नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

मैंने थाईलैंड में आठ साल से अधिक एक भिक्षु के रूप में बिताए, ज्यादातर समय जंगल के मठों में—जहाँ मेरा रोज़ का जीवन साँपों के बीच बीतता था। जब मैं 1974 में वहाँ पहुँचा, तो मुझे बताया गया, “थाईलैंड में सौ किस्म के साँप हैं—उनमें से निन्यानवे ज़हरीले हैं और जो एक नहीं है, वह गले में लिपटकर मार देता है!”

इन वर्षों में मैंने लगभग रोज़ ही साँप देखे। कभी अपनी कुटी में छह फुट के साँप पर पैर रख बैठा—हम दोनों ही एक-दूसरे से उछलकर अलग हो गए, सौभाग्य से विपरीत दिशा में। एक बार सुबह-सुबह एक लकड़ी समझकर साँप पर पेशाब कर दिया—फिर शिष्टतावश माफ़ी भी माँगी (शायद उस साँप को लगा हो कि किसी पवित्र जल से अभिषेक हो रहा है)। और एक बार, एक समारोह के दौरान जब मैं मंत्र पढ़ रहा था, एक साँप एक अन्य भिक्षु की पीठ पर चढ़ गया। जब वह कंधे तक पहुँचा, तभी भिक्षु ने मुड़कर देखा—और साँप ने भी उसकी ओर देखा। कुछ पल दोनों एक-दूसरे को घूरते रहे, फिर भिक्षु ने धीरे से अपनी चिवर उतारी, साँप फिसल गया, और हम मंत्र पाठ फिर से करने लगे।

जंगल के भिक्षुओं को सिखाया जाता था “मैत्रीभाव”—सभी जीवों के लिए प्रेम और करुणा, विशेषकर साँपों के लिए। शायद यही कारण था कि उन दिनों किसी भिक्षु को साँप ने कभी नहीं काटा।

थाईलैंड में मैंने दो बड़े साँप देखे। एक था एक विशाल अजगर—कम से कम सात मीटर लंबा, जाँघ जितना मोटा। जब उसे पहली बार देखा, तो आंखें अविश्वास से फटी रह गईं—लेकिन वह सच था। कई भिक्षुओं ने उसे देखा था। अब वो शायद मर चुका है।

दूसरा था एक किंग कोबरा—एक ऐसा क्षण जब जंगल का वातावरण एकदम “विद्युत्-सा” हो गया। शरीर में झुरझुरी दौड़ गई, संवेदनाएँ तीव्र हो गईं। एक मोड़ पर पगडंडी के बीचोंबीच एक मोटा काला साँप था—सिर और पूँछ दोनों झाड़ियों में छुपे हुए। उसकी चाल को गिनते हुए मैंने पगडंडी के सात गुना लंबाई तक उसका शरीर देखा—वह साँप दस मीटर से भी लंबा था! मैंने देखा।

गाँववालों से पूछा। उन्होंने बताया, “बड़ी वाली किंग कोबरा है।”

एक बार, अजान चा के एक शिष्य भिक्षु—जो अब एक प्रसिद्ध अध्यापक हैं—कई अन्य भिक्षुओं के साथ जंगल में ध्यान कर रहे थे। तभी कुछ आहटें हुईं, और सबने आँखें खोलीं—एक किंग कोबरा उनकी ओर बढ़ रहा था। थाईलैंड में इसे “वन-स्टेप स्नेक” भी कहते हैं—क्योंकि डसने के बाद बस एक कदम चल पाते हैं, फिर मौत।

कोबरा वरिष्ठ भिक्षु के पास आया, फन फैलाया, और “ह्स्स्स्! ह्स्स्स्!” करने लगा।

आप होते तो क्या करते?

वह भिक्षु बस मुस्कुराया, धीरे से हाथ बढ़ाया, और साँप के सिर पर प्यार से थपथपाया, और थाई में कहा, “मुझे देखने के लिए धन्यवाद।” सभी भिक्षुओं ने ये दृश्य देखा।

वह साँप धीरे-धीरे शांत हुआ, फन समेटा, सिर झुकाया, और दूसरे भिक्षु की ओर बढ़ गया। दूसरे भिक्षु ने बाद में कहा, “भैया, मैं तो काँप रहा था! मैं हाथ लगाने वाला नहीं था। बस मन ही मन दुआ कर रहा था कि जल्दी से किसी और के पास चला जाए।”

वही किंग-कोबरा थपथपाने वाले भिक्षु कुछ महीने हमारे ऑस्ट्रेलियाई मठ में रहे। तब हम मुख्य भवन बना रहे थे और कुछ अन्य निर्माण योजनाओं को स्थानीय काउंसिल से मंज़ूरी दिलानी थी।

एक दिन काउंसिल के मेयर—क्षेत्र के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति, एक सफल किसान और हमारे पड़ोसी—मठ देखने आए। एक सुंदर सूट पहने, पेट सामने की ओर उभरा हुआ, बटन खिंचे-खिंचे, गरिमा से पूर्ण।

थाई भिक्षु, जो अंग्रेज़ी नहीं जानते थे, ने मेयर के पेट को देखा और—इससे पहले कि मैं कुछ कर पाता—आगे बढ़कर मेयर का पेट थपथपाने लगे।

मैंने सोचा, “अब तो सब गया! अब हमारी सारी योजनाएँ खटाई में!”

लेकिन जैसे-जैसे वह भिक्षु, सौम्य मुस्कान के साथ मेयर का पेट सहलाते रहे, मेयर मुस्कराने लगे, फिर हँसने लगे—और फिर बच्चे की तरह किलकारी मारने लगे। वे मंत्रमुग्ध हो गए।

उसके बाद क्या हुआ?

हमारी सारी योजनाएँ पास हो गईं। और मेयर हमारे सबसे अच्छे मित्रों में से एक बन गए।

सच्चा स्नेह वहाँ से आता है जहाँ दिल निर्मल हो। वह थाई भिक्षु एक ऐसे पवित्र भाव से भरा था कि किंग कोबरा भी उसे प्यार से देखता था और मेयर भी। लेकिन मेरी सलाह है—आप अभी मत आज़माइए! ना साँप पर हाथ रखें, ना मेयर पर—जब तक आप भी उस भिक्षु जैसी करुणा नहीं पाल लेते।


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