नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

लता अरहंत

एक बार श्रीलंका में, एक पहाड़ी पर घने वन के बीच एक भंते निवास करते थे। जल्द ही उनकी ख्याति फैल गई—“अरण्यवासी, धुतांगधारी, तपस्वी भंते!” कहकर उपासक उन्हें बड़े आदर से अपने घर बुलाने लगे।

उनकी कुटी तक पहुँचना आसान नहीं था। रास्ता लंबा था और गहरे जंगल से होकर जाता था। जब उपासक उन्हें आमंत्रित करने आते, तो भंते मुस्करा कर कहते, “आप चलिए, मैं आता हूँ!”

और फिर वही चमत्कार—उपासक जब लंबा रास्ता तय कर नीचे पहुँचते, तो भंते वहाँ पहले से खड़े मिलते। लोग चौंक जाते, “भंते! हम तो पहले निकले थे… आप यहाँ कैसे पहुँचे?”

भंते रहस्यमय मुस्कान के साथ बस कहते, “चलो, ज़्यादा मत सोचो!”

कुछ समय में गांव भर में चर्चा होने लगी—“भंते तो ऋद्धिमानी हैं! अरहंत हैं! अरहंत हैं!” बड़े-बड़े लोग, व्यापारी, नेता, दानीजन—हर दिन उन्हें अपने घर ले जाने आते। दाना-पानी, चीवर, बर्तन, चादरें, छाते—भंते पर बरसने लगे। उपासक अपने को पुण्यशाली मानते—“हमें एक अरहंत को दान देने का सौभाग्य मिला!”

लेकिन… हर गांव में एक तर्कशील प्राणी ज़रूर होता है। यहाँ भी एक व्यक्ति को कुछ गड़बड़ लगी। श्रद्धा तो थी, लेकिन साथ में बुद्धि भी। उसने ठान लिया—“देखते हैं, भंते कैसे पहले पहुँच जाते हैं।”

अगले दिन वह एक उपासक के पीछे-पीछे गया और रास्ते में छिप गया। भंते ने हमेशा की तरह मुस्करा कर कहा, “आप चलिए, मैं आता हूँ!”

उपासक निकल गया। भंते अपनी कुटी के पीछे पहुँचे, और—वाह! एक झाड़ी में छिपाई हुई मजबूत लता निकाली और उसी के सहारे खड़ी पहाड़ी से नीचे उतरने लगे। छिपा व्यक्ति आँखें फाड़े देख रहा था। भंते ने नीचे उतरकर लता को फिर से छिपा दिया। अब तो सारा रहस्य सामने था।

अगले दिन भंते की ऋद्धि की डोरी भी टूटने वाली थी।

जैसा रोज होता था, धनी उपासक आमंत्रण के लिए आए। भंते मुसकाते हुए बोले, “आप चलिए, मैं आता हूँ!”

उपासक लंबे रास्ते से नीचे पहुँचे—लेकिन… भंते वहाँ नहीं थे।

कुछ देर में वही सजग व्यक्ति कुछ ग्रामीणों को साथ लेकर आया और बोला, “अरे, आज हमारे ऋद्धिमानी भंते नहीं आए? चलिए देखते हैं क्या हो गया हमारे अरहंत भंते को! इस बार पुराने रास्ते से नहीं, एक नए रास्ते से चलिए!”

वह जत्थे को खड़ी पहाड़ी के नीचे ले गया। और वहाँ… भंते ज़मीन पर पड़े थे, अपने पिछवाड़े से काँटे निकालते हुए कराह रहे थे। ऊपर झूलती थी टूटी हुई लता—और नीचे लुढ़के हुए थे लता-योगी।

सन्नाटा… फिर ठहाके!

उस दिन से भंते का नाम पड़ गया: “लता अरहंत!”


🔔 यह कहानी पूज्य बनभंते ने सुनायी है। उनकी जीवनी पढ़ें —