नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

माफ़ करके ठंडक पाना

जब कोई हमें चोट पहुँचाता है, तो क्या हमें ही उसे सज़ा देनी ज़रूरी है?

अगर आप ईसाई, मुस्लिम या यहूदी हैं, तो शायद आप मानते हैं कि ऊपर वाला हिसाब बराबर कर ही देगा। अगर आप बौद्ध, हिन्दू या सिख हैं, तो आप जानते हैं — कर्मा नाम की कोई चीज़ है, जो कोई भी ग़लती छोड़े बिना वापस लौटाती है। और अगर आप आधुनिक “साइकोथेरेपी धर्म” के अनुयायी हैं — तो आपको यकीन होगा कि जिसने आपको चोट दी है, उसे सालों की महँगी थेरेपी से गुज़रना पड़ेगा, बस अपने अपराध-बोध की वजह से!

तो फिर… हमें ही क्यों बनना है न्यायाधीश, जूरी और जल्लाद — सबकुछ एक साथ?

थोड़ा बुद्धिमानी से सोचें — तो दिखता है कि हमें ऐसा कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। हम तब भी अपना कर्तव्य निभा रहे होते हैं, जब हम अपना ग़ुस्सा छोड़ देते हैं… और क्षमा से ठंडक पाते हैं।

अब सुनिए एक सच्ची बात।

हमारे दो पाश्चात्य भिक्षु आपस में भिड़ गए। एक थे — पूर्व अमेरिकी मरीन, जिन्होंने वियतनाम युद्ध में सामने की लड़ाई लड़ी थी और बुरी तरह घायल हुए थे। दूसरे — एक युवा बिज़नेसमैन, जिन्होंने इतनी कम उम्र में इतनी दौलत बना ली कि पच्चीस की उम्र में “रिटायर” हो गए थे। दोनों बेहद तेज़, मज़बूत, और अंदर से बहुत ही सख़्त लोग।

भिक्षुओं को तो बहस नहीं करनी चाहिए, लेकिन ये कर रहे थे। भिक्षुओं को तो मुक्का नहीं मारना चाहिए, लेकिन ये बस अभी पहुँच ही रहे थे। आँख से आँख, नाक से नाक, और हर सांस में ग़ुस्सा। और फिर…

…वो हुआ, जिसकी कोई उम्मीद नहीं कर सकता था।

वह मरीन — जो गोली खा चुका था, जिसने खून और युद्ध देखा था — अचानक घुटनों के बल बैठ गया। उसने हाथ जोड़कर नर्मी से झुककर प्रणाम किया। फिर ऊपर देखा, और कहा — “माफ़ कर दो। मुझे खेद है।”

कोई ड्रामा नहीं, कोई स्क्रिप्ट नहीं। सीधा दिल से निकली बात थी — वही जो चुपचाप आकर सबको हिला देती है।

दूसरे भिक्षु की आँखों से आँसू बह निकले।

कुछ ही देर बाद दोनों एक साथ टहलते दिखे — जैसे मित्र हों। और हाँ, भिक्षुओं को वही करना चाहिए।


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