इस शब्द का अर्थ है “निकट रहना” — अर्थात उस अवस्था के निकट जाना जो एक परममुक्त अरहंत की हो। यह वह दिन होता है जब एक गृहस्थ व्यक्ति अपने सांसारिक कर्तव्यों से एक दिन का अवकाश लेकर संयम, शान्ति और संतुष्टि में दिन बिताता है। जैसे पूर्णिमा की रात चंद्रमा पूरे समुद्र को शीतल कर देती है, वैसे ही उपोसथ चित्त को शीतल और निर्मल कर देता है।
अन्य परंपराओं में लोग कुछ खास तिथियों पर व्रत, उपवास या धार्मिक अनुष्ठान करते हैं — जैसे अमावस्या, पूर्णिमा आदि को। बुद्ध ने इन तिथियों का उपयोग करते हुए उन्हें एक गहरा अर्थ और उद्देश्य दिया। इस दिन गृहस्थ अपने चित्त को शुद्ध करने के साधन अपनाता हैं, जैसे —
कुछ लोग महीने में चारों उपोसथ करते हैं — अमावस्या, पूर्णिमा, शुक्ल अष्टमी, कृष्ण चतुर्दशी — लेकिन कोई केवल पूर्णिमा से भी शुरुआत कर सकता है।
गौर करें कि यह व्रत शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं, बल्कि योग्य उपक्रम कर के चित्त को धोकर साफ़ करने का अवसर है। आज जब मानव का जीवन गति, आकांक्षा और कोलाहल से भरा हुआ है, तब उपोसथ का पालन जीवन को राहत देता है और जीवन की दिशा निर्धारित करता है। यह दिन साधारण व्रत या उपवास के लिए नहीं, बल्कि मन, वाणी और शरीर को “भोग वृत्ति” से मुक्त करने का साधन है।
भगवान कहते हैं —
“आर्य उपोसथ क्या होता है?
योग्य उपक्रम कर दूषित चित्त को साफ़ करना।
कोई योग्य उपक्रम कर दूषित चित्त को कैसे साफ़ करता है?
➤ ऐसा होता है कि आर्यश्रावक तथागत का अनुस्मरण करता है — ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या व आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता व मानव के शास्ता, बुद्ध भगवान!’
तथागत का अनुस्मरण कर, उसका चित्त शान्त [आश्वस्त] होता है, प्रसन्नता उपजती है, तथा चित्त से मलीनता छूट जाती है।
जैसे योग्य उपक्रम कर “सिर” धोया जाता है। लेप लगाकर, मिट्टी लगाकर [आजकल शाम्पू और कंडीशनर], जल लगाकर एवं थोड़ी मेहनत कर सिर धोया जाता है। उसी तरह [तथागत का अनुस्मरण कर] दूषित चित्त साफ़ किया जाता है।
➤ ऐसा होता है कि आर्यश्रावक धर्म का अनुस्मरण करता है — “वाकई भगवान का धर्म स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, कालातीत है, आजमाने योग्य, परे ले जाने वाला, समझदार द्वारा अनुभव योग्य!”
धर्म का अनुस्मरण कर, उसका चित्त शान्त होता है, प्रसन्नता उपजती है, तथा चित्त से मलीनता छूट जाती है।
जैसे योग्य उपक्रम कर “शरीर” धोया जाता है। स्वस्ति लगाकर, चूर्ण लगाकर [आजकल साबुन इत्यादि], जल लगाकर एवं थोड़ी मेहनत कर शरीर धोया जाता है। उसी तरह [धर्म का अनुस्मरण कर] दूषित चित्त साफ़ किया जाता है।
➤ ऐसा होता है कि आर्यश्रावक संघ का अनुस्मरण करता है — “वाकई भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है, सीधे मार्ग पर चलता है, व्यवस्थित मार्ग पर चलता है, उचित मार्ग पर चलता है। चार जोड़ी में, आठ तरह के आर्यजन — यही भगवान का श्रावकसंघ है — उपहार देने योग्य, अतिथि बनाने योग्य, दक्षिणा देने योग्य, प्रणाम करने योग्य, दुनिया के लिए सर्वोपरि पुण्यक्षेत्र!”
संघ का अनुस्मरण कर, उसका चित्त शान्त होता है, प्रसन्नता उपजती है, तथा चित्त से मलीनता छूट जाती है।
जैसे योग्य उपक्रम कर “वस्त्र” धोया जाता है। ऊष्मा देकर, क्षार लगाकर, गोबर लगाकर [आजकल डिटर्जेंट], जल लगाकर एवं थोड़ी मेहनत कर वस्त्र धोया जाता है। उसी तरह [संघ का अनुस्मरण कर] दूषित चित्त साफ़ किया जाता है।
➤ ऐसा होता है कि आर्यश्रावक अपने शील का अनुस्मरण करता है — “जो अखंडित हो, अछिद्रित हो, बेदाग हो, बेधब्बा हो, निष्कलंक हो, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो और समाधि की ओर बढ़ाते हो।”
अपने शील का अनुस्मरण कर चित्त शान्त होता है, प्रसन्नता उपजती है, तथा चित्त से मलीनता छूट जाती है।
जैसे योग्य उपक्रम कर “दर्पण” धोया जाता है। तेल लगाकर, राख लगाकर [आजकल कॉलिन], बाल का गुच्छा रगड़कर, थोड़ी मेहनत कर दर्पण धोया जाता है। उसी तरह [अपने शील का अनुस्मरण कर] दूषित चित्त साफ़ किया जाता है।
➤ ऐसा होता है कि आर्यश्रावक देवताओं का अनुस्मरण करता है — “चार महाराज देवता होते हैं! तैतीस देवता होते हैं! याम देवता होते हैं! तुषित देवता होते हैं! निर्माणरती देवता होते हैं! परिनिर्मित वशवर्ती देवता होते हैं! ब्रह्मकायिक देवता होते हैं! उनसे परे भी देवता होते हैं!
वे जिस श्रद्धा से संपन्न हो, यहाँ से च्युत होने पर वहाँ उत्पन्न हुए थे, वहीं श्रद्धा मुझ में भी है! वे जिस शील से संपन्न हो, यहाँ से च्युत होने पर वहाँ उत्पन्न हुए थे, वहीं शील मुझ में भी है! वे जो [सद्धर्म] सुनने से संपन्न हो, यहाँ से च्युत होने पर वहाँ उत्पन्न हुए थे, वहीं श्रुत मुझ में भी है! वे जिस त्याग [दानशीलता] से संपन्न हो, यहाँ से च्युत होने पर वहाँ उत्पन्न हुए थे, वहीं त्याग मुझ में भी है! वे जिस अंतर्ज्ञान से संपन्न हो, यहाँ से च्युत होने पर वहाँ उत्पन्न हुए थे, वहीं अंतर्ज्ञान मुझ में भी है!”
देवताओं का अनुस्मरण कर, उसका चित्त शान्त होता है, प्रसन्नता उपजती है, तथा चित्त से मलीनता छूट जाती है।
जैसे योग्य उपक्रम कर “चांदी” को धोया जाता है। भट्टी तपाकर, नमक लगाकर, गेरू लगाकर, फूंकनी लेकर, थोड़ी मेहनत कर चांदी को धोया जाता है। उसी तरह [देवताओं का अनुस्मरण कर] दूषित चित्त साफ़ किया जाता है।
और आगे, आर्यश्रावक चिन्तन करता है —
(१) “अर्हन्त जीवित रहते तक हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहते हैं — डंडा एवं शस्त्र फेंक चुके, शर्मिले एवं दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी!
आज मैं भी दिन एवं रात तक हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहूँगा — डंडा एवं शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला एवं दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!
(२) अर्हन्त जीवित रहते तक ‘न सौंपी चीज़ें’ त्यागकर चुराने से विरत रहते हैं। गांव या जंगल से न दी गई, न सौंपी, पराई वस्तु चोरी की इच्छा से नहीं उठाते, नहीं लेते हैं। बल्कि मात्र सौंपी चीज़ें ही उठाते, स्वीकारते हैं। पावन जीवन जीते हैं, चोरी चुपके नहीं!
आज मैं भी आज दिन एवं रात तक ‘न सौंपी चीज़ें’ त्यागकर चुराने से विरत रहूँगा। गांव या जंगल से न दी गई, न सौंपी, पराई वस्तु चोरी की इच्छा से नहीं उठाऊँगा, नहीं लूंगा! बल्कि मात्र सौंपी चीज़ें ही उठाऊँगा एवं स्वीकारूँगा! पावन जीवन जिऊँगा, चोरी चुपके नहीं! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!
(३) अर्हन्त जीवित रहते तक ब्रह्मचर्य धारण कर अब्रह्मचर्य से पृथक, विरत रहते हैं — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत!
आज मैं भी दिन एवं रात तक ब्रह्मचर्य धारण कर अब्रह्मचर्य से पृथक, विरत रहूँगा — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!
(४) अर्हन्त जीवित रहते तक झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहते हैं! वह सत्यवादी, सत्य के पक्षधर, दृढ़ एवं भरोसेमंद होते हैं! दुनिया को ठगते नहीं हैं!
आज मैं भी दिन एवं रात तक झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहूँगा! मैं सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ एवं भरोसेमंद बनूंगा! दुनिया को ठगुंगा नहीं! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!
(५) अर्हन्त जीवित रहते तक शराब, मद्य आदि मदहोश करनेवाला नशापता त्यागकर नशेपते से विरत रहते हैं।
आज मैं भी दिन एवं रात तक शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहूँगा! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!
(६) अर्हन्त जीवित रहते तक दिन में एक ही बार भोजन करते हैं — रात्रिभोज एवं विकालभोज [मध्यान्ह के पश्चात] से विरत!
आज मैं भी दिन एवं रात तक दिन में एक ही बार भोजन करूँगा — रात्रिभोज एवं विकालभोज से विरत! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!
(७) अर्हन्त जीवित रहते तक नृत्य गीत वाद्यसंगीत एवं नाट्य मनोरंजन, तथा माला गंध लेप, सुडौलता लाने वाले एवं अन्य सौंदर्य प्रसाधन से विरत रहते हैं।
आज मैं भी दिन एवं रात तक नृत्य गीत वाद्यसंगीत एवं नाट्य मनोरंजन, तथा माला गंध लेप, सुडौलता लाने वाले एवं अन्य सौंदर्य प्रसाधन से विरत रहूँगा! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!
(८) अर्हन्त जीवित रहते तक ऊँचे एवं बड़े आसन अथवा पलंग के उपयोग से विरत रहते हैं।
आज मैं भी दिन एवं रात तक ऊँचे एवं बड़े आसन अथवा पलंग के उपयोग से विरत रहूँगा! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!”
यह होता है आर्य उपोसथ। जब कोई आर्य उपोसथ ग्रहण करें, तो उसका महाफ़ल, महापुरस्कार मिलता है।”
यह दिन सांसारिक उद्देश्यों को सोचने का नहीं, बल्कि चित्त-मुक्ति के करीब जाने का हैं। याद रखें कि भगवान ने पाँच अनुस्मृति साधना के लिए जीवंत उपमाएँ दी। उन्होने तथागत की अनुस्मृति को “सिर” धोने से, धर्म की अनुस्मृति को “शरीर” धोने से, संघ की अनुस्मृति को “वस्त्र” धोने से, अपने अटूट शील की अनुस्मृति को “दर्पण” धोने से, और देवताओं की अनुस्मृति को “चाँदी” या धनसंपत्ति धोने से जोड़ा।
इस तरह, उपोसथ वह दिन है जब हम जीवन की धूल को धोकर, चित्त के स्वर्ण को उजागर करते हैं।
प्रस्ताव: 🔔 कई बार कुछ लोग मधुमेह जैसे रोगों, शारीरिक दुर्बलता, या अदृश्य शक्तियों के प्रभाव के कारण अपराह्न भोजन (विकालभोजन) करने के लिए विवश हो जाते हैं। ऐसे में वे अष्टशील का पालन करने में संकोच करते हैं।
यदि ऐसी स्थिति हो, तो विकालभोजन को व्यावहारिक कारणों से स्थगित किया जा सकता है। इसकी जगह उपोसथ के दिन “दस कुशल कर्मों” का कड़ाई से पालन करें और अनुस्मृतियों के साथ दिन बिताएँ। यह विकल्प न केवल लचीला है, बल्कि चित्त की शुद्धता और धर्मानुशीलता को भी बनाए रखता है।
दस कुशल क्या है?
काया से —
- जीवहत्या से विरत रहना कुशल है।
- चुराने से विरत रहना कुशल है।
- व्यभिचार से विरत रहना कुशल है।
वाणी से —
- झूठ बोलने से विरत रहना कुशल है।
- फूट डालनेवाली बातें करने से विरत रहना कुशल है।
- कटु बोलने से विरत रहना कुशल है।
- निरर्थक बोलने से विरत रहना कुशल है।
मन से —
- लालच से विरत रहना कुशल है।
- दुर्भावना से विरत रहना कुशल है।
- सम्यकदृष्टि कुशल है।”
इन दस कुशल कर्मों का पालन न केवल महाफलदायक है, इससे भी चित्त का शुद्धिकरण होता है। इस प्रकार व्यक्ति धर्मानुशील बना रहता है, और उसकी साधना में निरंतरता बनी रहती है।