नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

छोटी बच्ची और उसका दोस्त

मैंने जब “रोने वाली गाय” की कहानी पश्चिम ऑस्ट्रेलिया के एक छोटे से कस्बे में बुज़ुर्गों के एक समूह को सुनाई, तो उनमें से एक वृद्ध सज्जन ने अपनी जवानी की एक कहानी साझा की। ये बात पिछले सदी की शुरुआत की थी।

उसके एक दोस्त की बेटी थी, चार या पाँच साल की। एक सुबह उसने अपनी माँ से दूध की एक प्याली मांगी। माँ उस समय व्यस्त थी, लेकिन यह देखकर खुश हुई कि बच्ची दूध पीना चाहती है—वह भी ग्लास नहीं, प्याली में! उसने ज्यादा सोचा नहीं और दे दिया।

अगले दिन भी, वही समय, वही प्याली माँगी गई। माँ ने फिर खुशी-खुशी दे दी। बच्चों को खाने-पीने के साथ खेलना अच्छा लगता है—माँ ने सोचा, “कम से कम कुछ तो पी रही है।”

यह कई दिनों तक चला।

पर माँ ने कभी बच्ची को दूध पीते नहीं देखा। उसे शक हुआ। एक दिन उसने छिपकर अपनी बेटी का पीछा किया।

उन दिनों वहाँ ज़्यादातर घर ज़मीन से थोड़े ऊँचे बनाए जाते थे, लकड़ी के खंभों पर टिके हुए। बच्ची दूध की प्याली लेकर घर के किनारे गई, ज़मीन पर घुटनों के बल बैठी, प्याली रखी, और नीचे अंधेरे में झाँककर धीरे से पुकारा—“आ जा, दोस्त।”

कुछ ही पलों में, अँधेरे तले से एक बड़ी काली टाइगर स्नेक (अत्यंत विषैली और आक्रामक प्रजाति) बाहर आई और प्याली से दूध पीने लगी। बच्ची बस कुछ इंच दूर बैठी मुस्कुरा रही थी।

माँ स्तब्ध रह गई। कुछ कर भी नहीं सकती थी—बच्ची बहुत पास थी। साँस रोककर उसने देखा कि साँप दूध पीकर वापस अंधेरे में चला गया।

उस शाम उसने पति को सब बताया। पति बोला, “कल भी उसे दूध देना, मैं देख लूँगा।”

अगले दिन, वही समय। बच्ची ने माँ से प्याली मांगी। माँ ने दी। बच्ची बाहर गई, प्याली रखी, पुकारा, और वही काला साँप धीरे से बाहर आया।

लेकिन इस बार झाड़ियों के पीछे से गोली चली।

तेज धमाके के साथ साँप का सिर फट गया, और उसका शरीर घर की नींव से जा टकराया। लड़की स्तब्ध थी। पिता ने बंदूक रखी और बाहर निकल आया।

उस दिन के बाद, बच्ची ने खाना छोड़ दिया।

जैसे-जैसे दिन बीते, वह “घुलने लगी”—बुज़ुर्ग की यही भाषा थी। माता-पिता ने लाख कोशिश की, डॉक्टरों को दिखाया, जिला अस्पताल ले गए। कुछ काम नहीं आया।

लड़की मर गई।

वह आदमी बोला, “उस दिन अगर बाप ने गोली अपनी बेटी पर चलाई होती, तो शायद फर्क ही क्या था। उसने तो उसकी मित्रता, उसका भरोसा, उसकी दुनिया ही तोड़ दी थी।”

मैंने उससे पूछा, “क्या तुम्हें लगता है वो साँप कभी उस बच्ची को नुकसान पहुँचाता?”

उस बुज़ुर्ग ने जवाब दिया, “बिलकुल नहीं, भैया! बिल्कुल नहीं!”

मैंने भी हामी भरी—पर शायद उतनी सख़्त ज़ुबान में नहीं।


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