एक बार श्रीलंका के एक वनवासी भंते, अपनी बांस की कुटी में ध्यान-साधना करते थे। उपासकों में उनकी बड़ी ख्याति थी। क्योंकि जब भी लोग मिलने आते, वे नज़र ही नहीं आते — न कुटी के भीतर, न बाहर, न आस-पास — जैसे वाकई निर्वाण में लीन हो गए हों।
फिर, कुछ देर बाद, जैसे आकाश से टपकते हों, कुटी के भीतर से निकलते और बाहर आकर मुस्कराते। और फिर, उपासकों की आपसी बातचीत के अंश दोहराने लगते!
लोग अवाक्! “भंते को सब सुनाई देता है! और वे कहाँ विलीन रहते हैं, यह तो कोई जान ही नहीं पाता!”
जब पूछा गया तो भंते ने रहस्यमय मुस्कान के साथ बस इतना कहा: “अरे! इतने वर्षों से अरण्य में रहने वाला क्या इतना भी न कर पाएँ?”
बस… बात जंगल में आग की तरह फैल गई—“भंते अरहंत हैं! ऋद्धिमान हैं! अंतरध्यान हो जाते हैं! शून्य में विलीन होकर वापस आते हैं!”
अब फिर वही पुराना सीन—धनी उपासक, व्यापारी, बड़े बाबू और नेता—हर कोई दान देने को उतावला। कुटी के बाहर रोज़ भिक्षा की लाइनें लगने लगीं—दाना-पानी, बर्तन, चादरें, छाते, कंबल, मच्छरदानी तक! लोग फूले न समाते—“हमें अरहंत को दान देने का सौभाग्य मिला!”
लेकिन… फिर वही चिर-परिचित विघ्नकर्ता — गांव में एक सजग और सन्देहशील व्यक्ति। श्रद्धा उसकी भी थी, लेकिन आँखे खुली रखता था। उसने ठान लिया—“देखते हैं, भंते हर बार कहाँ से प्रकट होते हैं?”
अगली बार, जब उपासक पहुँचे और भंते ‘ग़ायब’ थे, तो वह सजग उपासक भीतर जाकर बोला, “अरे! इस कुटी में तो दीमक बहुत लग गया है! पलंग पर भी दीमक लगा है! चलो सफ़ाई करते हैं!”
लोग भी जुट गए। कोई झाड़ू लगा रहा था, कोई दीमक खोज रहा था। इधर सजगजन ने कुटी के बाहर आग जलाई और बड़ा-सा बर्तन चढ़ा दिया। कुछ ही देर में पानी खौलने लगा!
थोड़ी देर में वह आया और भंते के बंबू पलंग पर खौलता हुआ पानी उड़ेलना शुरू कर दिया, “अरे! देखो कितना दीमक है! मारो इसे, और मारो!”
तभी ज़मीन के भीतर से किसी की चिल्लाहट सुनाई दी—“हाय! अरे जल गया! अरे बचाओ! अरे मैं मर गया! रुक जाओ!”
लोग हक्के-बक्के। पलंग हटाया गया… तो घास की परतों के नीचे एक गड्ढा था—और उसमें गुप्त रूप से ध्यानमग्न भंते—अब ठहाके और कराह के बीच बुरी तरह बिलबिला रहे थे।
लोगों ने उन्हें बाहर निकाला, ठंडा पानी डाला… और जमकर हँसे।
तब से उस भंते का नाम पड़ा—“गड्ढा अरहंत!”
🔔 यह कहानी पूज्य बनभंते ने सुनायी है। उनकी जीवनी पढ़ें —