शोक वह है जो हम क्षति पर जोड़ते हैं। यह एक सीखी हुई प्रतिक्रिया है, जो केवल कुछ खास संस्कृतियों में पाई जाती है। यह न तो सार्वभौमिक है और न ही अनिवार्य।
मुझे यह बात अपने अनुभव से तब समझ में आई जब मैंने आठ वर्षों से अधिक समय तक एक शुद्ध, एशियाई-बौद्ध संस्कृति में जीवन बिताया। थाईलैंड के एक दूरदराज़ जंगल-आश्रम में अपने प्रारंभिक वर्षों में, मैंने एक ऐसी दुनिया में समय बिताया जहाँ पश्चिमी संस्कृति और विचारों का कोई प्रभाव नहीं था। मेरा आश्रम वहाँ के कई आस-पास के गाँवों का अंतिम संस्कार स्थल था। लगभग हर सप्ताह कोई न कोई शव-संस्कार होता ही था।
1970 के दशक के उत्तरार्ध में मैंने वहाँ सैकड़ों अंतिम संस्कार देखे, लेकिन एक बार भी किसी को रोते नहीं देखा। मैंने बाद में शोक संतप्त परिवारों से बातचीत भी की—फिर भी किसी प्रकार के दुख या शोक के लक्षण नहीं दिखाई दिए। अंततः मुझे यही निष्कर्ष निकालना पड़ा कि वहाँ शोक होता ही नहीं। मुझे समझ आया कि उत्तर-पूर्वी थाईलैंड में, जहाँ सदियों से बौद्ध शिक्षा गहराई से जड़ें जमा चुकी थी, मृत्यु को इस प्रकार स्वीकारा जाता था कि उसने पाश्चात्य ‘शोक’ और ‘क्षति’ के सिद्धांतों को ही चुनौती दे दी।
उन वर्षों ने मुझे सिखाया कि शोक के अतिरिक्त भी एक और मार्ग है। यह नहीं कि शोक गलत है, बल्कि यह कि एक और संभावना भी है। किसी प्रियजन की मृत्यु को हम एक वैकल्पिक दृष्टिकोण से भी देख सकते हैं—एक ऐसा दृष्टिकोण जो लंबे समय तक चलने वाले दर्दनाक शोक से बचा सकता है।
मेरे अपने पिता की मृत्यु तब हुई जब मैं केवल सोलह वर्ष का था। मेरे लिए वे एक महान पुरुष थे। उन्होंने ही मुझे प्रेम का अर्थ समझाया था, जब उन्होंने कहा था, “बेटा, जीवन में चाहे जो भी करो, मेरे हृदय का द्वार सदा तुम्हारे लिए खुला रहेगा।”
उनके प्रति मेरा प्रेम अत्यंत गहरा था, फिर भी मैंने उनके अंतिम संस्कार में एक आँसू नहीं बहाया। न ही कभी बाद में उनके लिए रोया। मुझे कभी रोने की आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई।
लेकिन यह समझने में मुझे कई वर्षों लगे कि मेरे उन भावों का वास्तव में अर्थ क्या था।
यह समझ मुझे एक कहानी के माध्यम से मिली, जो अब मैं आपसे साझा करता हूँ।
जब मैं युवा था, मुझे संगीत बहुत प्रिय था—रॉक से लेकर शास्त्रीय, जैज़ से लेकर लोक संगीत तक सब कुछ। 1960 और 70 के दशक की शुरुआत का लंदन संगीत प्रेमियों के लिए एक स्वर्ग था। मुझे याद है कि मैंने लेड ज़ेपलिन के पहले घबराए हुए प्रदर्शन को सोहो के एक छोटे से क्लब में देखा था। एक और अवसर पर, हम कुछ ही लोग थे जिन्होंने उस समय के अनजान रॉड स्टुअर्ट को एक छोटे से पब के ऊपर वाले कमरे में गाते देखा था।
ऐसे असंख्य मधुर संगीत-स्मृतियाँ हैं मेरे पास।
हर कॉन्सर्ट के अंत में हम सब मिलकर चिल्लाते थे—“और बजाओ! और बजाओ!” और अक्सर कलाकार कुछ देर और बजाते थे। लेकिन आखिरकार उन्हें अपना सामान समेट कर घर जाना ही पड़ता था—और मुझे भी।
मेरी स्मृति में ये शामें हमेशा एक सी हैं—जब मैं उस क्लब या हॉल से बाहर निकलता, तो बाहर हमेशा हल्की बारिश होती थी। लंदन में उस मुरझाई, हल्की, निरंतर बारिश को कहते हैं “ड्रिज़ल”। वो ठंडी, उदास, धीमी फुहारें मेरे साथ थीं—लेकिन फिर भी, भले ही मुझे पता हो कि उस बैंड को फिर कभी नहीं सुन पाऊँगा, कि वह मेरी ज़िंदगी से हमेशा के लिए चला गया है, फिर भी मुझे कभी दुख नहीं हुआ, न ही मैं रोया।
बल्कि मेरे दिल में यही गूंजता रहता: “क्या शानदार संगीत था! क्या अद्भुत प्रदर्शन! कितना भाग्यशाली था मैं कि उस समय वहाँ उपस्थित था!”
मुझे शोक कभी महसूस नहीं हुआ, क्योंकि वह एक महान संगीत समारोह का अंत था। और यही भावना थी मेरे अपने पिता के निधन के समय। ऐसा लगा जैसे एक अद्भुत संगीत कार्यक्रम का समापन हुआ हो। एक ऐसा प्रदर्शन जो पूरे हृदय को भर दे।
अंतिम क्षणों में मैं भी जैसे “और… और!” पुकार रहा था। मेरे प्यारे पिता ने थोड़ी और देर जीवित रहने के लिए जी-जान से प्रयास किया। लेकिन अंततः वह क्षण आ ही गया, जब उन्हें भी अपना “सामान समेट कर घर लौटना” पड़ा।
जब मर्तलेइक के शवदाहगृह से मैं बाहर निकला, वही पुराना लंदन का ड्रिज़ल था। वही ठंड, वही नमी। और मुझे यह मालूम था कि शायद अब मैं कभी उन्हें नहीं देख पाऊँगा।
लेकिन मेरे भीतर न तो शोक था, न ही आँसू। बल्कि मेरे मन में था: “क्या ही अद्भुत पिता थे! उनके जीवन से क्या जबरदस्त प्रेरणा मिली। कितना सौभाग्यशाली था मैं कि उनका बेटा बन सका।”
जब मैंने अपनी माँ का हाथ थामा और हम भविष्य की ओर बढ़े, तो मेरे भीतर वही भाव था जो किसी महान संगीत प्रस्तुति के अंत के बाद होता है — “मैं इस अनुभव को किसी भी चीज़ के लिए नहीं छोड़ता।”
शोक तब होता है जब आप केवल यह देखते हैं कि आपसे क्या छिन गया। जीवन का उत्सव तब होता है जब आप यह पहचानते हैं कि आपको कितना कुछ मिला था, और उस हेतु गहरा कृतज्ञ अनुभव करते हैं।
धन्यवाद, पिताजी।