भगवान कहते हैं —
“सभी लोक-विश्व के प्रति निरस नज़रिया क्या है?
यदि साधक को किसी लोक (=कामलोक, ब्रह्मलोक) के प्रति आसक्ति हो, या उसके चित्त का स्थिराव, टिकाव, या झुकाव होता हो — तब उसे त्यागकर, वह अनासक्त रहता है।
यह सभी लोक के प्रति निरस नज़रिया कहलाता है।
सभी लोक के प्रति निरस नज़रिए की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी, महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।
जब कोई सभी लोक के प्रति निरस नज़रिए में लीन रहे, तब सांसारिक चकाचौंध से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।
जैसे, मुर्ग़े का पँख या स्नायु के टुकड़े को आग में डाल दिया जाए, तो वह दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता। उसी तरह, जब कोई सभी लोक के प्रति निरस नज़रिए में लीन रहे, तब सांसारिक चकाचौंध से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।
किंतु, यदि कोई ‘सभी लोकविश्व के प्रति निरस नज़रिए’ में लीन रहने पर भी, सांसारिक चकाचौंध से आकर्षित होता हो, या उसमें घिन-भाव उपस्थित न होता हो — तब उसे समझ लेना चाहिए कि ‘मैं सभी लोक के प्रति निरस नज़रिए को सही तरह से विकसित नहीं कर पाया हूँ। क्योंकि मुझ में क्रमानुसार बदलाव नहीं आया। मैंने इस साधना का फ़ल नहीं पाया!’
इस तरह, वह सचेत हो जाए।
और, यदि कोई ‘सभी लोक के प्रति निरस नज़रिए’ में लीन रहे, और ‘सांसारिक चकाचौंध’ से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है — तब उसे समझ लेना चाहिए कि ‘मैंने ‘सभी लोक के प्रति निरस नज़रिया’ विकसित कर लिया। क्योंकि मुझमें क्रमानुसार बदलाव आ गया। मैंने इस साधना का फ़ल पा लिया!’
इस तरह, वह सचेत हो जाए।
सभी लोक के प्रति निरस नज़रिए की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी, महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है!”
— अंगुत्तरनिकाय १०:६० + ७:४६
बह जाती है दुनिया,
बचती नहीं!
आश्रय नहीं देती दुनिया,
कोई मालिक नहीं!
अपना नहीं कुछ इस दुनिया में।
सब छोड़कर जाना पड़ता है!
पर्याप्त नहीं यह दुनिया,
तृप्त नहीं करती,
तृष्णा की नौकर है!
— मज्झिमनिकाय ८२ : रट्ठपाल सुत्त
किसी ने भगवान से पूछा:
“भंते, लोग ‘दुनिया.. दुनिया..’ कहते हैं। यह शब्द ‘दुनिया’ (“लोक”) कहाँ लागू होता है?”
भगवान ने उत्तर दिया:
(“लुज्जती’ति लोके!”) “जो टूट-टूटकर बिखरती है, उसे ही ‘दुनिया’ कहते हैं!
क्या टूट-टूटकर बिखरती है?
इस तरह, जो टूट-टूटकर बिखरती है, उसे ही ‘दुनिया’ कहते हैं।”
«सं.नि.३५:८२»