नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

रोने वाली गाय

मैं एक बार ध्यान सत्र लेने के लिए एक कम सुरक्षा वाली जेल पहुँचा। थोड़ा जल्दी पहुँच गया था, तो देखा एक नया बंदी मेरा इंतज़ार कर रहा था। वह एक विशालकाय व्यक्ति था—झबरीली दाढ़ी, बाल और गहरे टैटू से भरे हुए बाज़ू, चेहरे पर कई पुराने घावों के निशान। वह देखने में इतना भयानक लग रहा था कि मैं सोचने लगा—ध्यान सीखने आया है? इसका तो स्वभाव ही कुछ और लगता है। पर मैं गलत था।

उसने कहा कि कुछ दिन पहले एक घटना घटी थी, जिसने उसे भीतर तक झकझोर दिया। बातचीत में उसकी मोटी अल्स्टर (उत्तरी आयरलैंड की) लहजे की अंग्रेज़ी समझ आई। उसने बताया कि वो बेलफास्ट की हिंसक गलियों में पला-बढ़ा। सात साल की उम्र में ही पहली बार उसे चाकू मारा गया। स्कूल का एक गुंडा उसकी लंच की पैसे छीनना चाहता था। उसने मना किया। गुंडे ने लंबा चाकू दिखाया, पर फिर भी उसने इंकार किया। फिर गुंडे ने बिना कुछ कहे चाकू उसकी बाँह में घुसा दिया और चलता बना।

वह भागता हुआ खून बहाते हुए अपने घर पहुँचा। उसके पिता, जो बेरोज़गार थे, बिना ज़ख्म की देखभाल किए, रसोई से एक बड़ा चाकू निकाल लाए, बेटे को थमाया और कहा: “जाओ, उसे भी चाकू मारो।”

उसी माहौल में वह बड़ा हुआ। अगर वह इतना ताकतवर नहीं होता, तो अब तक मारा गया होता।

यह जेल एक “प्रिजन फ़ार्म” था, जहाँ कैदियों को खेती और पशुपालन सिखाया जाता था, ताकि वे रिहाई के बाद काम सीख सकें। यहाँ गायें, सूअर, भेड़ें पालकर पास के सभी जेलों को सस्ता खाना दिया जाता था। और इस फ़ार्म में एक स्लॉटरहाउस—वधशाला—भी था।

हर बंदी को काम करना होता था। और इस वधशाला की नौकरी, खासकर मुख्य वधिक (slaughterer) की, सबसे प्रतिष्ठित मानी जाती थी। वही विशालकाय आयरिश बंदी वहाँ का वधिक था।

उसने मुझे विस्तार से बताया: स्टील की रेलिंग से बना रास्ता, जिसमें जानवरों को जबरदस्ती ले जाया जाता, चिल्लाते, डरते, काँपते हुए। उनके पास मौत की गंध होती, आवाज़ होती, अहसास होता। फिर भी वो एक-एक कर उस पथरीले रास्ते में फँसाए जाते। वह ऊँचाई पर खड़ा अपनी बिजली वाली बंदूक लिए उनका इंतज़ार करता। एक झटका—बेहोश। दूसरा झटका—मौत। दिन भर यही होता। बार-बार।

अब वह उस घटना की बात पर आया, जिसने उसे हिला दिया था। बार-बार गाली देकर कहता, “ये भगवान की सच्ची बात है।” उसे डर था कि मैं उस पर यकीन न करूँ।

उस दिन बीफ़ की ज़रूरत थी, तो गायें मारी जा रही थीं। एक-एक कर वही प्रक्रिया चल रही थी। फिर एक गाय आई, जो कुछ अलग थी।

वो गाय पूरी तरह शांत थी। उसने कोई आवाज़ नहीं की। ना चिल्लाई, ना काँपी। धीरे-धीरे, खुद चलकर, बिना किसी विरोध के उस जगह पर आकर खड़ी हो गई जहाँ उसे मारा जाना था।

वो गाय उसकी आँखों में आँखें डालकर देखती रही।

आयरिश बंदी का हाथ बंदूक उठाने को तैयार नहीं हुआ। वह हिल भी नहीं पाया। गाय की नज़रों में जैसे कुछ और ही था—कुछ ऐसा जो भीतर तक देख रहा था। वह समय और सोच से बाहर चला गया। वह नहीं जानता कितनी देर बीत गई।

और फिर उसने देखा—गाय की बाईं आँख के निचले कोने में पानी इकट्ठा हो रहा था। धीरे-धीरे वह बहने लगा, और उसके गाल पर आँसू की एक लकीर बन गई। फिर दाईं आँख से भी वैसा ही हुआ। एक और लकीर।

गाय रो रही थी।

उसका दिल पिघल गया।

उसने बंदूक फेंक दी। गालियाँ देते हुए जेल अधिकारियों से कह दिया, “जो करना है करो, पर ये गाय नहीं मरेगी!”

अब वह शाकाहारी है।

यह कहानी सच है। जेल के और कैदियों ने भी इसकी पुष्टि की थी। उस रोती हुई गाय ने सबसे हिंसक व्यक्ति को भी दया और करुणा का अर्थ समझा दिया।


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