हमारे क्रोध का एक बड़ा कारण है — अपेक्षा का टूटना। जब हम किसी कार्य या योजना में स्वयं को पूरी तरह झोंक देते हैं, और परिणाम हमारी सोच के अनुसार नहीं निकलता, तो भीतर से खीज फूटती है। हर “ऐसा होना चाहिए था” दरअसल भविष्य की एक कल्पना है। लेकिन यदि ध्यान से देखें, तो स्पष्ट हो जाएगा कि भविष्य अनिश्चित है, वह किसी के वश में नहीं। जब हम किसी “होना चाहिए” के सहारे भविष्य को पकड़ने की कोशिश करते हैं, तब हम स्वयं को दुःख और क्रोध के लिए आमंत्रित करते हैं।
एक पश्चिमी भिक्षु, जिनसे मैं वर्षों पहले मिला था, सुदूर पूर्व के एक कठोर ध्यान विहार में प्रव्रजित हुए। वह विहार पर्वतीय क्षेत्र में था और वहाँ हर वर्ष साठ दिनों का गहन ध्यान-शिबीर आयोजित होता था। यह साधना उन लोगों के लिए नहीं थी जो सुविधा चाहते हों या जिनका चित्त दुर्बल हो। प्रतिदिन प्रातः 3 बजे उठना होता था, और 3:10 तक सभी भिक्षु ध्यान में स्थिर हो जाते थे। दिनभर पचास मिनट बैठा ध्यान और दस मिनट चलता ध्यान चलता रहता था — निरंतर। भोजन भी ध्यान कक्ष में मौन में लिया जाता था। रात 10 बजे लेटने की अनुमति थी, लेकिन वही ध्यान स्थान पर, जहाँ दिनभर साधना की थी। सुबह उठना विकल्प था — लेकिन देर से नहीं, सिर्फ पहले उठने की छूट थी। एकमात्र विश्राम था दिन में एक बार गुरु से भेंट, और स्वाभाविक शौचकाल।
तीन दिन बाद उस भिक्षु की पीठ और पाँवों में असह्य वेदना होने लगी। पश्चिमी शरीर इस मुद्रा का अभ्यस्त न था। और अभी पूरे आठ सप्ताह शेष थे। एक सप्ताह बीता, किंतु कष्ट कम नहीं हुआ — उल्टे बैठना एक यातना बन गया। जो भी दस दिवसीय ध्यान शिविरों से गुज़रे हैं, वे जानते हैं कि शरीर और चित्त पर क्या गुजरती है। लेकिन वह भिक्षु भीतर से दृढ़ था। उसने निश्चय किया कि वह क्षण-क्षण सहते हुए आगे बढ़ेगा।
दूसरे पखवाड़े तक आते-आते उसका धैर्य टूटने लगा। शरीर में तीव्र ताप जैसी पीड़ा होती थी। उसे लगने लगा — “यह तो मध्य-मार्ग नहीं है, यह तो शरीर को तोड़ने जैसा है।” तभी उसकी दृष्टि अन्य एशियाई भिक्षुओं पर पड़ी — वे भी पीड़ा में थे, लेकिन टिके हुए थे। उनके मौन संघर्ष ने उसमें स्वाभिमान जगा दिया। उसने कहा, “अगर ये टिक सकते हैं, तो मैं भी।” और इस स्वाभिमान ने उसे आगे खींचा।
अब वह हर रात 10 बजे की घंटी की प्रतीक्षा करता था, जब वह अपने जर्जर शरीर को सीधा कर सकता था। पर जैसे ही वह निद्रा में डूबता, प्रातः की घंटी फिर उसे जगा देती — जैसे पीड़ा को कोई विराम ही न था। तीसरे सप्ताह के अंत में उसे थोड़ी राहत मिली — अब वह आधे रास्ते पार कर चुका था। “अब तो बस घर पहुँचने जैसा है,” उसने सोचा। परंतु दिन और कठिन होते गए, पीड़ा और भी गहरी हो गई। वह कई बार रोने जैसा अनुभव करता, लेकिन फिर भी चलता रहा — एक सप्ताह और, फिर कुछ दिन और।
अंतिम सप्ताह में समय जैसे थम गया था। हर घंटा जैसे एक युग बन गया हो। अब उसे क्रोध आने लगा था — शरीर को नहीं, बल्कि परिस्थिति को लेकर। लेकिन उसने कहा, “अब यदि छोड़ दूँ, तो अब तक की सारी तपस्या व्यर्थ हो जाएगी।” और वह आगे बढ़ता रहा।
साठवें दिन प्रातः 3 बजे जब घंटी बजी, तो उसके भीतर हल्की राहत की भावना थी — “अब बस कुछ घंटे बचे हैं।” पर उस अंतिम दिन की पीड़ा सबसे तीव्र थी। जैसे अब तक जो पीड़ा थी वह केवल झाँकी थी, और असली अग्निपरीक्षा अभी बाकी थी। अंतिम पचास मिनट की ध्यानावधि में, उसका चित्त बार-बार कल्पना करता रहा — “अब ध्यान खत्म होगा, मैं एक गर्म स्नान लूँगा, आराम से भोजन करूँगा, बात करूँगा, लेटूँगा…” पर हर बार पीड़ा उसकी कल्पना को तोड़ देती। उसने कई बार आँखें खोलकर घड़ी देखी — उसे लगता था कि घड़ी रुकी हुई है, समय जैसे खिसक ही नहीं रहा। वह सोचता, शायद बैटरियाँ ख़त्म हो गई हैं, शायद ये पचास मिनट कभी खत्म ही न हों।
लेकिन हर युग का अंत होता है — और वह भी हुआ। घंटी बजी। उसकी देह में एक आनंद की तरंग दौड़ गई। पीड़ा जैसे पृष्ठभूमि में चली गई। वह सोचने लगा — “अब मैं स्वयं को आराम दूँगा। चलो, स्नान का समय आया।”
तभी गुरु ने फिर घंटी बजाई — एक घोषणा के लिए। उन्होंने कहा, “यह ध्यान-शिबीर अत्यंत सफल रहा है। कई भिक्षुओं ने निजी भेंट में सुझाव दिया है कि इस साधना को दो सप्ताह और बढ़ा दिया जाए। यह एक उत्तम विचार है। ध्यान-शिबीर दो सप्ताह और चलेगा। साधना जारी रखें।”
सभी भिक्षुओं ने चुपचाप पुनः ध्यान मुद्रा ली। और वह पश्चिमी भिक्षु… उसे अब कोई पीड़ा नहीं हो रही थी। उसके मन में केवल यही चल रहा था — “कौन हैं वे मूर्ख भिक्षु जिन्होंने यह प्रस्ताव रखा? मैं उन्हें ढूँढूँगा… और फिर…” उसके भीतर पहली बार इतना तीव्र क्रोध आया। उसने योजना बनायी, जो बिलकुल ‘भिक्षु’ जैसे नहीं थी, जिसमें कोई दया-करुणा नहीं थी। उसके गुस्से में पीड़ा कहीं पीछे छूट गई थी — अब तो बस क्रोध की ज्वाला धधक रही थी। वह तरह-तरह से हत्या की योजनाएँ बना रहा था। इतना क्रोध उसे पहले कभी नहीं आया था।
और तभी फिर से घंटी बजी। केवल पंद्रह मिनट बीते थे।
गुरु मुस्कराए और बोले, “ध्यान-शिबीर समाप्त हुआ। भोजनालय में जलपान उपलब्ध है। अब आप बात भी कर सकते हैं, विश्राम भी कर सकते हैं।”
वह भिक्षु स्तब्ध था। “क्या? हमें तो कहा गया था कि दो सप्ताह और ध्यान करना है!” तभी एक वरिष्ठ भिक्षु, जो अंग्रेज़ी जानते थे, पास आए और मुस्कराकर बोले — “चिंता मत करो। आचार्य हर साल ऐसा ही करते हैं।”