संसारिक जिम्मेदारियों का पालन करना धर्म का अभिन्न हिस्सा है। हमारे प्रत्येक कर्म का हमारे परिवार, समाज और परिवेश पर गहरा प्रभाव पड़ता है। हमारे कुछ कर्मों से उन्हें कष्ट होता है, जबकि कुछ से शांति और राहत मिलती है। इसी आधार पर हमारे व्यक्तित्व और अस्तित्व की रचना होती है, जो हमारे भविष्य की दिशा भी तय करती है।
हमें हमारे आसपास के सभी जीवों के प्रति धार्मिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। भगवान के अनुसार, जो व्यक्ति इन कर्तव्यों की अनदेखी करता है, उसे इस जीवन में सामाजिक निंदा और परलोक में दुर्गति का सामना करना पड़ता है। अक्सर, ऐसे व्यक्ति आत्मकेंद्रित और संवेदनशून्य होते हैं, जिनकी केवल अपनी इच्छाएँ और सपने सर्वोपरि होते हैं।
कुछ लोग समाज में बड़ी समझदारी से बात करते हैं और इसलिए उनका सम्मान भी होता है, लेकिन घर में वही व्यक्ति अपने परिवार के साथ कटु और आक्रामक व्यवहार करता है। वह उन्हें मानसिक दबाव और तनाव में रखता है, जिससे उनका जीवन दूभर हो जाता है।
विनम्रता की कमी, दूसरों के प्रति उपेक्षा, और लोगों की आवश्यकताओं के प्रति उदासीनता, केवल अधर्म नहीं, बल्कि सांसारिक असभ्यता और नीचता का प्रतीक है। ऐसे व्यक्तियों की निंदा की जानी चाहिए, ताकि समाज में यह संदेश जाए कि सभ्य समाज में ऐसे आचरण को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
जब हम दूसरों के प्रति दयालु और सहानुभूति से भरे होते हैं, तो हम उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव लाते हैं। सत्कर्मों में संलग्न होकर, जैसे कि दूसरों की मदद करना, सच्चे रिश्ते बनाना, और समाज के प्रति जिम्मेदारियाँ निभाना, हमें शांति, आत्मसम्मान और आत्म-संतोष मिलता है। साथ ही, यह हमें उज्ज्वल भविष्य और सुख-समृद्धि की ओर अग्रसर करता है। इससे समाज में भी सामूहिक शांति, सुसंचालन और आदर्श उदाहरण स्थापित होते हैं।
भगवान के अनुसार, माता-पिता का हमारे जीवन में अत्यधिक महत्व है। वे हमारे पहले गुरु होते हैं, जिनका हमारे व्यक्तित्व निर्माण में अमूल्य योगदान होता है। हमारे उनके प्रति अनेक धार्मिक कर्तव्य होते हैं। साथ ही, हमारे गुरुओं, शिक्षकों, परिवार, नौकरों, मित्रों और संन्यासियों के प्रति भी धार्मिक जिम्मेदारियाँ होती हैं। इन कर्तव्यों का पालन करने से हमारा जीवन इहलोक और परलोक, दोनों में उज्ज्वल और समृद्ध बनता है।
भगवान इनमें से कुछ व्रत-कर्तव्यों को विशेष रूप से रेखांकित करते हैं—
➤ पाँच तरह से कोई पुत्र अपने माता-पिता की सेवा करता है, [सोचते हुए] —
- “मैं पला, अब उनका भरण-पोषण करूँगा!”
- “उनके प्रति कर्तव्य पूर्ण करूँगा!”
- “कुलवंश चलाऊँगा!”
- “विरासत की देखभाल करूँगा!”
- “मरणोपरांत मृतपूर्वजों के नाम दानदक्षिणा करूँगा!”
➤ और, पाँच तरह से माता-पिता अपने संतान पर उपकार करते हैं—
- उसे पाप से रोकते हैं।
- कल्याण में समर्थन करते हैं।
- [कमाने का] हुनर सिखाते हैं।
- उपयुक्त पत्नी ढूंढ देते हैं।
- तथा समय आने पर अपनी विरासत सौंपते हैं।
➤ पाँच तरह से कोई शिष्य अपने गुरुजनों की सेवा करता है, [वह उनके सम्मानार्थ] —
- खड़ा होता है।
- प्रतीक्षा करता है।
- ध्यान रखता है।
- सेवा करता है।
- हुनर सीखकर पारंगत होता है।
➤ और, पाँच तरह से गुरुजन अपने शिष्य पर उपकार करते हैं—
- उसे भलीभांति पढ़ाते हैं, अभ्यास कराते हैं।
- समझानेवाली शिक्षाओं को समझाते हैं।
- सभी कलाओं में भलीभांति स्थापित करते हैं।
- मित्र-सहचारियों को सिफ़ारिश करते हैं।
- तथा सभी-दिशाओं में सुरक्षा प्रदान करते हैं।
➤ पाँच तरह से कोई पति अपनी पत्नी की सेवा करता है—
- उसे सम्मान देता है।
- अपमानित नहीं करता है।
- निष्ठाहीन [बेवफ़ा] नहीं होता।
- उस पर ऐश्वर्य [प्रभुत्व स्वामित्व] छोड़ता है।
- गहने-अलंकार प्रदान करता है।
➤ और पाँच तरह से पत्नी अपने पति पर उपकार करती है—
- [कर्तव्य] कार्यों को सही अंजाम देती है।
- परिजनों को साथ लेकर चलती है।
- निष्ठाहीन नहीं होती।
- भंडार सामग्री की देखभाल करती है।
- सभी कार्यों में अनालसी हो [बिना आलस किए] निपुण बनती है।
➤ पाँच तरह से कोई कुलपुत्र अपने मित्र-सहचारियों की सेवा करता है—
- दान उपहार से।
- प्रिय वचनों से।
- हितकारक देखभाल करने से।
- समान बर्ताव से।
- निष्ठा ईमानदारी [बिना छलकपट] से।
➤ और, पाँच तरह से मित्र-सहचारी कुलपुत्र पर उपकार करते हैं—
- बेपरवाह [या मदहोश] हो तो देखभाल करते हैं।
- बेपरवाह हो तो संपत्ति की देखभाल करते हैं।
- भयभीत हो तो शरण [रक्षक] बनते हैं।
- आपदा में छोड़ नहीं देते।
- संतानों पर कृपादृष्टि रखते हैं।
➤ पाँच तरह से कोई स्वामी अपने नौकरों पर उपकार करता है—
- सामर्थ्य देखकर कार्य देता है।
- भोजन एवं वेतन देता है।
- रोग में देखभाल करता है।
- ख़ास व्यंजन बांटता है।
- समय पर छुट्टी देता है।
➤ और, पाँच तरह से नौकर अपने स्वामी की सेवा करते हैं—
- पहले उठते हैं।
- पश्चात सोते हैं।
- चुराते नहीं हैं।
- भलीभांति कार्य करते हैं।
- यशकीर्ति फैलाते हैं।
➤ पाँच तरह से कोई कुलपुत्र श्रमण-ब्राह्मणों की सेवा करता है—
- उनके प्रति सद्भावपूर्ण कायाकर्म करता है।
- उनके प्रति सद्भावपूर्ण वाणीकर्म करता है।
- उनके प्रति सद्भावपूर्ण मनोकर्म करता है।
- उनके लिए घर खुला करता है।
- उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
➤ और, छह तरह से श्रमण-ब्राह्मण कुलपुत्र पर उपकार करते हैं—
- उसे पाप से रोकते हैं।
- कल्याण में समर्थन करते हैं।
- मन से कल्याणकारी उपकार करते [कृपादृष्टि रखते] हैं।
- अनसुना [धर्म] सुनाते हैं।
- सुने [धर्म] को स्पष्ट करते हैं।
- स्वर्गमार्ग दिखाते हैं।
— दीघनिकाय ३१ : सिंगालसुत्त
यहाँ ध्यान दें कि यह सूची सम्पूर्ण नहीं है — यह तो केवल एक न्यूनतम आधार है। समय, परिस्थिति और परिवेश के अनुसार इन मूल कर्तव्यों के अतिरिक्त अनेक अन्य जिम्मेदारियाँ भी उत्पन्न होती हैं। एक संवेदनशील और जागरूक व्यक्ति उन्हें सहजता से समझ लेता है और हर अवसर पर उन पर आचरण करके गहरा पुण्य अर्जित करता है।
व्रत कर्तव्यों के बारे में अधिक जानने के लिए पुण्य पुस्तक का व्रत अध्याय » पढ़ें!