नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

कम्म | सम्मादिट्ठी | इदप्पच्चयता | पटिच्च समुप्पाद | अरियसच्च

पटिच्च समुप्पाद

यह इदप्पच्चयता से जुड़ा धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसका अर्थ है “पटिच्च” (=निर्भर होना) और “समुप्पाद” (=उत्पन्न होना)। इसका तात्पर्य है कि कोई भी घटना या वस्तु स्वतंत्र रूप से मौजूद नहीं है, बल्कि अन्य कारकों पर निर्भर करती है। संसार की सभी घटनाएँ और वस्तुएँ एक दूसरे पर निर्भर होकर ही उत्पन्न होती है, या विलुप्त भी होती हैं। एक घटना दूसरी घटना का कारण बनती है, जो फिर तीसरी घटना का कारण बनती है, और इस तरह यह १२ कड़ियों की श्रृंखला चलती रहती है। यह सिद्धांत बताता है कि सब परिवर्तनशील है और कुछ भी स्थायी नहीं है। इससे आत्मा के होने की या ना होने की चर्चा अप्रासंगिक बन जाती है।

यह सिद्धांत उस सटीक कड़ी पर प्रकाश डालता है, जिस कड़ी को तोड़कर कर्मचक्र से मुक्ति संभव हो सकती है। उस कड़ी को तोड़ने के लिए हमें वर्तमान के क्षण में मिलने वाले अवसर को पहचानना होता है। इसलिए कर्म के प्रभाव और उसके दुष्चक्र को समझने के लिए हमें अत्यंत स्वच्छ, स्थिर और एकाग्र चित्त की आवश्यकता होती है, जो सूक्ष्मता से उस कड़ी पर ध्यान केन्द्रित कर पाए।

इस सिद्धांत को १२ कड़ियों की श्रृंखला में बताया जाता है —

  • अविद्या (अज्ञानता)
  • रचना (कायिक, वाचिक और चेतसिक रचना)
  • चैतन्य
  • नाम-रूप (संस्पर्श, वेदना, नजरिया, चेतना, मनन, और चार महाभूत)
  • छह आयाम (छह इंद्रियों की संभावना)
  • संस्पर्श (इंद्रियों पर उनके विषय टकराना)
  • संवेदना (अनुभूति)
  • तृष्णा
  • आसक्ति (उपादान=आधार=ईंधन)
  • भव (अस्तित्व बनना या बनाना)
  • जन्म
  • बुढ़ापा और मौत

हालाँकि यह कड़ियाँ एक क्रमिक प्रणाली की तरह लग सकती हैं, लेकिन ये भी कई अक्रमिक दुश्चक्रों (फीडबैक लूप) से भरी होकर छोटे-बड़े पैमाने पर चलती रहती हैं, जब तक रोकी न जाएँ। जैसे, जन्म की प्रक्रिया दो पैमानों पर घटती हैं — भौतिक जन्म, और चित्त में स्व-अस्तित्व का अनुभव पैदा होना। इन्हीं कड़ियों में बुद्ध का कर्म और पुनर्जन्म को लेकर गहरा विश्लेषण छिपा है।

जैसे, कर्म, जो नाम-रूप के तहत ‘चेतना’ घटक में शामिल है, अपनी कड़ी में आसक्ति और भव के जरिये किसी विशेष लोक में जन्म लेने के लिए जिम्मेदार है। कर्म ही पाँच स्कंधों (रूप, संवेदना, नजरिया, रचना और चैतन्य) को उत्पन्न करता है, जो तृष्णा और आसक्ति उत्पन्न कराते हैं। जैसे ही आसक्ति उत्पन्न हो, वैसे ही उस लोक में भव के तहत अस्तित्व बनना शुरू हो जाता है — चाहे वह कामलोक हो, ब्रह्मलोक हो या अरूप आयाम हो। ये लोक संसार के विविध स्तरों पर छिपी दुनिया ही नहीं, बल्कि चित्त-अवस्थाओं के विविध स्तर भी दर्शाते हैं। जैसे हमारी कुछ चित्त-अवस्थाएँ कामसुख ढूँढती हैं, कुछ ब्रह्मसुख में स्थिर होती हैं, तो कुछ अरूप आयाम में ब्रह्मांड में फैलती हैं।

‘भव और जन्म लेने’ की कड़ी को दर्शाने के लिए ‘नींद आकर स्वप्न देखने’ की उपमा दी जाती है। जिस तरह, चित्त पर तंद्रा की चादर बिछकर, जागृत-अवस्था से संपर्क टूटता है, और फिर किसी अन्य ‘स्थान और काल’ का चित्र प्रकट होकर स्वप्न चलने लगता है। उसी तरह, कोई कल्पना चित्र प्रकट होना भव-प्रक्रिया है। स्वप्न जैसे, उस चित्र में प्रवेश कर कोई भूमिका अदा करने लगना, जन्म लेकर जिम्मेदारियाँ अदा करने की प्रक्रिया हैं। पालि अट्ठकथाएँ ज़ोर देकर कहती हैं कि ‘भव और जन्म’ की कड़ी ‘सो कर स्वप्न’ देखने की प्रक्रिया जैसी ही है। इस उपमा से पता चलता है कि भवचक्र से मुक्ति को ‘जागृती’ से क्यों जोड़ा जाता है।

किसी सत्व का किसी लोक में जन्म हो, तब ‘नाम-रूप और चैतन्य’ की कड़ी उसके अस्तित्व को बनाएँ रखती है। चैतन्य के बिना सत्व की भौतिकता-मानसिकता (नामरूप) बच नहीं सकती, और उसके छह इंद्रियों की संभावनाएँ भी खत्म हो जाती है। दूसरी-ओर, भौतिकता-मानसिकता के सिवा चैतन्य और कही आधार नहीं ले सकता। और यही कड़ी कर्म कौशलता को भी विकसित करती है, और इस सम्पूर्ण दुश्चक्र को तोड़ने का कार्य भी करती है। नाम-स्कन्ध के सभी पाँच घटक उस प्रक्रिया में हिस्सा लेते हैं।

सबसे पहले कौशलता बढ़ाने की चेतना (इरादा) होनी चाहिए। उसकी चेतना जो परिणाम देगी, वह लोभ, द्वेष या भ्रम में लिप्त चेतना से बहुत भिन्न होगा। कोई कहाँ ध्यान देता है—उचित या अनुचित जगह पर—उसे ‘मनसिकार’ या मनन करना कहते हैं, जो घूमकर चेतना को प्रभावित करता है। उदाहरणार्थ, कोई कामुकता से जुड़ी अनुचित बात पर ध्यान दे, तो काम-संस्पर्श टकरा कर काम-नजरिया और काम-संवेदना उत्पन्न होंगे, जो घूमकर उसकी चेतना को कामराग में दूषित कर सकते हैं। दूसरी-ओर, यदि कोई कामुकता के दुष्परिणाम पर ध्यान दे, तो यही चक्र उल्टा घूमकर विराग चित्त की कुशल चेतना उत्पन्न होगी, जो राहत का संवेदना महसूस कराएगी। यदि नाम-स्कन्ध के सभी घटक दूषित और अनुचित प्रभाव से छूटते हों, तो रूप-स्कन्ध पर असर पड़ता है, चैतन्य पर असर पड़ता है, और आगे की कड़ियों पर असर पड़ता है। इस तरह, कर्म की कौशलता परिणामों में उत्तमता और सूक्ष्मता लाती है।

हम जिस नजरिए पर ध्यान दें, उस तरह का चक्र घूमने लगता है और परिणामों में अंतर आने लगता है। यदि कोई केवल मुक्ति की चेतना जगाएँ, तब उस कर्म से भी चक्र घूमते रहता है, रुकता नही। हमें यह जानना जरूरी है कि चैतन्य सभी ग्यारहों कड़ियों के साथ लगातार जुड़ा रहकर प्रभावित होते रहता है। कर्म के इस चक्रव्युह को तोड़ने के लिए अक्रिया नहीं, बल्कि कर्म की प्रक्रिया पर सूक्ष्म से सूक्ष्मतम ध्यान देना आवश्यक है। जब हमारा सूक्ष्मतम, स्थिर और एकाग्र ध्यान कर्म की प्रक्रियाओं में कौशलता प्राप्त कर पारंगत हो जाता है, तब उसे मुक्ति का अनोखा अवसर दिखाई देता है, जिसे अतम्मय अवस्था कहते हैं, जिसमें कर्म की किसी भी प्रक्रिया में चैतन्य हिस्सा नहीं लेता, और कुछ भी न रचने से अरचित-अवस्था का साक्षात्कार करता है। जिस तरह पका हुआ फल पेड़ से स्वयं गिर पड़ता है, उसी तरह उन्नत और पका हुआ चित्त कर्म-प्रक्रिया से छुटकर मुक्त हो जाता है।

तब पता चलता है कि मुक्तिमार्ग में सबसे बड़ा अवरोध ‘अविद्या’ है, जो ध्यान को पूर्णतः सचेत और जागरूक नहीं होने देती। अविद्या-रूपी बेहोशी में लगातार चित्त रचनाएँ बनती रहती हैं, और उनसे फूटती व्याकुलता की लहरें टकरा-टकराकर शान्ति भंग करती रहती हैं। उस अविद्या को खत्म करने की विद्या चार आर्यसत्यों से व्यक्त होती है। जब अविद्या खत्म हो तो अनेक अंगों-घटकों पर चिपकी हुई तृष्णा बलहीन हो-होकर गिर पड़ती है, और दुष्चक्र थम जाता है।


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