नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

शुरुवात कैसे करें?

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पञ्चशील

भगवान बुद्ध के अनुसार जीवन में पाँच-शील अत्यावश्यक हैं, जिनका हर समय, हर परिस्थिति में पालन करना चाहिए।

ये शील केवल कोई सामाजिक या नैतिक मान्यता नहीं, बल्कि सृष्टि के नियम हैं। इसे धारण करने से दूसरों पर उपकार नहीं, स्वयं पर होता है। क्योंकि हमारे दुष्कर्मों से दूसरे आहत हो न हो, हम स्वयं अवश्य होते हैं। पाँच शील हमें इसी आहत होने की प्रक्रिया से बचाते हैं और हमें वर्तमान और भविष्य के दुःखों से दूर रखते हैं। ये हमारी आत्मरक्षा का प्रबल साधन हैं।

सदाचार के ये पाँच आचरण इस प्रकार हैं —

➤ “कोई व्यक्ति हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा एवं शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला एवं दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी।

➤ वह ‘न सौंपी चीज़ें’ त्यागकर चुराने से विरत रहता है। गांव या जंगल से न दी गई, न सौंपी, पराई वस्तु चोरी की इच्छा से नहीं उठाता, नहीं लेता है। बल्कि मात्र सौंपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी चुपके नहीं।

➤ वह कामुक मिथ्याचार त्यागकर व्यभिचार से विरत रहता है। वह उनसे संबन्ध नहीं बनाता है — जो माता से संरक्षित हो, पिता से संरक्षित हो, भाई से संरक्षित हो, बहन से संरक्षित हो, रिश्तेदार से संरक्षित हो, गोत्र से संरक्षित हो, धर्म से संरक्षित हो, जिसका पति [या पत्नी] हो, जिससे संबन्ध दण्डनिय हो, अथवा जिसे अन्य पुरुष ने फूल से नवाजा [=सगाई या प्रेमसंबन्ध] हो।

➤ वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ व भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। जब उसे नगरबैठक, गुटबैठक, रिश्तेदारों की सभा, अथवा किसी संघ या न्यायालय में बुलाकर गवाही देने कहा जाए, “आईये! बताएँ श्रीमान! आप क्या जानते है?” तब यदि न जानता हो तो कहता है “मैं नहीं जानता!” यदि जानता हो तो कहता है “मैं जानता हूँ!” यदि उसने न देखा हो तो कहता है “मैंने नहीं देखा!” यदि देखा हो तो कहता है “मैंने ऐसा देखा!” इस तरह वह आत्महित में, परहित में, अथवा ईनाम की चाह में झूठ नहीं बोलता है।

➤ वह शराब मद्य आदि त्यागकर, मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहता है।

जब किसी को भीतर से लोभ, द्वेष या मोह जकड़ लेता है, तो वह उनसे वशीभूत होकर बेकाबू हो जाता है, और पाँच प्रकार के पाप करता है। वही पाप उसके दीर्घकालिक दुःख, अहित और असुरक्षा का कारण बनते हैं। इसके विपरीत, पंचशील का पालन व्यक्ति के चंचल जीवन में नैतिकता, शुद्धता और स्थिरता लाता है। यह आचरण आत्मविश्वास, आत्मनियंत्रण और आत्मसम्मान को बढ़ावा देता है। यही मार्ग उसे दीर्घकालिक सुख, हित और सुरक्षा की ओर ले जाता है।

वह पंचशील का पालन कर असंख्य सत्वों को ख़तरे से मुक्ति, शत्रुता से मुक्ति, और पीड़ा से मुक्ति प्रदान करता है। इस तरह असंख्य सत्वों को ख़तरे, शत्रुता, और पीड़ा से मुक्ति प्रदान कर, वह स्वयं ख़तरे, शत्रुता एवं पीड़ा से असीम मुक्ति में भागीदार बनता है।

“वह आर्यपसंद शील से संपन्न होता है — जो अखंडित रहें, अछिद्रित रहें, बेदाग रहें, बेधब्बा रहें, निष्कलंक रहें, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो, और समाधि की ओर बढ़ाते हो।”

इस प्रकार, अपने शील को सर्वोपरि रखें और शरीर, वाणी और मन के दुष्कर्मों का परित्याग करते जाएँ। उनमें समय-समय पर परिशोधन करें और आचरण शुद्ध करते जाएँ। किसी भी कर्म को करने से पहले, करते समय, और करने के बाद आत्म-चिंतन करें — “क्या यह कर्म पीड़ादायक है? क्या इससे मुझे या किसी और को कष्ट होगा?” इस तरह, अपनी चेतना और उसके परिणाम पर भी ध्यान देते रहें।

यदि पुरानी बुरी आदत हावी हो, तो पुनः त्रिशरण और पंचशील लें। बुरी आदत छोड़ने या शील पालन में कठिनाई महसूस होने पर संघ की सहायता लें और उचित मार्गदर्शन प्राप्त करें। संघ के सामूहिक अनुभव और ज्ञान से आपको रचनात्मक उपाय मिल सकते हैं, जो शील का पालन करने में मददगार होंगे। किसी सच्चे व्यक्ति का आधार लेकर अपना आत्मबल बढ़ाएँ।

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