“अच्छा होगा, यदि साधक ‘घिनौनी परिस्थिति’ में रहकर भी, सही समय पर घिनरहित पक्ष को देखते हुए विहार करें।
अच्छा होगा, यदि साधक ‘घिनरहित परिस्थिति’ में रहकर भी, सही समय पर घिनौने पक्ष को देखते हुए विहार करें।
अच्छा होगा, यदि साधक, ‘घिनौनी और घिनरहित’, दोनों ही परिस्थितियों में रहकर भी, सही समय पर —
ऐसा क्यों करें?
• ‘कहीं मुझे द्वेष जगाने वाली परिस्थिति में द्वेष न जाग जाए’ — इस ध्येय से साधक को घिनौनी परिस्थिति में रहकर भी, सही समय पर ‘घिनरहित पक्ष’ को देखते हुए विहार करना चाहिए।
• ‘कहीं मुझे दिलचस्पी जगाने वाली परिस्थिति में दिलचस्पी न जाग जाए’ — इस ध्येय से साधक को घिनरहित परिस्थिति में रहकर भी, सही समय पर ‘घिनौने पक्ष’ को देखते हुए विहार करना चाहिए।
• ‘कहीं मुझे द्वेष जगाने वाली परिस्थिति में द्वेष न जाग जाए, और दिलचस्पी जगाने वाली परिस्थिति में दिलचस्पी न जाग जाए’ — इस ध्येय से साधक को, घिनौनी और घिनरहित, दोनों की परिस्थितियों में रहकर भी, सही समय पर मात्र ‘घिनरहित पक्ष’ को देखते हुए विहार करना चाहिए।
• ‘कहीं मुझे दिलचस्पी जगाने वाली परिस्थिति में दिलचस्पी न जाग जाए, और द्वेष जगाने वाली परिस्थिति में द्वेष न जाग जाए’ — इस ध्येय से साधक को, घिनौनी व घिनरहित, दोनों की परिस्थिति में रहकर भी, सही समय पर मात्र ‘घिनौना पक्ष’ को देखते हुए विहार करना चाहिए।
— इस ध्येय से साधक को, घिनौनी और घिनरहित, दोनों की परिस्थितियों में रहकर भी, सही समय पर दोनों को हटाकर, ‘तटस्थ, सचेत, और स्मरणशील’ होकर विहार करना चाहिए।”
— अंगुत्तरनिकाय ५:१४४