नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

क्रोध

क्रोध कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। बुद्धिमान लोग सुखी होते हैं, और सुखी लोग क्रोधित नहीं होते। सबसे पहले तो, क्रोध तर्कहीन होता है।

एक दिन जब हमारा विहार वाहन एक लाल बत्ती पर रुका, तो पास की गाड़ी में बैठा चालक ट्रैफिक लाइट्स पर चिल्ला रहा था –

“तू तो जानता था कि मेरी एक महत्वपूर्ण मुलाक़ात है। तू जानता था कि मैं देर से चल रहा हूँ। फिर भी तूने उस दूसरी गाड़ी को पहले जाने दिया, सूअर कहीं का! और ये पहली बार नहीं है…”

वो उस ट्रैफिक लाइट को दोष दे रहा था, मानो लाइट को कोई विकल्प मिला हो। उसे लगा जैसे ट्रैफिक लाइट ने जान-बूझकर उसे रोका:

“आहा! वो आ गया। मुझे पता है कि इसे देर हो रही है। चलो पहले इस दूसरी गाड़ी को निकालते हैं…अब लाल! रोक दिया! पकड़ लिया!”

पर ट्रैफिक लाइट्स तो बस लाइट्स ही हैं। उनसे और क्या उम्मीद कर सकते हैं?

मैंने कल्पना की कि जब वो आदमी घर पहुंचा, और उसकी पत्नी उस पर चिल्ला रही है:

“हे मूर्ख पति! तू जानता था कि हमें समय पर पहुँचना था। तू जानता था कि देर नहीं करनी चाहिए थी। फिर भी तू किसी और काम में लग गया, तू भी सूअर है! और ये पहली बार नहीं है…”

अब पत्नी अपने पति को दोष दे रही थी, मानो उसने जान-बूझकर देर की हो:

“आहा! पत्नी से मिलना है…चलो पहले किसी और को निपटाते हैं। अब देर! पकड़ लिया!”

पति भी पति ही होते हैं। उनसे क्या अपेक्षा?

इस कहानी के पात्रों को आप किसी भी क्रोध की स्थिति में बदल सकते हैं। बात वही रहेगी – क्रोध का कोई औचित्य नहीं होता। भिक्षु जीवन में हम यही सीखते हैं – क्रोध नहीं, करुणा ही रास्ता है।


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