नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

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सम्यक-परिश्रम

बौद्ध साधना में ‘सम्यक परिश्रम’ का धर्म, आज प्रचलित अनेक मिथ्या धारणाओं का खंडन करता है। पहले आइए, भगवान बुद्ध के वचनों में निहित इस संक्षिप्त सूत्र को सुनें:

“चार (तरह के) सम्यक परिश्रम हैं —

  • अनुत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव उत्पन्न न हो — उसके लिए कोई चाह (“छन्द”) पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर (“वीरिय”) लगाता है, इरादा (“चित्त”) बनाकर जुटता है।
  • वह उत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव छोड़ने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।
  • वह अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न करने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।
  • वह उत्पन्न कुशल स्वभाव टिकाए रखने, आगे लाने, वृद्धि करने, प्रचुरता लाने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।”

— संयुत्तनिकाय ४९:१

इन चार प्रकार के परिश्रमों को “संवर”, “पहाना”, “भावना” और “अनुरक्खा” कहा गया है। ये सभी चित्त को बोधि की ओर ले जाने के लिए अनिवार्य हैं। अक्सर, ये चारों एक ही साधना-प्रक्रिया के विभिन्न पक्ष होते हैं।

अकुशल प्रवृत्तियों का परित्याग, प्रायः कुशल धर्मों के विकास के माध्यम से स्वाभाविक रूप से हो जाता है। उदाहरण के लिए, जब स्मृति की भावना की जाती है, तो वह स्वयं ही कई प्रकार की अकुशलताओं को हटाने में समर्थ होती है। इसी प्रकार, जब हम किसी अकुशल प्रवृत्ति को जान-बूझकर छोड़ते हैं, तो उस प्रक्रिया में भी स्मृति और प्रज्ञा की भावना अन्तर्निहित रहती है।

जैसे-जैसे हम साधना में आगे बढ़ते हैं, यह भी स्पष्ट होता है कि जब किसी संबोध्यङ्ग (जागृति के अंग) को पुष्ट किया जाता है, तो कोई न कोई नीवरण (बाधक प्रवृत्ति) दुर्बल हो जाती है। और जब किसी नीवरण को हटा दिया जाता है, तो उसी के साथ किसी संबोध्यङ्ग का विकास होता है। यह एक द्विपक्षीय प्रक्रिया है – हटाना और बढ़ाना।

परंतु सम्यक-परिश्रम का अभिप्राय केवल अकुशल कर्मों से बचना ही नहीं है। यह भी आवश्यक है कि हम कुशल गुणों – जैसे स्मृति और प्रज्ञा – के माध्यम से यह जानें कि स्वयं कुशलता को भी एक समय के बाद पार करना होता है। यही वह “परम कौशल” है, जिसका उल्लेख भगवान बुद्ध की वाणी में बार-बार आता है।

सबसे रोचक तथ्य यह है कि सम्यक-परिश्रम में “छन्द” (चाहत या इच्छा) की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। सामान्यतः चाहत को दुःख का मूल कहा जाता है, परन्तु बुद्ध ने यह स्पष्ट किया कि चाहत दो प्रकार की होती है – कुशल और अकुशल। कुशल छन्द वह चाहत है जो निब्बान की ओर ले जाती है; वह साधना-पथ की प्रेरक शक्ति है।

यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि अकुशल प्रवृत्तियों को हटाने और कुशल धर्मों को विकसित करने का परिश्रम स्वयं भी “कुशल” या सम्यक होना चाहिए। यदि यह परिश्रम “अकुशल” हो, तो वह लाभ की जगह हानि पहुँचा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि हम द्वेष को द्वेष से मिटाने का परिश्रम करें तो वह और बढ़ जाता है। इसके विपरीत, यदि हम उस द्वेष को सम्यक दृष्टि से देखें, जैसे कि स्मृतिप्रस्थान के दूसरे चरण में होता है, तो हम उसके कार्य-कारण संबंध को समझ सकते हैं, और चित्त को शांति और प्रज्ञा की ओर ले जा सकते हैं।

इसलिए सम्यक-परिश्रम की मूल प्रक्रिया में अष्टांगिक मार्ग के अन्य तत्व—विशेषकर स्मृति और प्रज्ञा—स्वाभाविक रूप से समाहित रहते हैं। साथ ही, तीन आंतरिक शक्तियाँ—छन्द (चाहत), वीरिय (ऊर्जा) और चित्त (मानस)—जो कि इद्धिपाद (ऋद्धिपद) में वर्णित हैं, इस परिश्रम को दृढ़ आधार प्रदान करती हैं।

बुद्ध ने विशेष रूप से उन कुशल धर्मों को विकसित करने की बात कही है जो बोधि की ओर ले जाते हैं। इनमें सप्त संबोध्यङ्ग (सति, धम्मविचय, वीरिय, पीति, पस्सद्धि, समाधि, उपेक्खा) प्रमुख हैं। इन्हीं गुणों की भावना सम्यक-परिश्रम को परिष्कृत करती है और उसे गहराई प्रदान करती है।

सब्बासव सुत्त में सम्यक-परिश्रम के सात उपाय बताए गए हैं, जिनके द्वारा अकुशल प्रवृत्तियाँ छोड़ी जा सकती हैं: देखना, संयम करना, उपयोग करना, सहन करना, टालना, नष्ट करना, और विकसित करना। किन प्रवृत्तियों पर कौन-सा उपाय उपयुक्त है, यह प्रत्येक साधक को अपने अनुभव से ही जानना होता है। यह अनुभवजन्य खोज ही सम्यक-परिश्रम की आत्मा है।

इसी प्रकार यह भी जानना आवश्यक है कि कितना और कैसा परिश्रम उपयुक्त है। बुद्ध ने बताया कि साधना की गति और स्वरूप चार प्रकार के हो सकते हैं —

  • कष्टपूर्ण और धीमा
  • कष्टपूर्ण और तीव्र
  • सुखद और धीमा
  • सुखद और तीव्र।

इसलिए प्रत्येक साधक को अपनी धातु, अपने स्वभाव, परिस्थिति और मानसिक सामर्थ्य के अनुसार परिश्रम का समायोजन करना चाहिए।

कभी-कभी केवल तटस्थता (उपेक्खा) से भी किसी अकुशल प्रवृत्ति का अंत हो सकता है, और कभी तीव्र साधनात्मक परिश्रम आवश्यक होता है। अतः सम्यक-परिश्रम न तो अंध परिश्रम है, न ही निष्क्रियता की ओर झुकाव। यह मध्यम प्रतिपदा है — न अधिक कठोर, न अधिक शिथिल, बल्कि स्थिति और चेतना के अनुरूप संतुलित और विवेकपूर्ण।

स्मृतिप्रस्थान के अभ्यास में सम्यक-परिश्रम को “आतापी” (तत्परता, उत्साही कर्मशीलता) कहा गया है। यह तीन स्तरों पर कार्य करता है:

  • प्रारंभिक स्तर पर: स्मरणशीलता से जुड़े रहना, और उभरती हुई अकुशल प्रवृत्तियों को हटाना।
  • मध्य स्तर पर: सूक्ष्म अनुभवों की ओर मुड़ना, “क्या हो रहा है” पर टिकने के बजाय ‘प्रक्रियाओं’ का बोध करना — जिससे चित्त झान की ओर अग्रसर होता है।
  • गहनतम स्तर पर: चित्त को एक ऐसी स्थिति में लाना जहाँ न तो वह आगे बढ़ता है, न रुकता है (“न पब्बङ्गोति न ठितत्तं”) — यही सूक्ष्म संतुलन अंततः “सङखार-उपच्छेद” (रचनाओं का क्षय) की ओर ले जाता है।

सम्यक-परिश्रम का लक्ष्य किसी निष्पाप बालक जैसे चित्त की ओर लौटना नहीं है। पालि सूत्रों में कहा गया है कि बालक का चित्त अज्ञानता से भरा होता है और उसमें अनेक अकुशल प्रवृत्तियों की संभावना रहती है। यदि वह स्वभावतः शुद्ध होता, तो वह संसार की अकुशलताओं से प्रभावित ही न होता।

बुद्ध के अनुसार शुद्धता का मार्ग ‘प्रज्ञा’ से होकर गुजरता है — उसके त्याग से नहीं। यही कारण है कि सम्यक-परिश्रम, बोधिपथ का एक अनिवार्य और केंद्रीय अंग है। आईयें, अब भगवान के शब्दों में जानें कि चारों सम्यक परिश्रमों की साधना विस्तार से कैसे की जाती है:

चार सम्यक परिश्रम

“चार परिश्रम हैं —

  • संवर परिश्रम,
  • त्याग परिश्रम,
  • साधना परिश्रम,
  • अनुरक्षा परिश्रम।

यह संवर परिश्रम क्या है?

  • जब साधक आँखों से कोई रूप देखता है, तो न वह उसकी छाप [“निमित्त”] पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं [“अनुव्यंजन”] को ग्रहण करता है। यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, चक्षु-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।
  • जब वह कान से कोई ध्वनि सुनता है, तो न वह उसकी छाप पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। यदि वह श्रोत-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, श्रोत-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।
  • जब वह नाक से कोई गंध सूँघता है, तो न वह उसकी छाप पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। यदि वह घ्राण-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, घ्राण-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।
  • जब वह जीभ से कोई स्वाद चखता है, तो न वह उसकी छाप पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। यदि वह जिव्हा-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, जिव्हा-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।
  • जब वह शरीर से कोई संस्पर्श अनुभव करता है, तो न वह उसकी छाप पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। यदि वह काय-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, काय-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।
  • जब वह मन से कोई विचार करता है, तो न वह उसकी छाप पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। यदि वह मन-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, मन-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।

इसे संवर परिश्रम कहते हैं।


और, यह त्याग परिश्रम क्या है?

  • कोई साधक उत्पन्न कामुक विचारों को बर्दाश्त नहीं करता, बल्कि उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।
  • वह उत्पन्न द्वेषपूर्ण विचारों को बर्दाश्त नहीं करता, बल्कि उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।
  • वह उत्पन्न हिंसक विचारों को बर्दाश्त नहीं करता, बल्कि उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।
  • वह उत्पन्न पाप अकुशल स्वभावों को बर्दाश्त नहीं करता, बल्कि उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।

इसे, त्याग परिश्रम कहते हैं।


और, यह साधना परिश्रम क्या है?

  • कोई साधक स्मृति [“सति”] संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • वह स्वभाव-जाँच [“धम्मविचय”] संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • वह ऊर्जा [“वीरिय”] संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • वह प्रफुल्लता [“पीति”] संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • वह प्रशान्ति [“पस्सद्धि”] संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • वह समाधि संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • वह तटस्थता [“उपेक्खा”] संबोधिअंग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।

इसे, साधना परिश्रम कहते हैं।


और, यह अनुरक्षा परिश्रम क्या है?

कोई साधक उत्पन्न हुए भाग्यशाली समाधि निमित्तों की अनुरक्षा [बनाए और बचाए रखना] करता है, जैसे —

  • अस्थि संज्ञा [=हड्डी के नजरिए से देखना],
  • कृमिग्रस्त [लाश] संज्ञा,
  • [लाश की] सड़न संज्ञा,
  • फटकर खुली हुई [लाश] संज्ञा,
  • फुली हुई [लाश] संज्ञा।

इसे, अनुरक्षा परिश्रम कहते हैं।

संवर हो और त्याग हो,
साधना और अनुरक्षा हो।
ये ही चारों परिश्रम हैं,
सिखाया आदित्यबन्धु (बुद्ध) ने।
जो भी भिक्षु तत्पर हो,
उसे दुःख-क्षय प्राप्त हो।”

— अंगुत्तरनिकाय ४:१४ : संवर सुत्त


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