सिद्धार्थ का जन्म लगभग ६२३ ईसा-पूर्व 1 लुम्बिनी में शाल वृक्ष के नीचे हुआ, जो वर्तमान में नेपाल में स्थित है। वे कपिलवस्तु राज्य के शाक्यवंशीय राजा ‘शुद्धोधन’ और रानी ‘महामाया’ के पुत्र थे। उनका जन्म ऐसे राज-परिवार में हुआ, जिसे संसार की सारी सुख-सुविधाएँ प्राप्त थी। उनका जन्म अद्भुत और विस्मयकारी था, जिसका विवरण पिछले जन्म से शुरू होता है:
“बोधिसत्व, स्मरणशील और सचेत रहते हुए, तुषित देवलोक 2 में उत्पन्न हुए।
…वहाँ तुषित देवलोक में, वे स्मरणशील और सचेत रहते हुए पूर्ण जीवनकाल 3 तक रहें।
…अंततः, वे तुषित देवलोक से उतर कर, स्मरणशील और सचेत रहते हुए, अपनी माँ के गर्भ में अवतरित हुए।
तब देवताओं की दिव्य तेज से भी परे एक महा तेज, असीम तेज उत्पन्न हुआ, जो देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा, और प्रजा से भरे इस लोक में फैल गया। यहाँ तक कि असीम अंधकार, घोर अंधकार में पड़े अन्तर ब्रह्मांडिय स्थलों पर भी, जहाँ सर्वशक्तिशाली सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश तक नहीं पहुँच पाता, वहाँ भी देवताओं की दिव्य तेज से परे एक महा तेज, असीम तेज फैल गया। और वहाँ जन्म लिए सत्वों ने उस तेज में एक-दूसरे को पहली बार देखा, तो उन्हें लगा, “अरे! यहाँ अन्य सत्वों ने भी जन्म लिया हैं!”… और उस महा तेज, असीम तेज में ये दस हज़ार ब्रह्मांड कंपित हुए, प्रकंपित हुए, थरथराएँ।
…जब बोधिसत्व, स्मरणशील और सचेत रहते हुए, अपनी माता के गर्भ में अवतरित हुए, तब चारों दिशाओं से चार महाराज देव 4 उसकी रक्षा करने के लिए आएँ, (सोचते हुए:) “कही कोई मानवीय अथवा अमानवीय सत्व बोधिसत्व या उनकी माँ को हानि न पहुंचाएँ।”
…जब बोधिसत्व अपनी माँ के गर्भ में अवतरित हुए, तो बोधिसत्व की माँ स्वाभाविक रूप से सदाचारी बनी। वह जीवहत्या से विरत हुई, चुराने से विरत हुई, यौन दुराचार से विरत हुई, झूठ बोलने से विरत हुई, और शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशे-पते से विरत हुई…
उसे किसी के प्रति कामुकता से लिप्त कोई विचार उत्पन्न नहीं हुआ। तथा उसका किसी भी कामुक व्यक्ति से सामना दुर्गम बना… उसे पाँचों इंद्रियों के असीम सुख प्राप्त हुए… उसे कोई रोग नहीं हुआ। वह बिना किसी शारीरिक पीड़ा के राहत से रहती…
उसने अपने गर्भ में बोधिसत्व को उसके समस्त अंगों और परिपूर्ण इंद्रियों के साथ देखा। जैसे, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध!
जहाँ अन्य गर्भवती स्त्रियाँ नौ महीनों में संतान को जन्म देती हैं, किन्तु बोधिसत्व की माँ ने बोधिसत्व को ठीक दस महीनों के बाद जन्म दिया… जहाँ अन्य महिलाएँ बैठकर या लेटकर बच्चे को जन्म देती हैं, किन्तु बोधिसत्व की माँ ने बोधिसत्व को खड़े होकर जन्म दिया’…
जब बोधिसत्व ने अपनी माँ का गर्भ छोड़ा, तो सर्वप्रथम देवताओं ने उन्हें ग्रहण किया, और फिर मानवों ने… चार महाराज देवों ने आकर बोधिसत्व का स्वागत किया और उन्हें अपनी माँ के सामने खड़ा किया (कहते हुए:) “हे रानी, प्रसन्न हो। आप को एक महातेजस्वी महाप्रभावशाली पुत्र जन्मा है!”…
जब बोधिसत्व ने अपनी माँ के गर्भ को छोड़ा, तो उन्होंने उसे बेदाग, तरल पदार्थ से रहित, बलगम से रहित, रक्त से रहित, लसीका से रहित छोड़ा — शुद्ध, अत्यंत शुद्ध! जैसे, काशी वस्त्र पर रत्न रखा जाए, तो न रत्न वस्त्र को मैला करेगा, न ही वस्त्र रत्न को। ऐसा क्यों? दोनों की शुद्धता के कारण! किन्तु तब भी आकाश से पानी की दो धाराएं प्रकट हुईं - एक ठंडी, और दूसरी गर्म - बोधिसत्व और उनकी माँ को नहलाने-धुलाने के लिए!…
जैसे ही बोधिसत्व का जन्म हुआ, वे ज़मीन पर पैरों के बल स्थिर खड़े हुए, और उत्तर-दिशा की ओर मुख कर के सात कदम चले। उनके ऊपर एक सफ़ेद छत्र नज़र आता था। और तब, उन्होंने सभी दिशाओं को निहारने के बाद एक भव्य घोषणा की:
"मैं दुनिया में अग्र हूँ!
मैं दुनिया में श्रेष्ठ हूँ!
मैं दुनिया में सर्वोत्तम हूँ!”
— मज्झिमनिकाय १२३ : अच्छरियब्भुत सुत्त
तब दूर कही, ‘असित’ नामक एक ऋषि-मुनि समाधि में लिन थे। उन्होंने अपने दिव्य-चक्षु से तैतीस देवलोक में जश्न होते देखा। उन्हें कुछ समझ नहीं आया कि यकायक शक्तिशाली देवतागण, शुभ्र वस्त्र परिधान कर, झंडे उठाकर इतने उल्लास और आनंद के साथ जयकारें क्यों लगा रहे हैं?
तब वहाँ वे उस स्वर्ग में गए। उन्होने तैतीस देवताओं को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए पूछा —
"क्यों देव-समुदाय उत्साहित हैं?
झंडे क्यों उठाएँ हैं?
इधर-उधर क्यों लहराते हैं?
असुर युद्ध के बाद भी
असुरों को पराजित कर
जब देव विजय शानदार थी,
तब भी ऐसा रोमहर्षक जश्न न था!
आप क्या अद्भुत घटना देख रहे हैं?
क्यों इतने आनंदित हैं?
सीटी, ताली, संगीत बजाकर,
गाकर नृत्य क्यों करते हैं?”
तब देवताओं ने उस असित मुनि से कहा:
"अप्रतिम बोधिसत्व,
मानवलोक में सर्वोत्कृष्ट रत्न,
लोक सुख-कल्याण
के लिए जन्में हैं!
शाक्य देश के कस्बे में,
लुम्बिनी जिसका नाम है!
इसीलिए हमें बहुत खुशी हैं,
चित्त भर गया प्रसन्नता से!
वह परमश्रेष्ठ,
जीवों में सर्वोत्कृष्ठ
लोगों में सर्वोच्च,
समस्त मानवों में श्रेष्ठ
वह शक्तिशाली परम विजेता,
दहाड़ते शेर की तरह,
ऋषिपतन वन में चक्र घुमाएगा!”
ये बात सुनते ही, असित मुनि स्वर्ग से नीचे उतर आए। वे तुरंत कपिलवस्तु राज्य में राजा शुद्धोधन के राजमहल गए, और वहाँ आसन ग्रहण कर के शाक्यों से कहा:
"कहाँ है राजकुमार?
मैं भी दर्शन चाहूँ।”
तब शाक्यों ने दिखाया,
असित मुनि को
उनका पुत्र राजकुमार,
जैसे प्रज्ज्वलित सोना हो!
मानो, सोनार ने भट्ठी में,
परिशुद्ध किया स्वर्ण हो!
प्रभा से जगमगाता हुआ,
परम-वर्ण में दोषरहित!
राजकुमार को ज्वाला की तरह
दमकते हुए देखकर,
जैसे तारों में अग्र,
आसमान से गुज़रता हुआ
शरदऋतु में बादलों से मुक्त,
तेज़ जलता सूरज हो!
नन्हा अतिप्रसन्न था,
प्रफुल्लता से भरा हुआ।
देवों ने आकाश में,
अनेक तीलियों वाली छत्र को
हजार जिसके चक्र थे,
स्वर्ण-मूठ वाली छड़ थी
ऐसे दिव्य-छत्र को
ऊपर और नीचे लहराया!
किन्तु उसे पकड़े हुए
कोई दिखाई न देते थे।
जटाधारी ऋषिमुनि,
जिसका नाम 'घोर दीप्त' था
स्वर्ण-आभूषण की तरह,
नन्हें को देखकर
लाल कम्बल में लपेटे हुए,
सिर पर श्वेतछत्र धरी हुई!
स्वागत उसने किया,
हृदय में खुशी, प्रसन्नता थी।
लालसापूर्वक,
शाक्यों के अग्र को प्राप्त कर
मंत्रों और संकेतों के स्वामी,
आत्मविश्वास से कहे:
"यह है अद्वितीय!
द्विपाद-जाति में सर्वोत्कृष्ठ!”
फिर, अपने प्रस्थानकाल को जान कर
हताश हुए, आँसू बहाने लगे!
उन्हें रोता देख कर शाक्यों ने पूछा:
"किन्तु राजकुमार के लिए कोई ख़तरा तो नहीं?”
शाक्यों की चिंता देख कर
उन्होने उत्तर दिया:
"मैं राजकुमार के लिए भविष्यवाणी करता हूँ:
हानि कही कोई नहीं,
न ही कोई खतरा होगा!
निश्चिंत रहें!
यह कोई साधारण चीज़ नहीं!
यह राजकुमार छू लेगा परम संबोधि!
परमशुद्धि प्राप्त कर,
वह धम्मचक्र घुमाएगा!
बहुजन का कल्याण कर,
अनुकंपा करते हुए
ब्रह्मचर्य यह अपना,
दूर-दूर फैलाएगा!
किन्तु, जहाँ तक मेरी बात है:
यहाँ मेरे जीवन का दीर्घकाल बचा नहीं!
मेरी मृत्यु उससे पहले ही हो जायेगी!
नहीं मिलेगा मुझे सुनने को,
इसका बेजोड़ धर्म!
इसीलिए मैं त्रस्त हूँ,
पीड़ित और दुखी हूँ।”
यह सुन शाक्यों में
अतिउत्साह भर गया!
अंतर्कक्ष से बाहर निकल, वे ब्रह्मचारी
अपने भतीजे के प्रति सहानुभूति से
जाकर उस अद्वितीय भूमिका वाले के
धम्म की ओर उसे प्रेरित किया:
"जब कभी यह उद्घोष
तुम किसी से सुन लो,
'बुद्ध' या 'संबोधि प्राप्त',
जो धर्ममार्ग खोले
वहाँ तत्काल जाना,
और स्वयं उससे धर्म पूछना!
और भगवान के अधीन
ब्रह्मचर्य पालन करना!”
— खुद्दकनिकाय सुत्तनिपात ३:११ : नालक सुत्त
इस तरह बोधिसत्व के जन्म ने शाक्य वंश ही नहीं, स्वर्ग के देवताओं और तपोमग्न ऋषियों तक को चौंका दिया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे इस अलौकिक उल्लास पर एक कठोर सत्य की छाया पड़ी हो — सिद्धार्थ के जन्म के केवल सातवें दिन, उनकी माता महामाया का देहावसान हो गया। सूत्रों के अनुसार उनका पुनर्जन्म ‘तुषित देवलोक’ स्वर्ग में हुआ।
इसके बाद सिद्धार्थ का पालन-पोषण महामाया की बहन और राजा शुद्धोधन की दूसरी रानी, महापजापति गोतमी ने किया। कहा जाता है कि बहन के निधन के बाद, उन्होंने अपने पुत्र नन्द 5 के स्थान पर सिद्धार्थ को स्तनपान कराया और उन्हें अपने विशेष स्नेह से पाला। पिता शुद्धोधन और मौसी-माँ गोतमी ने सिद्धार्थ को हर प्रकार के सुख-साधन और भोग-विलास के बीच पाला, ताकि उनके जीवन में किसी अभाव की छाया न पड़े।
आईए, अब अगली कड़ी में राजकुमार सिद्धार्थ के गृहस्थ जीवन की ओर बढ़ें — वह चरण जहाँ एक युवा राजकुमार ने जीवन के सुख, प्रेम और जिम्मेदारियों का अनुभव किया, और जहाँ से उनके महान त्याग की यात्रा ने आकार लेना शुरू किया।
पश्चिम देशों के इतिहासकारों के अनुसार यह तिथि ५६३ ईसा पूर्व के आसपास मानी जाती है। किन्तु श्रीलंका, बर्मा, और थायलैंड के साथ-साथ अनेक देशों के लिखित इतिहास में यह तिथि समान-रूप से ६२३ ईसा-पूर्व दर्ज हैं। ↩︎
धम्मचक्कपवत्तन सुत्त और अन्य सूत्रों के अनुसार, यह संसार मुख्यतः ३१ लोकों में बटा हुआ है। चार अरूप आयाम, सोलह स्तरों के ब्रह्मलोक, छह तरह के स्वर्ग देवलोक, तथा मानवलोक, प्रेतलोक, असुरलोक, पशुयोनि, नर्क एक-एक! तुषित देवलोक स्वर्ग में ऊपर से तीसरा देवलोक है। ↩︎
“अंगुत्तरनिकाय ३:७१ मुलुपोसथ” में पढ़ने में आता है कि तुषित देवताओं की आयु ४००० दिव्य वर्षों की होती हैं। अर्थात, लगभग ५७ करोड़, ६० लाख मानव वर्ष! ↩︎
पूर्व-दिशा से गन्धर्वों का महाराज धृतराष्ठ, दक्षिण दिशा से कुंभण्डों का महाराज विरुल्हक, पश्चिम दिशा से नागों का महाराज विरूपाक्ष, और उत्तर दिशा से यक्षों का महाराज कुबेर या वैष्णव! ↩︎
महापजापति के इकलौते पुत्र नन्द को सुन्दरीनन्द के नाम से भी जाना जाता था। राजा शुद्धोधन के भाई अमितोदन के पुत्र अनुरुद्ध और महानाम थे, और सिद्धार्थ के अन्य चचेरे भाइयों में आनन्द, भद्दिय और किम्बिल शामिल थे। महानाम के अलावा, सभी भाई भिक्षु बने, जिनमें से देवदत्त के अतिरिक्त सभी अरहंत हुए। ↩︎