नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

कम्म | सम्मादिट्ठी | इदप्पच्चयता | पटिच्च समुप्पाद | अरियसच्च

इदप्पच्चयता

संबोधि की खोज करते हुए, बुद्ध को इस “कारण कार्य” सिद्धांत का पता चला, जो दरअसल एक जटिल चक्र है। बुद्ध ने इसे “इदप्पच्चयता” कहा, क्योंकि यह अनुभवों का ‘यह’ या ‘वह’ शब्दों में तत्कालिक वर्णन करता है। उन्होंने इस सिद्धांत को एक सामान्य सूत्र में व्यक्त किया —

  1. जब यह है, तब वह है।
  2. इसके उत्पन्न होने से वह उत्पन्न होने लगता है।
  3. जब यह नहीं है, तब वह भी नहीं है।
  4. इसके अन्त होने से उसका भी अन्त होने लगता है।

—अंगुत्तरनिकाय १०:९२ : वेर सुत्त

इस सूत्र की व्याख्या कई तरीके से हो सकती हैं। उनमें एक तरीका कारण-कार्य संबंध की जटिलता को भलीभाँति समझाता है। इसे दो भिन्न प्रणालियों — कालक्रमिकता और तत्कालता — के आपसी गठजोड़ में देखा जाता है।

उदाहरण के लिए, बीज बोते ही आपको तत्काल फल नहीं मिलता। बीज को उचित परिस्थिति मिलनी चाहिए, जैसे नम भूमि, उर्वरक इत्यादि। तब समय पाकर वह अंकुरित होता है, पौधा बनता है, और तब कुछ वर्षों के बाद बड़ा होकर फ़ल देने लगता है। इस तरह, यह प्रक्रिया कालक्रमिक हुई। दूसरी-ओर, कुछ प्रक्रिया तत्काल परिणाम देती है। जैसे अग्नि में हाथ डालने पर प्रतिक्षा करनी नहीं पड़ती, तत्काल असर दिखता है। उसी तरह, कालक्रमिकता और तत्कालता दोनों मिलकर एक अनोखी ‘अ-क्रमिक प्रणाली’ बनाते हैं।

बुद्ध के दर्शाए सरल सूत्र में (१) और (३) को एक तत्काल जोड़ी के रूप में देखा जा सकता है। अर्थात, “जब यह है, तब वह है; जब यह नहीं है, तब वह भी नहीं है” — ये दोनों वर्तमान के क्षण में तत्काल परिणाम दिखाती हैं। दूसरी-ओर, (२) और (४) को कालक्रमिक जोड़ी के रूप में देखा जा सकता है। अर्थात, “इसके उत्पन्न होने से वह उत्पन्न होने लगता है; इसके अन्त होने से उसका भी अन्त होने लगता है” — ये दो कुछ समय लेकर भविष्य में परिणाम दिखाती हैं।

सरल शब्दों में बताया जाएँ, तो हमारे कर्म तत्काल वर्तमान में कुछ फ़ल देते हैं, और समय पाकर भविष्यकाल में भी कुछ कालक्रमिक फ़ल देते हैं। उसी तरह, आज वर्तमान की परिस्थिति वर्तमान के तत्काल कर्मों से प्रभावित हुई है, और साथ ही अतीत के कालक्रमिक कर्मों से भी उपजी है। उसी तरह, भविष्यकाल में जो परिस्थिति होगी, वह भविष्य के तत्काल कर्मों के साथ-साथ हमारे आज वर्तमान के कालक्रमिक कर्मों से भी उपजेगी। हमारे प्रत्येक कर्म का प्रभाव वर्तमान क्षण पर पड़ता है, और उसकी प्रतिध्वनि भविष्य में भी सुनायी देती है। कर्म की तीव्रता, उसके भारी या हल्केपन पर निर्भर करता है कि ये प्रतिध्वनियाँ कितने समय तक गूँजती रहेगी।

यह सिद्धांत ऊपरी-ऊपरी तौर पर अतिसरल प्रतीत होता है, किन्तु ‘कालक्रमिकता और तत्कालता’ का आपसी गठजोड़ अत्यंत जटिल होने लगता है, जिसमें अनेक चक्र चलने लगते हैं। प्रत्येक घटना एक संदर्भ में घटती है, जो कालचक्र की पिछली घटनाओं और वर्तमान कर्मों के मिलाप से प्रभावित होती है। ये प्रभाव एक-दूसरे को उग्र बना सकते हैं, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में रह सकते हैं, अथवा एक-दूसरे को रद्द भी कर सकते हैं। इस प्रकार, भले ही यह अनुमान लगाना संभव है कि एक विशेष प्रकार का कर्म एक निश्चित परिणाम देगा, किन्तु यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि वह परिणाम कब और कहाँ महसूस होगा।

यह जटिलता और अधिक बढ़ती है, जब दोनों प्रणालियों का मिलाप चित्त के अनुशय में होता हैं। मन अपनी सोच और इरादे से इन दोनों प्रणालियों को जीवित और सक्रिय बनाए रखने का कार्य करता है। हम अपने ही द्वारा चलायी गयी प्रक्रियाओं को महसूस कर व्याकुल होते रहते हैं। चूँकि हम अपने वर्तमान कर्मों से उपजते परिणामों पर प्रतिक्रिया भी देते रहते हैं, इसलिए कर्मों का चक्र चलते रहता है। हमारी प्रतिक्रियाएँ दुष्चक्र चला सकती हैं, जो हमारे वर्तमान के कर्म इनपुट और उसके उपजते परिणामों को अधिक उग्र बनाकर व्याकुलता बढ़ा सकती हैं। अथवा, हमारी प्रतिक्रियाएँ अच्छा सुचक्र भी चला सकती हैं, जो दोनों को रद्द करते हुए शान्ति बढ़ा सकती हैं।

उदाहरण के लिए, कोई गुस्से में आकर कर्म करे, तो उसे तत्काल बेचैनी और व्याकुलता का अनुभव होगा। इसलिए, हो सकता है कि वह और अधिक गुस्से में आकर प्रतिक्रिया दे। इस तरह, दुष्चक्र चलने लगता है, जो बुरे से बदतर होकर उसका गुस्सा अनियंत्रित कर सकता है। किन्तु, किसी दूसरे को वही बेचैनी और व्याकुलता का अनुभव हो, तो वह तुरंत ब्रेक लगाकर दुष्चक्र को रद्द कर, शान्त हो सकता है। याद रहे कि कर्मों के परिणाम उनके पूरे संदर्भ से निर्धारित होते हैं। अर्थात, किसी कर्म को करने से पहले क्या मनःस्थिति थी, करते समय क्या थी, और करने के पश्चात क्या हुई। ये और कई अन्य घटक मिलकर निर्धारित करते हैं कि उसका परिणाम कब, कहाँ और कितनी उग्रता से महसूस होगा।

इस तरह, कालक्रमिकता और तत्कालता के मेलमिलाप से कर्म सिद्धान्त अत्यंत जटिल और अक्रमिक बनता है। किन्तु इसी मेलमिलाप से कारण मुक्तिद्वार खुलने की संभावना भी बनती है। यदि वह केवल कालक्रमिक होता, तो सृष्टि नियतिवाद सिद्धान्त से यंत्रवत चलती, और दुनिया की तमाम घटनाओं की सटीक भविष्यवाणी करना संभव होता। दूसरी-ओर, यदि वह केवल तत्काल होता, तो एक क्षण का दूसरे से कोई संबंध न रहता, और दुनिया पूर्णतः अराजक और अकस्मात चलती। लेकिन दोनों का मेलमिलाप होने से ही, कोई अतीत में देखी प्रक्रियाओं से सीख सकता है, और उस सीख को वर्तमान में चल रही प्रक्रिया पर लागू कर के रोक सकता है। यदि अन्तर्ज्ञान सच्चा हो तो वह उस प्रक्रिया से हमेशा के लिए मुक्त हो सकता है। आर्य अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करके, कोई अपने कर्म को बेहतर और सूक्ष्म बनाते हुए, अंततः कर्म के पूर्ण चक्र से ही मुक्ति पा सकता है।

इसके अलावा, इदप्पच्चयता की अ-क्रमिकता यह भी दर्शाती है कि किसी एक पैमाने पर हो रही प्रक्रिया, दूसरे छोटे या बड़े पैमाने पर भी समान-रूप से होती है। यदि किसी बड़े अक्रमिक पैमाने को समझना हो, तो उसी के जैसे किसी छोटे पैमाने पर ध्यान देना होगा। क्योंकि उस छोटे पैमाने का पैटर्न बड़े पैमाने पर भी लागू होगा। उदाहरण के तौर पर, कोई अपने भीतर चार महाभूत — पृथ्वी, अग्नि, जल और वायु का पैटर्न समझ ले, तो उसे सम्पूर्ण ब्रह्मांड का भौतिक पैटर्न समझ में आता है। क्योंकि छोटे या बड़े पैमाने पर धातुएँ एक-सा व्यवहार करती हैं। इसी कारण से कहा जाता हैं कि “स्वयं को जान लो तो दुनिया जान जाओगे।” उसी तरह, यदि कोई वर्तमान क्षण में ध्यान लगाकर अपना कर्म रोक देता हो, तो उसे मुक्ति से साथ-साथ भूत-भविष्य-वर्तमान का त्रिकाल ज्ञान भी बोनस में मिलता है।


अगला सिद्धान्त »