भगवान कहते हैं —
“मौत के स्मरण की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी, महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।
कैसे कोई साधक मौत के स्मरण की साधना करता है?
जब दिन अस्त होकर, रात्रि का आगमन हो, तो साधक इस तरह चिंतन करता है — ‘मेरी मौत कई कारणों से हो सकती है। मुझे साँप डंस सकता है; बिच्छू डंक मार सकता है; गोजर काट सकती है। उस तरह मेरी मौत हो जाए तो बाधा होगी। मैं लड़खड़ाकर गिर सकता हूँ; खाया-पचाया तकलीफ़ दे सकता है; पित्त कुपित हो सकता है; कफ कुपित हो सकता है; वात कुपित हो सकता है। उस तरह मेरी मौत हो जाए तो बाधा होगी।’
तब साधक सोचता है — ‘क्या कोई ऐसा पाप, अकुशल स्वभाव है, जो अब तक मुझ से छूटा न हो, जिससे आज रात यदि मेरी मौत हो जाए तो मेरी दुर्गति होगी?’
यदि उसे पता चले कि ऐसा कोई पाप, अकुशल स्वभाव है, जो उससे अब तक छूटा नहीं है — तब साधक उसे छोड़ने के लिए अत्याधिक चाह, प्रयास, उत्साह, ज़िद, लगन, स्मरणशीलता, और सचेतता उत्पन्न करता है।
जैसे, किसी आदमी की पगड़ी या सिर में आग लग जाए, तो वह किस तरह अत्याधिक चाह, प्रयास, उत्साह, ज़िद, लगन, स्मरणशीलता, और सचेतता उत्पन्न कर उस आग को बुझायेगा?
उसी तरह, साधक अपना पाप, अकुशल स्वभाव छोड़ने के लिए अत्याधिक चाह, प्रयास, उत्साह, ज़िद, लगन, स्मरणशीलता, और सचेतता उत्पन्न करता है।
और, यदि उसे पता चले कि उसमें कोई पाप, अकुशल स्वभाव नहीं है, जो उसकी दुर्गति करेगा — तब उस कारण से वह प्रसन्नता और प्रफुल्लता में रहें, तथा दिन-रात कुशल स्वभाव में साधनारत रहें।
और, जब रात्रि अस्त होकर दिन का आगमन हो, तो साधक इस तरह चिंतन करता है — ‘मेरी मौत कई कारणों से हो सकती है। मुझे साँप डंस सकता है; बिच्छू डंक मार सकता है; गोजर काट सकती है। उस तरह मेरी मौत हो जाए तो बाधा होगी। मैं लड़खड़ाकर गिर सकता हूँ; खाया-पचाया तकलीफ़ दे सकता है; पित्त कुपित हो सकता है; कफ कुपित हो सकता है; वात कुपित हो सकता है। उस तरह मेरी मौत हो जाए तो बाधा होगी।’
तब साधक सोचता है — ‘क्या कोई ऐसा पाप, अकुशल स्वभाव है, जो अब तक मुझ से छूटा न हो, जिससे आज दिन में यदि मेरी मौत हो जाए तो मेरी दुर्गति होगी?’
यदि उसे पता चले कि ऐसा कोई पाप, अकुशल स्वभाव है, जो उससे अब तक छूटा नहीं है — तब साधक उसे छोड़ने के लिए अत्याधिक चाह, प्रयास, उत्साह, ज़िद, लगन, स्मरणशीलता, और सचेतता उत्पन्न करता है।
जैसे, किसी आदमी की पगड़ी या सिर में आग लग जाए, तो वह किस तरह अत्याधिक चाह, प्रयास, उत्साह, ज़िद, लगन, स्मरणशीलता, और सचेतता उत्पन्न कर उस आग को बुझायेगा?
उसी तरह, साधक अपना पाप, अकुशल स्वभाव छोड़ने के लिए अत्याधिक चाह, प्रयास, उत्साह, ज़िद, लगन, स्मरणशीलता, और सचेतता उत्पन्न करता है।
और, यदि उसे पता चले कि उसमें कोई पाप, अकुशल स्वभाव नहीं है, जो उसकी दुर्गति करेगा — तब उस कारण से वह प्रसन्नता और प्रफुल्लता में रहें, तथा दिन-रात कुशल स्वभाव में साधनारत रहें।
— यह ‘मौत का स्मरण’ कहलाता है।”
इस तरह मौत के स्मरण की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी, महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है।
जब कोई मौत के स्मरण में लीन रहे, तब जीवन के प्रति आवेग से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।
जैसे, मुर्ग़े का पँख या स्नायु के टुकड़े को आग में डाल दिया जाए, तो वह दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता। उसी तरह, जब कोई मौत के स्मरण में लीन रहे, तब जीवन के प्रति आवेग से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है।
किंतु, यदि कोई मौत के स्मरण में लीन रहने पर भी कोई जीवन के प्रति आवेग से आकर्षित होता हो, या घिन-भाव उपस्थित न हो — तब उसे समझ लेना चाहिए कि ‘मैं अनित्य नज़रिए को सही तरह से विकसित नहीं कर पाया हूँ। क्योंकि मुझ में क्रमानुसार बदलाव नहीं आया। मैंने इस साधना का फ़ल नहीं पाया!’
इस तरह, वह सचेत हो जाए।
और, यदि कोई मौत के स्मरण में लीन रहे, और जीवन के प्रति आवेग से उसका चित्त दूर सिकुड़ता है, विपरीत झुकता है, पीछे हटता है, खिंचा नहीं चला जाता; बल्कि तटस्थता या घिन-भाव में स्थित हो जाता है — तब उसे समझ लेना चाहिए कि ‘मैंने मौत का स्मरण’ विकसित कर लिया। क्योंकि मुझमें क्रमानुसार बदलाव आ गया। मैंने इस साधना का फ़ल पा लिया!’
इस तरह, वह सचेत हो जाए।
मौत के स्मरण की साधना करना, उसे विकसित करना — महाफ़लदायी, महालाभकारी होता है। वह अमृत में डुबोता है, अमृत में पहुँचाता है!"
— अंगुत्तरनिकाय १०:६० + ७:४६
— धम्मपद ४१
भिक्षुओं, ऐसे साधक प्रमादी (=लापरवाह) कहलाए जाते हैं, और वे आस्रवमुक्ति के लिए ‘मौत के स्मरण’ की साधना धीमे करते हैं — जो ‘मौत के स्मरण’ की साधना यह सोचते हुए करते हैं — — ऐसे साधक ‘प्रमादी’ कहलाए जाते हैं, और वे आस्रवमुक्ति के लिए ‘मौत के स्मरण’ की साधना धीमे करते हैं। परंतु, जो साधक ‘मौत के स्मरण’ की साधना यह सोचते हुए करते हैं — — ऐसे साधक ‘अप्रमादी’ (=सतर्क) कहलाए जाते हैं, और वे आस्रवमुक्ति के लिए ‘मौत के स्मरण’ की साधना तीव्रता से करते है। इसलिए, तुम्हें सीखना चाहिए — ‘हम अप्रमादी रहेंगे! और हम आस्रव-मुक्ति के लिए ‘मौत के स्मरण’ की साधना तीव्रता से करेंगे!’" — अंगुत्तरनिकाय ६:१९
ज़मीन पर पड़ी मिलेगी,
— चेतनाहीन —
जैसे लकड़ी का अनुपयोगी टुकड़ा।
सभी जीवों की मौत होगी!
यही निश्चित है!
जीवन नहीं!