पश्चिमी लोग अकसर कर्म के नियम को गलत समझते हैं। उन्हें लगता है कि यह कोई भाग्यवाद है – जैसे कोई पुरानी, भूली हुई पिछले जन्म की गलती की सज़ा अब भुगतनी पड़ रही हो। पर असल में ऐसा नहीं है। यह बात एक छोटी सी कहानी से साफ हो जाएगी।
दो महिलाएँ थीं, दोनों केक बना रही थीं।
पहली महिला के पास बहुत ही खराब सामग्री थी। पुराना मैदा था, जिसमें से पहले उसे हरे-हरे फफूंदी लगे टुकड़े निकालने पड़े। मक्खन इतना कोलेस्ट्रॉल-भरा था कि सड़ने की कगार पर था। चीनी में भूरे-भूरे डल्ले थे, शायद किसी ने गीला चम्मच डुबा दिया था। और फल? बस कुछ पुराने किशमिश, जो इतने सख्त थे कि पत्थर से टक्कर ले सकते थे। और रसोई? ऐसी कि देखकर लगे कि किसी विश्व युद्ध से पहले की चीज़ है – कौन सा युद्ध, ये बहस का विषय है।
दूसरी महिला के पास तो सब कुछ शानदार था। जैविक आटे से लेकर बिना ट्रांस-फैट वाले तेल तक, अपने बाग के ताजे रसीले फल, और एकदम चमचमाती आधुनिक रसोई जिसमें हर नया उपकरण मौजूद था।
तो अब बताइए, किसका केक ज़्यादा स्वादिष्ट बना?
अक्सर ऐसा होता है कि जिसके पास सबसे बेहतरीन सामग्री होती है, वही सबसे अच्छा केक नहीं बनाता। केक बनाने के लिए केवल सामग्री ही नहीं, और भी बहुत कुछ चाहिए। कभी-कभी जिस महिला के पास बेकार सामग्री होती है, वो इतनी मेहनत, स्नेह और लगन से केक बनाती है कि उसका केक सबसे स्वादिष्ट निकलता है।
असल बात यह है कि हमारे पास जो सामग्री है, उसमें हम क्या करते हैं – यही सबसे मायने रखता है।
मेरे कुछ मित्र ऐसे हैं जिनके पास इस जीवन में बहुत ही सीमित साधन थे – बचपन में गरीबी, शायद शोषण, पढ़ाई में कमजोर, शरीर से अक्षम – लेकिन फिर भी जो थोड़ा बहुत था, उसे इतने प्रेम और समझदारी से सँवारा कि जीवन का ऐसा अद्भुत केक तैयार किया, कि मैं उनके आगे नतमस्तक हो जाता हूँ। आप भी ऐसे किसी को जानते होंगे।
दूसरी ओर, कुछ मित्र ऐसे भी हैं जिन्हें जीवन ने सब कुछ दिया – अच्छा घर, प्यार करने वाले माता-पिता, पढ़ाई में तेज, खेल में माहिर, सुंदरता और लोकप्रियता – पर इन सबके बावजूद उन्होंने सब कुछ नशे और आलस्य में गँवा दिया। क्या ऐसे किसी को भी आप पहचानते हैं?
कर्म का एक हिस्सा है – हमारे पास कौन-सी सामग्री है। लेकिन उससे भी ज़्यादा ज़रूरी हिस्सा यह है – हम उस सामग्री से बनाते क्या हैं।