानते हैं, पर आसक्त नहीं होते। यही वह निर्विकल्प शून्यता की स्थिति है — जहाँ से निर्वाण का द्वार खुलता है।

इन पाँच इन्द्रियों का भी उद्देश्य यही है — अमृत की प्राप्ति। वे साधना के उपकरण हैं, स्वयं लक्ष्य नहीं। इन्हें कुशलता से विकसित करना आवश्यक है, किंतु साथ ही यह भी समझना होता है कि एक समय ऐसा भी आता है जब इन्हें भी पीछे छोड़ना होता है।

बुद्ध वचन

“ये पाँच इंद्रियाँ हैं। कौन-से पाँच?

  • श्रद्धा इंद्रिय
  • ऊर्जा इंद्रिय
  • स्मृति इंद्रिय
  • समाधि इंद्रिय
  • प्रज्ञा इंद्रिय

यह श्रद्धा इंद्रिय कहाँ देखी जाती है? श्रद्धा इंद्रिय श्रोतापन्न के चार अंगों में देखी जाती है।

यह ऊर्जा इंद्रिय कहाँ देखी जाती है? ऊर्जा इंद्रिय चार सम्यक परिश्रम में देखी जाती है।

यह स्मृति इंद्रिय कहाँ देखी जाती है? स्मृति इंद्रिय चार स्मृतिप्रस्थान में देखी जाती है।

यह समाधि इंद्रिय कहाँ देखी जाती है? समाधि इंद्रिय चार ध्यान में देखी जाती है।

यह प्रज्ञा इंद्रिय कहाँ देखी जाती है? प्रज्ञा इंद्रिय चार आर्यसत्यों में देखी जाती है।”

— संयुक्तनिकाय ४८ : ८


श्रोतापति के चार अंग

श्रोतापति के चार अंग क्या हैं?

  • सत्पुरुष से संगति,
  • सद्धर्म का श्रवण,
  • उचित चिंतन,
  • धर्मानुसार धर्म की साधना।

— संयुक्तनिकाय ५५ : ५


श्रोतापन्न के चार अंग

कोई आर्यश्रावक श्रोतापन्न के कौन-से चार अंगों से संपन्न होता है?

  1. ऐसा होता है कि किसी आर्यश्रावक को बुद्ध पर आस्था सत्यापित होती है कि ‘वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’
  2. उसे धर्म पर आस्था सत्यापित होती है कि ‘वाकई भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, कालातीत है, आजमाने योग्य, परे ले जाने वाला, समझदार द्वारा अनुभव योग्य!’
  3. उसे संघ पर आस्था सत्यापित होती है कि ‘वाकई भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है, सीधे मार्ग पर चलता है, यथार्थ मार्ग पर चलता है, उचित मार्ग पर चलता है। चार जोड़ी में, आठ प्रकार के आर्यजन — यही भगवान का श्रावकसंघ है — उपहार योग्य, सत्कार योग्य, दक्षिणा योग्य, वंदना योग्य, दुनिया के लिए अनुत्तर पुण्यक्षेत्र!’
  4. वह आर्यपसंद शील से संपन्न होता है — जो अखंडित रहें, अछिद्रित रहें, बेदाग रहें, बेधब्बा रहें, निष्कलंक रहें, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो, और समाधि की ओर बढ़ाते हो।

— अंगुत्तरनिकाय १०:९२


श्रद्धा-इंद्रिय क्या है?

“ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति में श्रद्धा होती है। तथागत की बोधि को लेकर वह आश्वस्त होता है — ‘वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’

यह उसकी श्रद्धाइंद्रिय है।

जिसे बुद्ध शिक्षा (“बुद्धसासन”) पर श्रद्धा हो, जो गहराई को भेदने के लिए जीता हो, उसे धर्मानुसार ऐसा लगता है — ‘भगवान शास्ता है, मैं तो श्रावक हूँ! भगवान जानते हैं, मैं नहीं!’ जिसे शास्ता की शिक्षा में श्रद्धा हो, जो गहराई को भेदने के लिए जीता हो, उसे शास्ता की शिक्षा स्वास्थ्यवर्धन और पोषण देती है।

जिस व्यक्ति को शास्ता की शिक्षा में श्रद्धा हो, जो गहराई को भेदने के लिए जीता हो, उसे धर्मानुसार ऐसा लगता है — ‘मैं ख़ुशी से अपना रक्त और मांस सूखा दूँ, मात्र नसें और कंकाल ही छोड़ूँ! परंतु मैं जब तक वह न पा लूँगा, जिसे पौरुष-दृढ़ता, पौरुष-ऊर्जा, और पौरुष-प्रयास से पाया जाता है — तब तक अपनी ऊर्जा को राहत नहीं दूँगा!’

इस तरह जिस व्यक्ति को शास्ता की शिक्षा में श्रद्धा हो, जो गहराई को भेदने के लिए जीता हो, उसे दो में से एक फ़ल अपेक्षित होता है — अभी यही परम ज्ञान [=अरहन्तफ़ल], अथवा आधार शेष बचने पर अनागामिता।”

— संयुक्तनिकाय ४८ : १० : इन्द्रियसंयुत्त : दूतियविभङ्ग सुत्त


ऊर्जा-इंद्रिय क्या है?

“ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति ऊर्जा जगाकर रहता है —

  • अकुशल स्वभाव को त्यागने के लिए, और
  • कुशल स्वभाव को धारण करने के लिए।

वह निश्चयबद्ध, दृढ़, और पराक्रमी होता है; कुशल स्वभाव के प्रति कर्तव्य से जी नहीं चुराता।

और, फिर —

  • वह अनुत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव उत्पन्न न हो — उसके लिए कोई चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।
  • वह उत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव छोड़ने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।
  • वह अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न करने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।
  • वह उत्पन्न कुशल स्वभाव टिकाए रखने, आगे लाने, वृद्धि करने, प्रचुरता लाने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।

यह उसकी ऊर्जाइंद्रिय है।”

— संयुक्तनिकाय ४८ : १० : इन्द्रियसंयुत्त : दूतियविभङ्ग सुत्त


स्मृति-इंद्रिय क्या है?

“ऐसा होता है कि कोई आर्यश्रावक स्मृतिमान होता है, याददाश्त में बहुत तेज़! पूर्वकाल में किया गया कर्म, पूर्वकाल में कहा गया वचन भी स्मरण रखता है, और अनुस्मरण कर पाता है।

और, तब वह दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाकर —

  • काया को काया देखते हुए रहता है
  • संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है
  • चित्त को चित्त देखते हुए रहता है
  • स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है

— तत्पर, सचेत और स्मरणशील।

इस तरह, कोई स्मृतिसंपन्न रहता है। यह उसकी स्मृतिइंद्रिय है।"

— संयुक्तनिकाय ४८ : १० : इन्द्रियसंयुत्त : दूतियविभङ्ग सुत्त


समाधि-इंद्रिय क्या है?

  • “ऐसा होता है कि कोई आर्यश्रावक त्याग-आलंबन बनाकर समाधि लगाता है और चित्त को एकाग्र करता है। वह काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त — सोच और विचार के साथ, निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले प्रथम-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।
  • आगे, सोच और विचार रुक जाने पर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर बिना-सोच बिना-विचार, समाधि से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले द्वितीय-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।
  • तब, आगे वह प्रफुल्लता से विरक्ति ले, स्मरणशीलता और सचेतता के साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं — वह उस तृतीय-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।
  • आगे, वह सुख और दर्द दोनों ही हटाकर, खुशी और परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने से, अब नसुख-नदर्दवाले, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश कर रहता है।

— यह उसकी समाधि इंद्रिय है।”

— संयुक्तनिकाय ४८ : १० : इन्द्रियसंयुत्त : दूतियविभङ्ग सुत्त


प्रज्ञा-इंद्रिय क्या है?

“ऐसा होता है कि किसी साधक में आर्य और भेदक अन्तर्ज्ञान होता है — उदय-व्यय पता लगने योग्य, दुःखों का सम्यक अंतकर्ता —

  • और उसे यथास्वरूप पता चलता है, ‘यह दुःख है’
  • उसे यथास्वरूप पता चलता है, ‘यह दुःख की उत्पत्ति है’
  • उसे यथास्वरूप पता चलता है, ‘यह दुःख का निरोध है’
  • उसे यथास्वरूप पता चलता है, ‘यह दुःख का निरोधकर्ता मार्ग है’।

— यह उसकी प्रज्ञा इंद्रिय है।”

— संयुक्तनिकाय ४८ : १० : इन्द्रियसंयुत्त : दूतियविभङ्ग सुत्त


चक्र घूमना

भगवान ने सारिपुत्त भंते से पूछा, “सारिपुत्त, जो आर्यश्रावक तथागत से भलीभाँति प्रेरित हो, जो (शरण के लिए) केवल तथागत के पास गया हो, क्या उसे तथागत के प्रति या तथागत की शिक्षा के प्रति कोई शंका या उलझन होगी?”

तब, सारिपुत्त भंते ने उत्तर दिया —

“नहीं, भंते! जो आर्यश्रावक तथागत से भलीभाँति प्रेरित हो, जो केवल तथागत के पास गया हो, उसे तथागत के प्रति या तथागत की शिक्षा के प्रति कोई शंका या उलझन नहीं होगी।

जिस आर्यश्रावक में श्रद्धा हो, उससे वाकई उम्मीद की जा सकती है कि वह अकुशल स्वभावों का त्याग करने के लिए और कुशल स्वभावों को आत्मसात करने के लिए अपनी जान लगा देगा। वह अपने प्रयास में निश्चयबद्ध, दृढ़ और पराक्रमी होगा, और कुशल स्वभाव के प्रति अपने कर्तव्य से जी नहीं चुराएगा। उसका जो भी वीर्य (ऊर्जा) होगा, वही उसकी ऊर्जा-इंद्रिय है।

जिस आर्यश्रावक में श्रद्धा हो, जिसकी ऊर्जा जग चुकी हो, उससे वाकई उम्मीद की जा सकती है कि वह स्मृतिमान हो जाएगा, याददाश्त में बहुत तेज़! वह पूर्वकाल में किया गया कर्म, कहे गए वचनों को भी स्मरण रखेगा, और उनका अनुस्मरण कर पाएगा। उसकी जो भी स्मृति होगी, वही उसकी स्मृति-इंद्रिय है।

जिस आर्यश्रावक में श्रद्धा हो, जिसकी ऊर्जा जग चुकी हो, जिसकी स्मृति स्थापित हो चुकी हो, उससे वाकई उम्मीद की जा सकती है कि वह त्याग-आलंबन बनाकर समाधि लगाएगा, चित्त को एकाग्र करेगा। उसकी जो भी समाधि होगी, वही उसकी समाधि-इंद्रिय है।

जिस आर्यश्रावक में श्रद्धा हो, जिसकी ऊर्जा जग चुकी हो, जिसकी स्मृति स्थापित हो चुकी हो, जिसका चित्त सम्यक रूप से समाहित हो चुका हो, उससे वाकई उम्मीद की जा सकती है कि उसे पता चले — ‘जन्म-जन्मांतरण की शुरुवात सोच के परे है। संसरण की निश्चित शुरुवात पता नहीं चलती, परंतु अविद्या में डूबे, तृष्णा में फँसे सत्व जन्म-जन्मांतरण में भटक रहे हैं। उस अविद्या-रुपी ‘अँधेरे पिंड’ का बिना शेष बचे विराग होना, निरोध होना — यही शान्ति है, यही सर्वोत्कृष्ट है — सभी रचनाओं का रुकना, सभी अर्जित वस्तुओँ का परित्याग, तृष्णा का अंत, विराग, निरोध, निर्वाण!’ उसकी जो भी प्रज्ञा होगी, वही उसकी प्रज्ञा-इंद्रिय है।

और इस तरह वह आश्वस्त आर्यश्रावक बार-बार प्रयास करते हुए, बार-बार स्मृति जगाते हुए, बार-बार चित्त को एकाग्र करते हुए, बार-बार प्रज्ञापूर्वक जानते हुए, अंततः पूरी तरह से आश्वस्त हो जाएगा — ‘जिस धर्म को मैंने पहले सिर्फ सुना था, अब मैं उसे अपने इसी जीवन में अपनी काया से छूते हुए प्रज्ञा की जागृति से देखता हूँ!’ उसकी जो भी श्रद्धा होगी, वही उसकी श्रद्धा-इंद्रिय है।

(और, फिर उसकी श्रद्धा से ऊर्जा, ऊर्जा से स्मृति, स्मृति से समाधि, समाधि से प्रज्ञा — का चक्र घूमते हुए आगे बढ़ते जाता हैं, और अगले फल मिलते रहते हैं।)

— संयुक्तनिकाय ४८ : ५० : आपण सुत्त


एक अकेला…

जब कोई आर्यश्रावक केवल एक स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाए, तब उसके पाँचों इंद्रिय विकसित होते हैं, सुप्रतिष्ठित होते हैं। कौन-सा है वह एक स्वभाव?

अप्रमाद (=लापरवाह न होना)।

और, अप्रमाद क्या है?

ऐसा होता है कि कोई भिक्षु आस्रव और आस्रव के साथ जन्में धर्मों के बीच अपने चित्त की रक्षा करता है। इस तरह जब कोई भिक्षु आस्रव और आस्रव के साथ जन्में धर्मों के बीच अपने चित्त की रक्षा करता है, तो उसकी श्रद्धा-इंद्रिय साधना की परिपूर्णता की ओर बढ़ती है… ऊर्जा-इंद्रिय… स्मृति-इंद्रिय… समाधि-इंद्रिय… प्रज्ञा-इंद्रिय साधना की परिपूर्णता की ओर बढ़ती है।

इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक केवल एक स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाए, तब उसके पाँचों इंद्रिय विकसित होते हैं, सुप्रतिष्ठित होते हैं।

— संयुक्तनिकाय ४८ : ५६ : पतिट्ठित सुत्त


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