संसार में अधिकतर लोग स्मृतिहीन और असजग जीवन जीते हैं। उनके दिनचर्या में बस कुछ ही क्षण ऐसे होते हैं जब वे थोड़ी सजगता के साथ उपस्थित होते हैं। बाकी समय तो वे अचेतन क्रिया-प्रतिक्रियाओं के वश में होकर जीते हैं। इसी कारण, चित्त में अंधे क्षेत्र उत्पन्न होते हैं, या पहले से बने अप्रकाशित क्षेत्र गहरे होते जाते हैं।
इन अवबोध-अंध क्षेत्रों में वही क्षण संचित होते हैं, जब व्यक्ति ने अचेतन अवस्था में कोई कर्म किया हो — चाहे वह पुरानी आदतें हों, स्वचालित प्रतिक्रियाएँ, अथवा स्वतः होने वाली शारीरिक व मानसिक गतिविधियाँ। ये चित्त में काले धब्बों जैसे प्रतीत होते हैं, जिनमें अक्सर नकारात्मक ऊर्जा भी जमा हो जाती है।
यही अंध क्षेत्र चित्त की समग्रता को भंग कर देते हैं। चित्त विभाजित होकर अलग-अलग हिस्सों में कार्य करने लगता है, जिससे एकरूपता खो जाती है। और यहीं से सुस्ती, तंद्रा, आलस्य, थकावट, भ्रम, दिन में स्वप्न देखना, और खोये-खोये से रहने की प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। ये सब ‘मोह’ की अकुशल श्रेणी में आते हैं।
कभी-कभी बाह्य वातावरण भी इसमें भूमिका निभाता है — जैसे जब आकाश में घने बादल छा जाते हैं, तब एक प्रकार का चैतसिक दबाव उत्पन्न होता है। उस दबाव में चित्त की ऊर्जा सिर की ओर उठ नहीं पाती, और अधिकांश लोग सुस्ती या तंद्रा में डूब जाते हैं।
ऐसे में हमें चाहिए कि हम सजग होकर इन अंध क्षेत्रों को पहचानें और उन्हें चित्त से मिटाने का प्रयास करें। जब ये हटते हैं, तो चित्त के बिखरे हुए हिस्से फिर से आपस में जुड़कर एकरूप होने लगते हैं, और स्मृति, सजगता व सचेतता की रोशनी में चित्त प्रकाशित हो उठता है।
इसके लिए कभी-कभी हमें अपने प्रति सख्ती भी दिखानी होती है — दृढ़ता और समर्पण के साथ, हमें स्मृतिमान और कार्यशील बनकर इन अंध क्षेत्रों को हटाने की साधना करनी चाहिए। ध्यान की गहराई में जाकर उनके निराकरण की प्रक्रिया को सक्रिय करना चाहिए।
ध्यान अवस्था में प्रवेश करते ही शरीर में ऊर्जा का प्रवाह संतुलित होने लगता है। इसके साथ शरीर की संवेदनशीलता बढ़ती है, और चारों सतिपट्ठान की साधना स्वतः प्रकट होने लगती है। उनकी साधना से चित्त ऊँचा उठकर गहन सत्यों का बोध करता है।
आईये, जानते हैं भगवान ने महामोग्गलान भंते को इस रुकावट से कैसे निकाला। और फिर, ऊर्जा जगाने के आठ बहाने भी जान लें।
एक समय भगवान भग्गों के साथ भेसकला मृगवन में मगरमच्छ-अड्डे के समीप विहार कर रहे थे। उस समय [बोधि प्राप्त करने के पूर्व] भन्ते महामोग्गलान मगध के कल्लवलपुत्र गाँव के समीप [शायद ध्यानमुद्रा में] बैठकर ऊँघ रहे थे।
तब भगवान ने अपने मनुष्योत्तर विशुद्ध दिव्यचक्षु से महामोग्गलान भन्ते को ऊँघते हुए देखा।
तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, भगवान मृगवन से गायब होकर महामोग्गलान भन्ते के ठीक सामने प्रकट हुए, और बिछे आसन पर बैठ गए। उन्होंने बैठकर महामोग्गलान भन्ते से पूछा, “क्या तुम ऊँघ रहे थे, मोग्गलान?”
“हाँ, भन्ते।”
तब भगवान ने कहा, “ठीक है, मोग्गलान —
• जब तुम्हें तंद्रा आने लगे, तब उस संज्ञा पर ध्यान मत दो, उस नज़रिए के पीछे मत पड़ो। संभव है ऐसा [सोच बदल कर] कर तुम तंद्रा हटा पाओगे।
• किंतु यदि ऐसा कर के भी तंद्रा न हटा पाए, तब अपने मानस में सुना हुआ, याद किया हुआ कोई धर्म-विषय ले आओ, और उस पर पुनर्विचार करने लगो, मन में चिंतन-मनन करने लगो। संभव है ऐसा [मन को सक्रिय] कर तुम तंद्रा हटा पाओगे।
• किंतु यदि ऐसा कर के भी तंद्रा न हटा पाए, तब सुने हुए, याद किए हुए धर्म का विस्तारपूर्वक पठन करो। संभव है ऐसा [वाणी का उपयोग] कर तुम तंद्रा हटा पाओगे।
• किंतु यदि ऐसा कर के भी तंद्रा न हटा पाए, तब अपने दोनों कान खींचो और शरीर को हाथों से रगड़ने लगो। संभव है ऐसा [शरीर को सक्रिय] कर तुम तंद्रा हटा पाओगे।
• किंतु यदि ऐसा कर के भी तंद्रा न हटा पाए, तब अपने आसन से उठो, आँखे जल से धोकर सभी दिशाओं में देखो, ऊपर तारे-नक्षत्रों को देखो। संभव है ऐसा [रिफ्रेश हो] कर तुम तंद्रा हटा पाओगे।
• किंतु यदि ऐसा कर के भी तंद्रा न हटा पाए, तब उजाले को देखने लगो। ‘उजला दिन है’ — इस नज़रिए का अधिष्ठान लो — रात में दिन जैसा रहना, और दिन में रात जैसा रहना। इस तरह खुला, बिना रुकावट वाले मानस के साथ चित्त को उजालेदार बनाने का अभ्यास करो। संभव है ऐसा [नजरिया पलटा] कर तुम तंद्रा हटा पाओगे।
• किंतु यदि ऐसा कर के भी तंद्रा न हटा पाए, तब आगे-पीछे [निश्चित दूरी] पहचान कर, चक्रमण करो। इंद्रिय भीतर की ओर रहें, मानस बाहर न भटकें! संभव है ऐसा [गतिविधि] कर तुम तंद्रा हटा पाओगे।
• किंतु यदि ऐसा कर के भी तंद्रा न हटा पाए, तब दायी करवट लेटते हुए सिंहशय्या धारण करो — पैर के ऊपर पैर रख, स्मरणशील और सचेत होकर, उठने पर ध्यान लगाओं। और, जैसे ही जागो, तुरंत उठ जाओ, [सोचते हुए] ‘मैं नींद के सुख में, लेटने के सुख में, या तंद्रा के सुख में लिप्त नहीं होऊँगा!’
— इस तरह, मोग्गलान, तुम्हें सीखना चाहिए।”
— अंगुत्तरनिकाय ७:६१
“अनुत्पन्न सुस्ती और तंद्रा को उत्पन्न करने, और उत्पन्न हुई सुस्ती और तंद्रा को बढ़ाकर अत्याधिक करने का आहार क्या है? बोरियत, थकान, उबासियाँ, भोजन के पश्चात तंद्रा, और मानस में आलस्य होता है — उस पर अनुचित चिंतन करना आहार बनता है अनुत्पन्न सुस्ती और तंद्रा उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई सुस्ती और तंद्रा बढ़कर अत्याधिक होने का। किन्तु, ऊर्जा का संचार, प्रयास, और उद्यमशीलता का सामर्थ्य होता है — उस पर उचित चिंतन करना अनाहार है अनुत्पन्न सुस्ती और तंद्रा उत्पन्न होने और उत्पन्न हुई सुस्ती और तंद्रा बढ़कर अत्याधिक होने को।” — संयुत्तनिकाय ४६:५१ : आहार सुत्त
भगवान ने कहा, “ऊर्जा जगाने के आठ बहाने हैं। • ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई काम करना होता है। उसे लगता है, ‘मुझे यह काम करना है। किंतु काम करते हुए बुद्ध निर्देश पर ध्यान देना सरल नहीं होगा। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह ऊर्जा जगाने का पहला बहाना है। • आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु काम कर लेता है। उसे लगता है, ‘मैंने यह काम किया। किंतु काम करते हुए मैं बुद्ध निर्देश पर ध्यान नहीं दे पाया। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का दूसरा बहाना है। • आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को यात्रा करनी होती है। उसे लगता है, ‘मुझे यह यात्रा करनी है। किंतु यात्रा करते हुए बुद्ध निर्देश पर ध्यान देना सरल नहीं होगा। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का तीसरा बहाना है। • आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु यात्रा कर लेता है। उसे लगता है, ‘मैंने यह यात्रा किया। किंतु यात्रा करते हुए मैं बुद्ध निर्देश पर ध्यान नहीं दे पाया। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का चौथा बहाना है। • आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिलता है। उसे लगता है, ‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा से कम भोजन मिला। मेरा शरीर हल्का है, काम करने के योग्य। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का पाँचवा बहाना है। • आगे, ऐसा होता है कि कोई भिक्षु गाँव या नगर में भिक्षाटन करने जाता है, तो उसे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिलता है। उसे लगता है, ‘आज मुझे अपेक्षाकृत मात्रा में भोजन मिला। मेरा शरीर हल्का है, काम करने के योग्य। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का छठा बहाना है। • आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को कोई हल्की बीमारी होती है। उसे लगता है, ‘मुझे हल्की बीमारी हो गई। संभव है कि यह बीमारी गंभीर हो जाए। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है… यह ऊर्जा जगाने का सातवा बहाना है। • आगे, ऐसा होता है कि किसी भिक्षु को बीमारी से उबर कर अधिक समय नहीं होता। उसे लगता है, ‘मुझे बीमारी से उबर कर अधिक समय नहीं हुआ। संभव है कि बीमारी फिर लौट आए। क्यों न मैं अभी ऊर्जा जगाऊँ — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए।’ तब वह भिक्षु ऊर्जा जगाता है — अब तक न पायी अवस्था को पाने के लिए, न पहुँची अवस्था तक पहुँचने के लिए, न साक्षात्कार हुई अवस्था के साक्षात्कार के लिए। यह ऊर्जा जगाने का आठवा बहाना है।” — अंगुत्तरनिकाय ८:९५
सुस्ती/तंद्रा का आहार और अनाहार
ऊर्जा जगाने की प्रेरणा
निस्संदेह, कुछ दिनों में हमें शारीरिक विश्राम की अधिक आवश्यकता महसूस होती है। थकान, नींद या तंद्रा जैसी स्थितियाँ सहज हैं, और इन्हें वेग कहा गया है—जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। समस्या तब होती है जब यह स्थिति आदत बन जाए। तब व्यक्ति बिना किसी ठोस कारण के इसे उचित मान लेता है, और कार्यशीलता, तत्परता व उत्साह से जीवन जीने में असमर्थ हो जाता है।
ऐसी स्थिति में शरीर को उसी तरह प्रशिक्षित करना चाहिए, जैसे कोई कुशल घुड़सवार अपने घोड़े को साधता है—कभी सख्ती से, कभी कोमलता से; कभी अनुशासन से, तो कभी प्रोत्साहन से। आवश्यकता के अनुसार स्वयं को समझते हुए, हर व्यक्ति को एक नियमित दिनचर्या में बंधकर कार्य करना चाहिए, ताकि चित्त को निरंतर बहाने गढ़ने की आदत न पड़ जाए।
यदि शारीरिक ऊर्जा की कमी महसूस हो, तो कुछ देर के लिए लंबी और गहरी साँसें थोड़ी तेज़ गति से लें। जैसे हवा रहित फुटबॉल उछल नहीं सकता, वैसे ही ऊर्जा से रहित शरीर साधना में प्रवृत्त नहीं हो पाता। लेकिन जब उसमें प्राणवायु भरती है, तो वह पुनः सक्रिय हो उठता है। ऐसे में जब आपको लगे कि ऊर्जा संतुलित हो गई है, तो साँस को स्वाभाविक प्रवाह में छोड़ दें और साधना को पुनः आगे बढ़ाएँ।
आईए, अब दूसरी रुकावट के त्याग की ओर बढ़ें — यानी उस बेचैनी और पश्चाताप की ओर—