कामुकता में लिप्त होना, भीतरी भूख मिटाने का एक सस्ता उपाय है।
मानव चेतना में समय-समय पर एक प्रकार का दुःख, निराशा और रिक्तता भरने लगती है। हृदय भीतर से सूखा, नीरस और बेजान महसूस करता है। ऐसे क्षणों में भीतर कोई पुकार उठती है—एक सुखद अनुभूति की, जो उस शुष्कता को भिगो सके, उस जीवंतता को लौटा सके।
इस सुख की आवश्यकता अत्यंत वास्तविक होती है। जैसे कोई भूखा व्यक्ति अपनी क्षुधा शांत करने के लिए रास्ता खोजता है—कोई तुरंत सस्ता फास्ट फूड खाकर काम चला लेता है, जबकि कोई सजग व्यक्ति संयम से बना सात्विक भोजन ग्रहण करता है।
ठीक उसी तरह, यह आंतरिक भूख ध्यान और करुणा जैसे सात्विक साधनों से संतुष्ट की जा सकती है, या फिर क्षणिक इंद्रिय-भोगों से। चूंकि ध्यान साधना सहज नहीं होती, अधिकतर लोग इसे तत्काल इंद्रिय भोज से मिटाने का प्रयास करते हैं।
इस प्रकार, कामुकता एक आसान विकल्प बनकर सामने आती है—वह हमें तत्कालिक सुख का भ्रम देती है, उस सूखेपन को कुछ देर के लिए भिगो देती है। हम भूल जाते हैं कि यह काम-सुख दीर्घकालिक समाधान नहीं, बल्कि एक आत्मविस्मृति है।
जो व्यक्ति जितना कामुकता में डूबता है, उसकी संवेदनशीलता उतनी ही घटती जाती है। उसका चित्त सूक्ष्म से स्थूल की ओर गिरता है, और एक समय ऐसा आता है जब वह स्थूल संवेदनाएँ भी नहीं महसूस कर पाता। तब जीवन बेजान और नीरस लगने लगता है, और ऐसे में मजा लेने के लिए लोग अक्सर घिनौने कर्म करते हैं, और किसी-न-किसी नशे का सहारा लेते हैं।
काम-वासना का यह चक्र एक अभिशाप है। यह एक ऐसी अकुशल आदत है, जो हमारे भीतर के दुःख और रिक्तता को भरने की सात्विक आवश्यकता को दबाती है, और हमें सत्य से दूर ले जाती है। धीरे-धीरे यह आदत बन जाती है, फिर लत, और अंततः बंधन।
एक बार जब व्यक्ति इस वासना का बंदी बन जाता है, तो वह स्वयं पर नियंत्रण खो देता है। उसकी प्रेरणा, उसकी प्रवृत्ति, उसका विवेक — सब इस आकर्षण की धुंध में खोने लगते हैं। इस अवस्था में किए गए कर्म न तो दूसरों से साझा किए जा सकते हैं, और न ही स्वयं से सहजता से स्वीकारे जा सकते हैं। वे कृत्य, वे स्मृतियाँ — जीवन भर पीछा करती हैं, भीतर-ही-भीतर धिक्कारती हैं।
धीरे-धीरे व्यक्ति अपनी ही नज़रों में गिरने लगता है। और जब आत्म-सम्मान बिखरता है, तो उसका आत्म-विश्वास भी दम तोड़ देता है। जिस व्यक्ति को स्वयं पर भरोसा नहीं रहा, वह भला दूसरों पर कैसे विश्वास कर सकेगा?
अनेक लोग इस दुष्चक्र में फँसकर भीतर से असहाय महसूस करने लगते हैं। जैसे ही कोई कामुक विचार या दृश्य उभरता है, व्यक्ति स्वयं को रोक नहीं पाता। उसे यह ज्ञात होता है कि यह तात्कालिक सुख, अंततः दुःख का कारण बनेगा — फिर भी वह उस आकर्षण के आगे विवेकहीन हो जाता है।
भीतर कहीं यह बोध भी बना रहता है कि यह पतन उसकी अपनी सहमति से हो रहा है — लेकिन इसके बावजूद वह स्वयं को रोक नहीं पाता। यह निरंतर पराजय धीरे-धीरे आत्मघृणा का रूप ले लेती है, जो समय के साथ दूसरों के प्रति भी घृणा, अविश्वास और आक्रोश में परिवर्तित हो सकती है।
वास्तव में, आकर्षण और नफरत — दोनों एक ही ऊर्जा के दो रूप हैं। जिस ऊर्जा से कामुक उत्तेजना उत्पन्न होती है, उसी से क्रोध, द्वेष और घृणा भी जन्म लेते हैं। यही कारण है कि जब कोई व्यक्ति कामेच्छा को ज़ोर-जबर्दस्ती से दबाने या नकारने का प्रयास करता है, तो वही ऊर्जा विकृत होकर भीतर विद्रोह करने लगती है — नफरत, अशांति और असंतोष के रूप में।
परंतु जो व्यक्ति धैर्य के साथ, गहरी प्रज्ञा से, अपने भीतर उतरकर इस ऊर्जा की प्रकृति को समझता है — जो आकर्षण के मूल स्रोत को देख पाता है, प्रलोभन की क्षणभंगुरता को पहचानता है, और यह जान लेता है कि उससे कहीं अधिक स्थायी, शांत और गहन आनंद उपलब्ध है — वही व्यक्ति इस बंधन से वास्तव में मुक्त हो सकता है।
भगवान हमें बताते हैं कि जब किसी के जीवन में इंद्रिय-सुखों से कहीं अधिक उत्कृष्ट और निर्मल ध्यान-सुख उपलब्ध हो जाते हैं — जो उसके चित्त को शुद्ध रखें, एकाग्रता में स्थिरता लाएँ, और उसकी प्रज्ञा को ऊँचाई पर ले जाएँ — तब उसके पास यह वास्तविक अवसर होता है कि वह उस स्थिर चित्त के निर्मल सुख को आधार बनाकर कामुकता के दलदल से बाहर निकल सके।
इसी मार्ग को भगवान ने स्वयं भी अपनाया। वे कहते हैं — उन्होंने भी इसी तरह कामुकता से पूर्णतः मुक्ति पाई। और न केवल उन्होंने, बल्कि जितने भी लोग अतीत में इस गहन बंधन से मुक्त हुए, वे भी इसी राह से गुज़रे। जो भविष्य में इस बंधन को तोड़ पाएँगे, वे भी इसी प्रकार मुक्त होंगे। और जो आज वर्तमान में इस कारागार से बाहर निकल रहे हैं, वे भी इसी पथ पर चल रहे हैं।
जब ध्यान-सुख की अनुभूति हमारे आदेश पर बार-बार होने लगती है, तो कामेच्छा की पकड़ स्वाभाविक रूप से ढीली पड़ने लगती है। प्रारंभ में स्थूल इच्छाएँ पीछे हटती हैं, फिर सूक्ष्म, और अंततः सूक्ष्मतम वासनाएँ भी चित्त को पार करती हुई एक दिन शांत हो जाती हैं — और साधक के भीतर शांति का सागर लहराने लगता है।
जब यह कामुकता जड़ से मिट जाती है, तब केवल कामुकता का बंधन ही नहीं टूटता — उसके साथ-साथ क्रोध, द्वेष, घृणा और अन्य मानसिक विकार भी चुपचाप लुप्त हो जाते हैं। इसके लिए किसी अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता नहीं रहती। यही बुद्ध का सहज, मौन समाधान है — जहाँ दमन नहीं होता, केवल गहरी समझ और साक्षी भाव होता है।
और यही वह परम क्षण है जब साधक “अनागामी” की अवस्था को प्राप्त करता है — तीसरा आर्यफल। वहाँ से फिर वह कभी काम-लोक की ओर नहीं लौटता। उसकी यात्रा अब केवल ऊपर की ओर होती है — निर्मल, निर्विकार, और शुद्धतम चेतना की दिशा में।
आईये, इस बंधन को तोड़ने के उपाय स्वयं भगवान के मुख से सुनें।
एक समय भगवान शाक्यों के साथ कपिलवस्तु में बरगद-विहार में रह रहे थे। तब (चचेरा भाई) महानाम शाक्य भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया।
एक-ओर बैठकर उसने भगवान से कहा, “भन्ते, मैं भगवान के द्वारा दीर्घकाल तक सिखाएँ धर्म को इस तरह जानता हूँ कि ‘लोभ चित्त का दूषण होता है, द्वेष चित्त का दूषण होता है, और भ्रम चित्त का दूषण होता है।’ इस तरह, मैं यह सब जानता हूँ! तब भी, कभी-कभी मेरे चित्त में लोभ स्वभाव, द्वेष स्वभाव, या भ्रम स्वभाव घुस कर बैठ जाता है। तब, मैं सोचता हूँ कि ‘आख़िर कौन-सा धर्म अब तक मेरे भीतर से छूटा नहीं, जिसकी वजह से कभी-कभी मेरे चित्त में ‘लोभ, द्वेष और भ्रम’ घुसकर बैठ जाता है?”
“महानाम! वे (लोभ, द्वेष और भ्रम) ही हैं, जो तुम्हारे भीतर से छूटे नहीं, जिसकी वजह से कभी-कभी तुम्हारे चित्त में लोभ स्वभाव, द्वेष स्वभाव, या भ्रम स्वभाव घुस कर बैठ जाता है। क्योंकि यदि वे तुम्हारे भीतर से छूटे चुके होते, तो तुम आज गृहस्थी-जीवन न जीते और कामभोग न करते। चूँकि, वे ही तुम्हारे भीतर से छूटे नहीं हैं, इसलिए आज तुम गृहस्थी-जीवन जीते हो और कामभोग भी करते हो।
और, महानाम, कामुकता का प्रलोभन क्या हैं?
ये पाँच कामसुख होते हैं —
अब, जो भी सुख और खुशी इन पाँच कामसुख के आधार पर उत्पन्न होती है, वही कामुकता का प्रलोभन है।
और, कामुकता में ख़ामी (या उसका दुष्परिणाम) क्या है?
• ऐसा होता है कि कोई कुलपुत्र कोई कार्य कर के जीविका कमाता है — चाहे खेती, व्यवसाय, पशुपालन, तीरंदाजी, सरकारी कामकाज, अथवा कोई शिल्पकारी हो। तब उसे जीविका कमाते समय ठंडी लगती है, गर्मी लगती है, मक्खियाँ, मच्छर, पवन, धूप, बिच्छु, साँप आदि के संस्पर्श से परेशान होता रहता है। भूख-प्यास से मरता हुआ, वह अपनी जीविका कमाता है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण कामुकता है, उसका स्त्रोत कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी मेहनत से, कार्यशीलता से, प्रयास से, बाहों के बल से, पसीना बहाकर भोगसंपदा प्राप्त न कर पाए — तो वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है, “हाय! मेरी सारी मेहनत पानी में गई! सारा परिश्रम व्यर्थ गया!” यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी मेहनत से, कार्यशीलता से, प्रयास से, बाहों के बल से, पसीना बहाकर भोगसंपदा प्राप्त करें — तब उसकी रक्षा करते हुए, उसे पीड़ा और व्यथा होती है, “कही मेरी इस भोगसंपदा को सरकार या चोर न लूट लें, या आग न जला दे, या बाढ़ न बहा दे, या नालायक वारिस न बर्बाद कर दे!” यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• अब, यदि कोई कुलपुत्र अपनी भोगसंपदा की रक्षा करते हुए देखता है कि उसकी भोगसंपदा को सरकार या चोर लूट लेती है, या आग जला देती है, या बाढ़ बहा देती है, या नालायक वारिस बर्बाद कर देता है, तो वह अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है, “हाय! जो मेरा था, अब नहीं रहा!’ यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि राजा राजा से लड़ता है, क्षत्रिय क्षत्रिय से लड़ता है, ब्राह्मण ब्राह्मण से लड़ता है, (वैश्य) गृहस्थ गृहस्थ से लड़ता है, माँ पुत्र से लड़ती है, पुत्र माँ से लड़ता है, बाप पुत्र से लड़ता है, पुत्र बाप से लड़ता है, भाई भाई से लड़ता है, भाई बहन से लड़ता है, बहन भाई से लड़ती है, बहन बहन से लड़ती है, और मित्र मित्र से लड़ता है। और, तब वे लड़ते, झगड़ते, विवाद करते हुए एक-दूसरे पर हाथ उठाते हैं, पत्थर उठाते हैं, डंडा, छुरी या शस्त्र से हमला करते हैं। और तब, इस कलह में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग हाथों में ढ़ाल और तलवार पकड़े, धनुष में तीर चढ़ाकर, दोनों-ओर से व्यूहरचित युद्ध में आक्रमण करते हुए दौड़ पड़ते हैं। और वहाँ तीर व भालें उड़ते हैं, तलवारें चमकती हैं, तीर और भाले बींधते हुए लोगों को घायल करते हैं, तलवारों से सिर काटे जाते हैं। और तब, इस युद्ध में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग हाथों में ढ़ाल और तलवार पकड़े, धनुष में तीर चढ़ाकर, ऊँचे फ़िसलनभरे किल्लों पर आक्रमण करते हुए दौड़ पड़ते हैं। और वहाँ तीर व भालें उड़ते हैं, तलवारें चमकती हैं, तीर और भाले बींधते हुए लोगों को घायल करते हैं, ऊपर से उबलता हुआ गर्म ग़ोबर गिराया जाता है, भारी चट्टान गिराकर कुचला जाता है, तलवारों से सिर काटे जाते हैं। और तब, इस युद्ध में मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग खिड़कियाँ तोड़कर चोरी करते हैं, लूटते हैं, डाका डालते हैं, मार्ग पर घात लगाते हैं, व्यभिचार करते हैं। और, जब उन्हें गिरफ्तार किया जाता है तो सरकार उन्हें दंडस्वरूप तरह-तरह से यातनाएँ देती है — जैसे चाबुक़ से पीटती है, कोड़े लगाती है, मुग्दर, बेंत या डंडे से पीटती है। हाथ काट देती है, पैर काट देती है, हाथ और पैर दोनों काट देती है। कान काट देती है, नाक काट देती है, कान और नाक दोनों काट देती है। खोपड़ी निकालकर गर्म लोहा दाल देती है। सिर की चमड़ी उतार कर खोपड़ी को कंकड़ों से रगड़ती है। चिमटे से मुँह खुलवा कर भीतर अँगारें या दीपक जला देती है। शरीर पर तेलबत्ती लपेट कर आग लगा देती है। हाथ पर तेलबत्ती लपेट कर आग लगा देती है। गले से कलाई तक की चमड़ी खींचकर उतार देती है। गले से कुल्हे तक की चमड़ी भी खींचकर उतार देती है। कोहनियों और घुटनों में खूँटा ठोक कर ज़मीन पर लिटा देती है। दोनों-ओर से नुक़िले काँटे घुसेड़ कर चमड़ी, माँस और नसें नचोट लेती है। सारे शरीर की चमड़ी को सिक्के-सिक्के भर छिलवा देती है। शरीर को पीट-पीटकर उस पर कंघी फेरती है, एक-करवट लिटाकर कानों में खूँटा गाड़ देती है। चमड़ी को बिना हानि पहुँचाये भीतर हड्डी पीस देती है। उबलता हुआ तेल डालती है। कुत्तों द्वारा नोच-नोचकर उनका भोजन बना देती है। खूँटी घुसाकर सुली पर लटका देती है। और तलवार से सिर काट देती है। और तब, इसमें मौते होती है, या मौत जैसी पीड़ा होती है। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो इस जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
• और आगे, कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत से, कामुकता के परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि लोग काया से दुराचार करते हैं, वाणी से दुराचार करते हैं, मन से दुराचार करते हैं। और दुराचार में लिप्त होकर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं। यह दुष्परिणाम, यह दुःखों की गठरी, जो अगले जीवन में दिखती है, उसका कारण भी कामुकता है, उसका स्त्रोत भी कामुकता है, वह कामुकता के परिणामस्वरूप ही है, जिसकी वजह केवल कामुकता है।
और, कामुकता से बचने का मार्ग क्या है?
कामुकता के प्रति चाहत और दिलचस्पी [“छन्दराग”] को हटा देना, उसे त्याग देना — यही कामुकता से बचने का मार्ग है।
कोई श्रमण या ब्राह्मण —
तब वह स्वयं कामुकता समझ पाएगा या दूसरों को समझा पाएगा — यह असंभव है!
— मज्झिमनिकाय १४ : चूळदुक्खक्खन्ध सुत्त + संयुत्तनिकाय ३५:८२
“कामुकता अनित्य है! तुच्छ है! झूठी है! धोखाधड़ी है! भ्रामक है! मूर्खों की बक़वास है! — दोनों ही मार का प्रभाव से होते हैं! दोनों मार की दुनिया से आते हैं! दोनों मार का डाला हुआ चारा होते हैं! दोनों मार का कार्यक्षेत्र होते है! इसी पाप अकुशल स्वभाव से लालच, दुर्भावना, और कलह पैदा होती है। वह धर्म सीखते आर्यश्रावक की मात्र प्रगति रोकने के लिए ही उत्पन्न होते है। तब आर्यश्रावक चिंतन करता है… “क्यों न मैं ऐसे कामलोक को पराभूत कर, मन को दृढ़ कर, ऐसे चित्त के साथ रहूँ, जो विस्तृत और विराट हो? ऐसा करने से पाप अकुशल स्वभाव — लालच दुर्भावना और कलह — प्रकट नहीं होंगे। उनसे छूटते-छूटते मेरा चित्त “असीम और अपरिमित” होकर सुप्रतिष्ठित हो जाएगा।” — मज्झिमनिकाय १३ : महादुक्खक्खन्ध सुत्त
“अनुत्पन्न कामेच्छा को उत्पन्न करने, और उत्पन्न हुई कामेच्छा को बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? काया का आकर्षक पहलू होता है — उस पर अनुचित चिंतन (“अयोनिसो मनसिकार” =अनुचित तरह से ध्यान देना) आहार बनता है अनुत्पन्न कामेच्छा उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई कामेच्छा बढ़कर अत्याधिक होने का। किन्तु, काया का अनाकर्षक पहलू (“असुभ निमित्त”) होता है — उस पर उचित चिंतन (“योनिसो मनसिकार”) भूखा रखना (“अनाहार” या उपवास करवाना) होता है अनुत्पन्न कामेच्छा उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई कामेच्छा बढ़कर अत्याधिक होने का। — संयुत्तनिकाय ४६:५१ : आहार सुत्त
— अंगुत्तरनिकाय ६:६३
सारिपुत्त भंते कहते हैं — “मित्रों, कोई व्यक्ति होता है, जब कामुकता पर गौर करता है, तब उसका चित्त कामुकता के लिए न उछलता है, न खिलता है, न ठहरता है, न ही आज़ादी महसूस करता है। किन्तु जब वह निष्काम [=कामुकता से संन्यास] पर गौर करता है, तब उसका चित्त निष्काम के लिए उछलता है, खिलता है, ठहरता है, आज़ादी महसूस करता है। तब, उसका चित्त अच्छी अवस्था में है! अच्छे से विकसित है! अच्छे से उठा हुआ है! अच्छे से विमुक्त है! कामुकता में संलग्न नहीं है! तब कामुकता के वजह से उपजने वाले जो आस्रव है — बर्बाद करने वाले, तड़पाने वाले — वह उनसे मुक्त होता है! उस वेदना को महसूस नहीं करता! इसे ही कामुकता से बच निकलना बताया जाता है।” — दीघनिकाय ३४ : दसूत्तर सुत्त
भगवान कहते हैं: “पाँच कामगुणों पर आधारित जो भी [कायिक] सुख और [मानसिक] ख़ुशी मिलती है, उसे ‘कामसुख’ कहते है, ‘घिनौना सुख’ कहते है, ‘देहाती सुख’ कहते है, ‘अनार्य सुख’ कहते है। मैं कहता हूँ कि उस [काम] सुख के साथ जुड़ना नहीं चाहिए! उसे बढ़ाना नहीं चाहिए! उसके पीछे नहीं पड़ना चाहिए! बल्कि, उससे भयभीत होना चाहिए! कुछ लोग कहते हैं कि ‘दुनिया में अनुभव होने वाली सर्वोच्च ‘सुख और ख़ुशी’ बस यही [कामसुख] है।’ किंतु मैं उनकी बात स्वीकार नहीं करता। क्योंकि उस सुख के अलावा भी दूसरा सुख होता है — जो उससे कई अधिक सुखद, कई अधिक उत्कृष्ट होता है। कौन-सा सुख? यहाँ कोई भिक्षु काम से निर्लिप्त, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त — सोच और विचार के साथ, निर्लिप्तता से जन्मे प्रफुल्लता और सुख वाले प्रथम-ध्यान में प्रवेश कर रहता है। इस सुख को ‘संन्यास सुख’ कहते है , ‘निर्लिप्त सुख’ कहते है , ‘प्रशान्ति सुख’ कहते है, ‘संबोधि सुख’ कहते है। मैं कहता हूँ कि इस सुख के साथ जुड़ना चाहिए! इसकी साधना करनी चाहिए! इसके पीछे पड़ना चाहिए! इससे भयभीत नहीं होना चाहिए! यह सुख ‘कामसुख’ से कई अधिक सुखद और उत्कृष्ट होता है। तब कुछ लोग कहते हैं कि — ‘दुनिया में महसूस होनेवाली सर्वोच्च सुख व ख़ुशी बस यही [प्रथम-झानसुख] है।’ तो मैं उनकी भी बात नहीं स्वीकार करता। क्योंकि उस सुख के अलावा भी दूसरा सुख होता है — जो उससे कई अधिक सुखद, कई अधिक उत्कृष्ट होता है। कौन-सा सुख? द्वितीय-झान सुख… तृतीय-झान सुख… चतुर्थ-झान सुख… अनंत आकाश-आयाम सुख… अनंत चैतन्यता-आयाम सुख… सूना-आयाम सुख… न-नज़रिया-न-अनज़रिया-आयाम सुख… निरोध अवस्था! इस सुख को ‘संन्यास सुख’ कहते है, ‘निर्लिप्त सुख’ कहते है , ‘प्रशान्ति सुख’ कहते है, ‘संबोधि सुख’ कहते है। मैं कहता हूँ कि इस सुख के साथ जुड़ना चाहिए! इसकी साधना करनी चाहिए! इसके पीछे पड़ना चाहिए! इससे भयभीत नहीं होना चाहिए!” — मज्झिमनिकाय ५९ : उपालिवाद सुत्त + मज्झिमनिकाय ६६ : लडुकिकोपम सुत्त
“भले ही कोई कामुकता जैसी वास्तव में हो, वैसे पता कर देख चुका हो कि — वह वाक़ई बड़ी कष्टप्रद है… बड़ी निराशाजनक है… जिसके दुष्परिणाम अधिक है! किंतु जब तक उसने अपने लिए ऐसी प्रफुल्लता और सुख उपलब्ध न किया हो — जो कामुकता के अलावा, अकुशल स्वभावों के अलावा मिलता हो, जो अधिक तृप्त करता हो — तब तक वह कामुकता के द्वारा ललचाया जा सकता है। परंतु जब कोई कामुकता जैसी वास्तव में हो, वैसे पता कर देख लें कि — वह वाक़ई बड़ी कष्टप्रद है… बड़ी निराशाजनक है… जिसके दुष्परिणाम अधिक है… और साथ ही, उसने ऐसी प्रफुल्लता और सुख भी अपने लिए उपलब्ध कर लिया हो — जो कामुकता के अलावा, अकुशल स्वभावों के अलावा मिलता हैं, जो अधिक तृप्त करता हैं — तब वह कामुकता के द्वारा ललचाया नहीं जा सकता! मैं भी जब संबोधिपूर्व केवल एक बोधिसत्व था, मैंने भी कामुकता जैसी वास्तव में हो, वैसे पता कर देख चुका था कि — वह वाक़ई बड़ी कष्टप्रद है… बड़ी निराशाजनक है… जिसके दुष्परिणाम अधिक है! किंतु जब तक मैंने अपने लिए ऐसी [ध्यान] प्रफुल्लता और सुख उपलब्ध नहीं किया — जो कामुकता के अलावा, अकुशल स्वभावों के अलावा मिलता हो, जो अधिक तृप्त करता हो — तब तक मैंने दावा नहीं किया कि ‘मैं कामुकता के द्वारा ललचाया नहीं जा सकता।’ परंतु जब मैंने अपने लिए पश्चात… ऐसा [ध्यान की] प्रफुल्लता और सुख भी उपलब्ध कर लिया… — तब जाकर मैंने दावा किया कि ‘अब मैं कामुकता से ललचाया नहीं जा सकता!’” — मज्झिमनिकाय १४ : चूळदुक्खक्खन्ध सुत्त
इस विषय पर अधिक सूत्रों को पढ़ने के लिए देखें — पटिपदा - अध्याय पाँच »
क्या है कामुकता?
कामेच्छा का आहार और अनाहार
ही पुरुष की कामुकता है।
न कि दुनिया में पाए जानेवाली
चित्र-विचित्र कामुकताएँ।
अपने संकल्प के प्रति दिलचस्पी
ही पुरुष की कामुकता है।
दुनिया की चित्र-विचित्रता जैसी हो,
वैसी पड़ी रहती है।
ज्ञानी उनके प्रति
मात्र चाह ख़त्म कर देता है।
ध्यान आहार
इस तरह, हमने भगवान के शब्दों में धर्म सुना। हमें पता चला कि जब हम पाँच कामगुणों — रूप, आवाज, गंध, स्वाद और संस्पर्श — को उनके वास्तविक स्वरूप में समझने लगते हैं, तो हम कामुकता की प्रकृति को भी गहराई से देखने लगते हैं। जैसे-जैसे हमें इनके स्त्रोत, क्षणभंगुरता और अंततः उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों का बोध होता है, वैसे-वैसे हमारा चित्त उनसे विमुख होने लगता है। दिलचस्पी की जगह प्रज्ञा जन्म लेने लगती है, और मोह की जगह विरक्ति।
इस जागरूकता की यात्रा में सम्यक-समाधि की चार ध्यान अवस्थाएँ — प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ ध्यान — हमारे लिए कामुकता के दलदल से बाहर निकलने का आधार बन जाती हैं। यह कामुकता को केवल दबाने, कुचलने या छिपाने का उपाय नहीं, बल्कि गहराई में जाकर उसकी जड़ को ही उखाड़ फेंकने की साधना है।
इसीलिए कहा गया है कि जो साधक “समाधि-स्कन्ध” को पूर्णता तक विकसित कर लेता है, वही “अनागामी फल” को प्राप्त करता है। और इस अवस्था में पहुँचकर दो प्रमुख संयोजन — कामराग (कामुक दिलचस्पी) और पटिघ (द्वेषपूर्ण प्रतिरोध) — सदा के लिए टूट जाते हैं।
यही वह मोड़ होता है, जहाँ साधक मनुष्यता की सीमाओं को पार करके उस ब्रह्म चेतना की ओर बढ़ता है, जहाँ न आकर्षण है, न विक्षोभ — केवल राहत, शीतलता और निर्विकल्प शांति।
आईए, अब दूसरी रुकावट के त्याग की ओर बढ़ें — यानी उस दुर्भावना की ओर—