अक्सर जब मन उदास होता है, तो एक ख्याल आता है – “ये तो ठीक नहीं है! मेरे साथ ही क्यों?” अगर जीवन थोड़ा और न्यायपूर्ण होता, तो शायद सहना आसान होता।
जेल में मेरी ध्यान कक्षा चल रही थी। एक मध्यवय कैदी कई महीनों से आ रहा था। धीरे-धीरे उसकी मुझसे अच्छी जान-पहचान हो गई थी। एक दिन कक्षा के बाद उसने मुझसे अकेले में बात करने को कहा।
उसने कहा, “भंते, मैं आपको बताना चाहता हूँ कि जिस जुर्म के लिए मुझे इस जेल में डाला गया है, वो मैंने किया ही नहीं। मैं निर्दोष हूँ। पता है, बहुत से कैदी ये कहते हैं और झूठ बोलते हैं, पर मैं आपसे सच कह रहा हूँ। मैं आपसे झूठ नहीं बोल सकता, भंते, आपसे तो बिलकुल नहीं।”
उसकी बातों और उसके चेहरे के भावों ने मुझे यक़ीन दिलाया कि वह सच कह रहा है। मैं मन ही मन सोचने लगा – कितना अन्याय है ये, कैसे इस बेगुनाह को न्याय दिलाऊँ।
लेकिन तभी उसने मेरी सोच को बीच में ही काट दिया। थोड़ी शरारती मुस्कान के साथ बोला – “पर भंते, इतने सारे दूसरे जुर्म थे जो मैंने किए और जिनमें मैं पकड़ा नहीं गया… तो देखा जाए तो ठीक ही हुआ न!”
मैं तो हँसी के मारे दोहरा हो गया। ये पुराना उस्ताद तो कर्म के नियम को कुछ भिक्षुओं से भी बेहतर समझ गया था!
कितनी बार ऐसा होता है कि हम कोई ‘जुर्म’ कर बैठते हैं – किसी को चोट पहुँचा देते हैं, कटु बोल बोल देते हैं, कुछ छल कर जाते हैं – और फिर भी कोई सज़ा नहीं मिलती। क्या तब हम कहते हैं – “ये तो ठीक नहीं है! मुझे क्यों नहीं पकड़ा गया?”
लेकिन जैसे ही जीवन हमें बिना किसी साफ वजह के दुख देता है, हम फौरन कह उठते हैं – “ये तो ठीक नहीं है! मेरे साथ ही क्यों?”
शायद… ठीक ही है। शायद हम सब के जीवन में ऐसे बहुत से ‘जुर्म’ हो चुके हैं जिनमें हम कभी नहीं पकड़े गए। तो जो भी मिल रहा है, वो उसी पुराने हिसाब-किताब का नतीजा है। आखिरकार, जीवन न्यायपूर्ण ही तो है – अपने ही ढंग से!