क्रोध के परिणामों में से एक ये भी है — यह हमारे रिश्तों को तोड़ देता है, और हमें अपने प्रियजनों से अलग कर देता है। सोचिए, किसी के साथ हमने कई वर्षों तक सुखद जीवन बिताया हो — हँसी, खुशी, साथ, समझदारी — और फिर एक दिन वो कुछ ऐसा कह दें जो हमें बहुत चुभ जाए… और बस! हम इतने ग़ुस्से में आ जाते हैं कि रिश्ता ही तोड़ देते हैं। इतने सालों के 998 सुंदर ईंटें जैसे मिट्टी हो जाती हैं, बस उन दो टेढ़ी ईंटों के कारण। सब मिट्टी में मिलाने का मन हो जाता है। यह कहाँ का न्याय है? अगर अकेले रहना चाहते हो, तो क्रोध को गले लगाओ।
एक युवा कनाडाई जोड़ा, जिनसे मैं पर्थ में मिला था, वहाँ अपना वर्क-कॉन्ट्रैक्ट पूरा कर रहा था। जब वे कनाडा लौटने की योजना बना रहे थे, तो उन्हें एक ‘शानदार’ आइडिया आया — क्यों न सेलिंग बोट से घर लौटा जाए? प्लान था: एक छोटी यॉट खरीदो, एक और युवा जोड़े को साथ लो, और चारों मिलकर पेसिफ़िक महासागर पार करते हुए वैंकूवर पहुँचा जाए। फिर वहाँ यॉट बेच दी जाएगी, निवेश भी वापस मिल जाएगा, और साथ में उनके अगली घर के डाउन पेमेंट के लिए रकम भी। एकदम बुद्धिमत्ता से भरा, और ज़िंदगीभर का रोमांच।
कनाडा पहुँचने के बाद उन्होंने हमारे विहार को एक पत्र लिखा, जिसमें उस अद्भुत यात्रा का विवरण था। खास तौर से एक घटना — जो इस बात का प्रमाण थी कि क्रोध आने पर हम कितनी बेवकूफ़ी कर सकते हैं… और क्यों उसे जल्दी सुलझाना ज़रूरी है।
यात्रा के बीचोंबीच, कहीं पेसिफ़िक के नीले विस्तार में, जब चारों तरफ़ सिर्फ़ पानी ही पानी था, यॉट का इंजन जवाब दे गया। दोनों पुरुष काम वाले कपड़े पहनकर छोटे से इंजन-कक्ष में घुस गए, और उसे ठीक करने लगे। औरतें ऊपर डेक पर बैठी थीं, सूरज की गर्मी का मज़ा ले रही थीं, और मैगज़ीन पढ़ रही थीं।
इंजन-कक्ष छोटा, गर्म और बेहद असुविधाजनक था। वहाँ इंजन ऐसे बर्ताव कर रहा था जैसे ज़िद में हो — जैसे कह रहा हो, “तुमसे नहीं होगा!” बड़े-बड़े स्टील के नट घूम ही नहीं रहे थे, छोटे-छोटे स्क्रू ऐसे गिर रहे थे जैसे किसी साजिश के तहत इंजन की अंधी, चिकनी, चिपचिपी कोनों में खुद को छिपा रहे हों। और जो चीज़ें टपक रही थीं, उन्हें कोई परवाह नहीं थी कि तुम कितने कपड़े भिगो चुके हो।
पहले इंजन से चिढ़ हुई। फिर एक-दूसरे से। फिर चिढ़ बढ़ते-बढ़ते बन गई क्रोध… और फिर उस क्रोध का विस्फोट हुआ।
एक आदमी की हिम्मत टूट गई। उसने चिल्लाकर कहा, “बस बहुत हुआ! अब मैं जा रहा हूँ!” — और सच में! उसने रिंच फेंका, उठकर अपने केबिन में गया, मुंह धोया, अच्छे कपड़े पहने, बैग में सामान भरा और बड़े स्टाइल में डेक पर आया।
दोनों हाथों में बैग, बदन पर सबसे शानदार जैकेट… चेहरा अब भी ग़ुस्से में लाल!
डेक पर बैठी दोनों महिलाएँ तो हँसी के मारे गिरते-गिरते बचीं। और वो बेचारा क्या देखता है? चारों ओर बस… महासागर। दूर-दूर तक कोई ज़मीन नहीं। कोई बस-स्टॉप नहीं, कोई स्टेशन नहीं, कोई “Uber” भी नहीं!
उसने चारों तरफ़ देखा, और फिर… अपने भीतर भी देखा। चेहरा शर्म से लाल हो गया। फिर बिना कुछ बोले वापस केबिन में गया, कपड़े बदले, बैग वापस रखे, और इंजन-कक्ष में लौट आया। फिर से काम में जुट गया।
उसे करना ही था। जाना कहाँ था?